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गिरती GDP ने तोड़ा 5 खरब डॉलर इकोनॉमी का ग्रेट इंडियन ड्रीम?

संदीपसिंह सिसोदिया
बुधवार, 2 सितम्बर 2020 (17:20 IST)
राष्ट्रीय सांख्यिकी विभाग द्वारा जारी आंकडों में अप्रैल से जून के बीच की तिमाही में भारत की जीडीपी 23.9 फीसदी गिर गई है। कोरोनावायरस से जूझ रही मोदी सरकार का भारतीय अर्थव्यवस्था को 2025 तक 5 ट्रिलियन डॉलर इकोनॉमी बनाने का 'ग्रेट इंडियन ड्रीम' अब टूटता-बिखरता दिखाई दे रहा है। 

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फिर भी था विश्वास : फिर भी यह सपना देखने और पूरा करने के विश्वास का एक बड़ा कारण भी था भारत की अर्थव्यवस्था कुछ ही सालों पहले 8% की विकास दर से बढ़ रही थी। 2019 में भारत की जीडीपी 2900 करोड़ की थी जो अमेरिका, चीन, जापान और जर्मनी के बाद दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था थी और अपने विशाल 'बाजार' के दम पर दुनिया की सबसे तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में से एक थी।
  
GDP में अभूतपूर्व गिरावट का अंदेशा तो तभी हो गया था जब वित्त मंत्री ने कोविड-19 से हुए नुकसान को 'एक्ट ऑफ गॉड' बताते हुए कहा था कि चालू वित्त वर्ष में जीएसटी राजस्व प्राप्ति में 2.35 लाख करोड़ रुपए की कमी का अनुमान लगाया गया है।

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क्यों और कैसे : उल्लेखनीय है कि भारत में लॉकडाउन 25 मार्च को शुरू हुआ था। जीडीपी के ये आंकड़े उसके बाद की तिमाही के हैं। इससे पहले की तिमाही में 4.2 प्रतिशत का विकास हुआ था, जबकि एक साल पहले की ठीक इसी अवधि के लिए यह आंकड़ा 5.2 प्रतिशत रहा था। 
 
इसका बड़ा कारण बताया जा रहा है कि भारत में हुए दुनिया के सबसे बड़े लॉकडाउन में मैन्यूफैक्चरिंग, प्रोडक्शन और कंस्ट्रक्शन जैसे आधारभूत उद्योगों में काम बंद हो गया। इसके कारण समूची व्यावसायिक गतिविधियां तकरीबन ठप पड़ गईं। 

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डरावनी तस्वीर : लेकिन भारतीय अर्थव्यवस्था के इन आंकड़ों के अलावा सबसे ज्यादा डराने वाली तस्वीर असंगठित क्षेत्र से आ रही है। भारत में करोड़ों लोग ‘अनियमित’ रोजगार पर आश्रित हैं।
 
प्रायवेट ट्‍यूशन देने वाले से लेकर, हलवाई, हम्माल, रिक्शाचालक, टेलर, दिहाड़ी मज़दूर,  कंस्ट्रक्शन में ठेके पर काम करने वाले कारीगर, इलेक्ट्रिशियन, प्लम्बर, श्रमिक, खेतों में बुवाई, बंटाई करने वाले किसान और खेतिहर मजदूर सहित माइक्रो इंडस्ट्रीज में काम इत्यादि संगठित क्षेत्रों में न होने की वजह से अधिकतर सरकारी आंकड़े से बाहर होते हैं। 
 
इसका अर्थ है कि अर्थव्यवस्था के आधिकारिक आंकड़ों में इस बड़े हिस्से को भुला दिया जाता है। यदि इन्हें भी जोड़ दिया जाए तो नुकसान की कल्पना कर पाना भी मुश्किल है। 
 
असंगठित क्षेत्र की बैकबोन माने जाने वाले व्यापार, होटल और ट्रांसपोर्ट जैसे क्षेत्र में 47  प्रतिशत की गिरावट आई है। इंफ्रास्ट्रक्चर क्षेत्र में भी निर्माण उद्योग 39 प्रतिशत गिरा है। हांलाकि कृषि क्षेत्र में मानसून की अच्छी बारिश के कारण 3.4 प्रतिशत वृद्धि हुई है।

