नई दिल्ली। सोशल मीडिया और ऑनलाइन मंचों की बेहतर निगरानी के लिए सरकार द्वारा सूचना प्रौद्योगिकी (आईटी) नियमों में बदलाव की योजना पर आईटी और विधि-विशेषज्ञों ने चिंताई जताई है। उनका कहना है कि इससे अधिकारियों को उपयोगकर्ताओं का डेटा मांगने की छूट होगी, जो निजता और अभिव्यक्ति के लिए खतरा होगा।
प्रस्तावित बदलावों से सोशल मीडिया मंचों की निगरानी बढ़ेगी और उन्हें अपने मंच पर किसी तरह की गैरकानूनी सामग्री को पकड़ने के लिए व्यवस्था करनी होगी। इस बारे में संपर्क करने पर साइबर कानून विशेषज्ञ पवन दुग्गल ने कहा कि इनमें से कुछ बदलाव भारत के अपने एंटी इन्क्रिप्शन कानून के समान हैं।
दुग्गल ने बताया कि प्रस्तावित संशोधन मध्यस्थों के लिए कानून को स्पष्ट करेगा। अभी तक इस पर किसी तरह की स्पष्टता नहीं थी। इससे हमारे साइबर कानून को भारत से बाहर स्थित इकाइयों पर भी लागू करने में मदद मिलेगी। इसके साथ ही उन्होंने कहा कि इसमें 50 लाख से अधिक के प्रयोगकर्ताओं वाली मध्यस्थ इकाइयों के लिए भारत में स्थायी कार्यालय रखना और विधि प्रवर्तन एजेंसियों के साथ संयोजन के लिए नोडल अधिकारी की नियुक्ति करने का प्रावधान मनमाना है और जमीनी वास्तविकता पर आधारित नहीं है।
डिजिटल अधिकार कार्यकर्ता निखिल पाहवा ने कहा कि आईटी कानून में जिन बदलावों का प्रस्ताव किया गया है वे नागरिकों, लोकतंत्र तथा अभिव्यक्ति के लिए हानिकारक हैं। एक अन्य उद्योग विशेषज्ञ ने कहा कि गैरकानूनी सूचना या सामग्री को परिभाषित नहीं किया गया है। इसी तरह मंचों के लिए, जो 50 लाख से अधिक के प्रयोगकर्ताओं की शर्त का प्रस्ताव किया गया है, उसकी भी व्याख्या की जरूरत है।
कम्प्यूटर निगरानी के खिलाफ न्यायालय में दो याचिकाएं : किसी भी कम्प्यूटर प्रणाली से सूचनाएं निकालने, उनकी निगरानी और कूट भाषा का विश्लेषण करने के लिए 10 केंद्रीय एजेंसियों को अधिकृत करने संबंधी अधिसूचना को चुनौती देते हुए सोमवार को उच्चतम न्यायालय में 2 जनहित याचिकाएं दायर की गईं।
ये जनहित याचिकाएं नई दिल्ली में अधिवक्ता मनोहरलाल शर्मा और अधिवक्ता अमित साहनी ने दायर की हैं। इन याचिकाओं में सरकार की 20 दिसंबर की अधिसूचना को चुनौती देते हुए न्यायालय से इसे निरस्त करने का अनुरोध किया गया है। दोनों याचिकाकर्ताओं का दावा है कि ये अधिसूचना असंवैधानिक है और निगरानी की खुली छूट कानून की दृष्टि से गलत है।
गृह मंत्रालय के अधिकारियों ने बताया कि सरकार की अधिसूचना के अनुसार 10 केंद्रीय जांच एजेंसियों को सूचना प्रौद्योगिकी कानून के तहत कम्प्यूटर इंटरसेप्ट करने और उसकी सामग्री का विश्लेषण करने का अधिकार प्रदान किया गया है।
इस अधिसूचना में शामिल एजेंसियों में गुप्तचर ब्यूरो, मादक पदार्थ नियंत्रण ब्यूरो, प्रवर्तन निदेशालय, केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड (आयकर विभाग के लिए), राजस्व गुप्तचर निदेशालय, केंद्रीय जांच ब्यूरो, राष्ट्रीय जांच एजेंसी, रॉ, सिग्नल गुप्तचर निदेशालय (जम्मू-कश्मीर, पूर्वोत्तर और असम के क्षेत्रों के लिए) और दिल्ली के पुलिस आयुक्त शामिल हैं।
शर्मा ने अपनी याचिका सुनवाई के लिए शीघ्र सूचीबद्ध करने का अनुरोध किया था लेकिन शीर्ष अदालत की रजिस्ट्री ने इसे अस्वीकार कर दिया और कहा कि इस पर सामान्य प्रक्रिया के तहत ही सुनवाई होगी। साहनी ने वकील प्रीति सिंह के माध्यम से दायर याचिका में दावा किया है कि निजता के अधिकार के बारे में 9 सदस्यीय संविधान पीठ के फैसले के आलोक में सरकार की 20 दिसंबर की अधिसूचना निरस्त करने योग्य है।
इस याचिका में कहा गया है कि जांच एजेंसियों को खुली छूट देने का 20 दिसंबर का आदेश आम जनता के खिलाफ है और यह बगैर किसी तर्क के जारी किया गया है। याचिका के अनुसार यह कानून की नजर में भी गलत है इसलिए इसे निरस्त किया जाना चाहिए। साहनी की याचिका में इस आदेश को अलोकतांत्रिक और नागरिकों के मौलिक अधिकारों पर कुठाराघात बताया गया है।
शर्मा ने अपनी याचिका में इन एजेंसियों को इस अधिसूचना के आधार पर सूचना प्रौद्योगिकी कानून के प्रावधानों के तहत किसी भी व्यक्ति के खिलाफ कोई आपराधिक कार्रवाई करने या जांच शुरू नहीं करने का निर्देश देने का भी अनुरोध किया है। इस याचिका में दावा किया गया है कि अधिसूचना का मकसद अघोषित आपात स्थिति के तहत आगामी आम चुनाव जीतने के लिए राजनीतिक विरोधियों, विचारकों और वक्ताओं का पता लगाकर पूरे देश को नियंत्रण में लेना है। याचिका में कहा गया है कि हमारे देश का संविधान इसकी इजाजत नहीं देता है।
याचिका में यह भी कहा गया है कि निगरानी की खुली छूट देने के गृह मंत्रालय के इस आदेश का निजता के मौलिक अधिकार की कसौटी पर परीक्षण किया जाना चाहिए। केंद्रीय जांच एजेंसियों को किसी भी कम्प्यूटर की निगरानी करने या इंटरसेप्ट करने का अधिकार देने के सरकार के कदम की राजनीतिक दलों ने तीखी आलोचना की है और उनका आरोप है कि केंद्र निगरानी राज्य (सर्विलांस स्टेट) बनाने का प्रयास कर रहा है।
हालांकि केंद्र सरकार का कहना था कि ये नियम कांग्रेस के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार ने 2009 में बनाए थे और नए आदेश में सिर्फ उन प्राधिकारों को अधिसूचित किया गया है, जो यह कार्रवाई कर सकते हैं।