नई दिल्ली। उच्चतम न्यायालय ने कहा कि कोरोनावायरस संक्रमण को काबू करने के लिए लागू किया गया लॉकडाउन आपातकाल की अधिघोषणा के बराबर नहीं है और निर्धारित समय में आरोप पत्र दाखिल नहीं किए जाने पर आरोपी को जमानत मिलना उसका अपरिहार्य अधिकार है।
न्यायालय ने तय समय में आरोप पत्र दायर नहीं किए जाने के बावजूद एक आरोपी को जमानत देने से इंकार करने के मद्रास उच्च न्यायालय के आदेश को दरकिनार करते हुए यह टिप्पणी की।
न्यायमूर्ति अशोक भूषण की अगुवाई वाली पीठ ने कहा कि उच्च न्यायालय का यह मानना स्पष्ट रूप से गलत है और कानून के अनुरूप नहीं है कि लॉकडाउन के दौरान लागू प्रतिबंध आरोपी को जमानत का अधिकार नहीं देते, भले ही आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 167 (2) के तहत निर्धारित समय में आरोप पत्र दायर नहीं किया गया हो।
न्यायालय ने आपातकाल में एडीएम जबलपुर मामले में अपने आदेश को पीछे की ओर ले जाने वाला करार देते हुए कहा कि कानून की तय प्रक्रिया के बिना जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार छीना नहीं जा सकता। 5 न्यायाधीशों की पीठ ने एडीएम जबलपुर मामले में 4:1 के बहुमत से फैसला सुनाया था कि केवल अनुच्छेद 21 में जीवन और निजी स्वतंत्रता के अधिकारों की बात की गई है और इसे निलंबित किए जाने पर सभी अधिकार छिन जाते हैं।
न्यायमूर्ति भूषण की पीठ ने कहा कि हमारा स्पष्ट रूप से यह मानना है कि (उच्च न्यायालय के) न्यायाधीश ने अपने आदेश में यह कहते हुए त्रुटि की कि भारत सरकार ने जिस लॉकडाउन को लागू करने की घोषणा की है, वह आपातकाल लागू करने के समान है।
इस पीठ में न्यायमूर्ति एमआर शाह और न्यायमूर्ति वी. रामासुब्रमण्यम भी शामिल थे। पीठ ने 2 जमानतों के साथ 10,000 रुपए के निजी मुचलके पर आरोपी की जमानत याचिका स्वीकार कर ली। (भाषा)