Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
webdunia

आपदा-पूर्व सूचना प्रणाली घटा सकती है हिमालय क्षेत्र में जान-माल का नुकसान

आपदा-पूर्व सूचना प्रणाली घटा सकती है हिमालय क्षेत्र में जान-माल का नुकसान
, शुक्रवार, 23 अप्रैल 2021 (15:17 IST)
नई दिल्ली, मानव अपनी विकास-यात्रा में प्रकृति का सतत दोहन करता चला आ रहा है। वह यह भूल गया है कि स्वयं उसका अस्तित्व प्रकृति के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हुआ है।

इसी का परिणाम है कि आज धरती के वायुमंडल में ग्रीन हॉउस गैसों की मात्रा अपने अधिकत्म स्तर पर पहुंच गई है। जिसके कारण संपूर्ण विश्व के सामने ग्लोबल वार्मिग एक प्रमुख चुनौती बनकर उभर रही है।

ग्लोबल वार्मिग से जहां एक तरफ पृथ्वी का तापमान लगातार बढ़ रहा है तो दूसरी तरफ बढ़ते तापमान के कारण हिम ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। ग्लोबल वार्मिग के कारण हो रहे जलवायु परिवर्तन का खतरनाक असर हिमालय क्षेत्र के ग्लेशियरों पर भी पड़ रहा है। इसी साल फरवरी में हुई उत्तराखंड आपदा इसका एक उदाहरण है।


हिमालयी क्षेत्रों में ग्लेशियर झील की वजह से आने वाली बाढ़ और उससे होने वाले नुकसान को लेकर भारतीय वैज्ञानिकों ने चिंता जताई है। वैज्ञानिकों का कहना है कि सेटेलाइट से मॉनिटरिंग करके अचानक आने वाली बाढ़ के खतरों से बचा जा सकता है और साथ ही बाढ़ आने की अग्रिम चेतावनी देकर मानव जीवन की क्षति को बचाया या कम किया जा सकता है।

इस दिशा में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) कानपुर ने भारत सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग के सहयोग से एक अध्ययन किया है जिसके नतीजे ग्लेशियर पिघलने के कारण आने वाली बाढ़ के दौरान होने वाली मानव जीवन की क्षति को कम करने की दिशा में उपयोगी हो सकते हैं।

आईआईटी कानपुर के इस अध्ययन में यह कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन की वजह से तापमान बढ़ने के साथ ही अत्यधिक वर्षा में भी बढ़ोतरी हुई है। ध्रुवीय क्षेत्रों के बाद हिमालयी क्षेत्रों में सबसे ज्यादा हिमपात हुए हैं। इसके साथ ही हिमालय के ग्लेशियर तेजी से पिघलकर नई झीलें भी बना रहे हैं। तापमान बढ़ने और अत्यधिक वर्षा से हिमालयी क्षेत्र में विभिन्न प्रकार के प्राकृतिक खतरों का डर बना रहता है।

इसी अध्ययन में कहा गया है कि ग्लेशियर झील से बाढ़ का प्रकोप तब होता है जब या तो हिमाच्छादित झील के साथ प्राकृतिक बांध फट जाता है या जब झील का जल-स्तर अचानक बढ़ जाता है।

जैसे 2013 में हिमस्खलन के कारण उत्तर भारत की चोराबाड़ी झील से अचानक आई बाढ़ की घटना में हुआ जिसमे 5 हजार से अधिक लोग मारे गए थे। जलवायु परिवर्तन के साथ हिमालय क्षेत्र में इस तरह की घटनाओं के बार-बार होने की संभावना जताई गई है।

वैज्ञानिकों का का कहना है कि कि मानसून के मौसम यानि जून,जुलाई और अगस्त के महीनों के दौरान पर्वतीय जल धाराओं में पिघले पानी का बहाव सबसे अधिक होता है। इसके साथ ही फरवरी महीने में उत्तराखंड के चमोली जिले हुए हिमस्खलन के बाद गंगा, धौली गंगा की सहायक नदी में ग्लेशियर के पिघले पानी का अचानक उछाल यह बताता है कि मानसून के मौसम की समय सीमा का विस्तार करने की आवश्यकता है।

आईआईटी कानपुर के वैज्ञानिकों ने इस शोध के बाद यह सुझाव दिया है कि भविष्य में ग्लेशियर झील में बाढ़ के खतरा को कम करने के प्रयासों में उपग्रह आधारित निगरानी स्टेशनों के नेटवर्क का निर्माण शामिल होना चहिए।
जो समय रहते जोखिम और वास्तविक समय की जानकारी दे सकें। वैज्ञानिकों का कहना है कि उपग्रह नेटवर्क के साथ निगरानी उपकरणों से न केवल दूरस्थ स्थानों बल्कि घाटियों, चट्टानों और ढलानों जैसे उन दुर्गम इलाकों के बारे में भी जानकारी मिल सकेगी जहां अभी संचार कनेक्टिविटी का अभाव है। (इंडिया साइंस वायर)

Share this Story:

Follow Webdunia gujarati

આગળનો લેખ

कोरोना काल में पश्चिम रेलवे का बड़ा फैसला, 8 ट्रेन निरस्त, 4 को किया शार्ट टर्मिनेट