लेकिन, विशेषज्ञों का मानना है कि इस पूरे वित्त-वर्ष के दौरान जीडीपी में 37.5 गिरावट होने की आशंका है। रिजर्व बैंक (RBI) भी अपनी वार्षिक रिपोर्ट में ऐसी किसी स्थिति की चेतावनी दे चुका है। इसके अलावा जीएसटी वसूली से होने वाली सरकारी कमाई में पिछले साल के मुताबिक  लगातार गिरावट आ रही है। जहां पिछले साल अप्रैल के महीने में 1,13,865 करोड़ रुपयों की वसूली हुई थी, इस साल अप्रैल में सिर्फ 32,172 करोड़ रुपए आए। 

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मंदी की आहट : जीडीपी यानी सकल घरेलू उत्पाद देश भर में बनाई गई वस्तुओं और सेवाओं के मूल्य का योग, भारत जैसे विकासशील देश में जीडीपी पर बहुत कुछ निर्भर है। खासतौर पर गरीब और मध्यम वर्गीय परिवारों की आय में कमी और स्वास्थ्य और शिक्षा संबंधी कल्याणकारी योजनाओं जैसे पर पड़ने वाला नकारात्मक असर। वैश्विक महामारी से जूझ रहे देश में अधिकांश लोग जनकल्याणकारी योजनाओं पर आश्रित हैं।  
 
सबसे बड़ा डर सता रहा है दूसरी तिमाही के इंतजार में, इसकी वाजिब वजह भी है क्योंकि यदि किसी देश की अर्थव्यवस्था में लगातार दो तिमाही गिरावट रहती है तो उसे मंदी में घिरा मान लिया जाता है। 
 
यदि ऐसा होता है तो समूची अर्थव्यवस्था में नेगेटिव सेंटिमेंट फैलेगा। कई लाख करोड़  रुपए की कटौती होगी और अधिकतर क्षेत्रों में निवेश गिरेगा, खपत गिरेगी और कुलमिला  कर सरकार के राजस्व में भी भारी गिरावट आने की आशंका है। 
 
कैसे सुधरेंगे हालात : अर्थव्यवस्था को गिरने से बचाने के लिए आरबीआई का कहना है कि खपत को प्रोत्साहन देने के लिए निवेश बढ़ना जरूरी है। प्रोत्साहन पैकेज में निजी क्षेत्र को इसी उद्देश्य से कॉर्पोरेट टैक्स में छूट दी गई थी, लेकिन कंपनियों ने उस छूट का उपयोग अपनी उधारी कम करने में और अपने नकदी भंडार को बढ़ाने के लिए किया। 
 
आरबीआई का मानना है कि कोविड-19 के कारण सरकारी खर्च बहुत बढ़ गया है और अब और खर्च करने की सरकार के पास गुंजाइश नहीं बची है। केंद्रीय रिजर्व बैंक ने और कर्ज लेने से भी मना किया है क्योंकि उसके अनुसार केंद्र और राज्य सरकारों पर पहले से कर्ज का भार काफी बढ़ा हुआ है। 
 
उल्लेखनीय है कि इसके पहले ही भारत सरकार ने अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए मई में 20 लाख करोड़ के आर्थिक राहत पैकेज की घोषणा की थी। भारतीय रिज़र्व बैंक भी मार्च से ब्याज़ दरों में 115 बेसिस पॉइंट्स की कमी कर चुका है। 
 
कैसे दूर होगा नकदी का संकट : आरबीआई ने सरकार की कमाई बढ़ने के लिए टैक्स डिफॉल्टरों की पहचान कर उनसे टैक्स वसूलने, लोगों की आय और संपत्ति को ट्रैक कर करदाताओं की संख्या बढ़ाने और जीएसटी तंत्र में आवश्यक सुधार करने का प्रस्ताव दिया है।
 
सरकार के पास नकदी के लिए रिजर्व बैंक ने स्टील, कोयला, बिजली, जमीन, रेलवे और  बंदरगाह जैसे क्षेत्रों में सरकारी संपत्ति को बेचने की भी सलाह दी है। इससे निजी क्षेत्र को भी निवेश करने का प्रोत्साहन मिलेगा। 
 
सबसे बड़ा सवाल : बेरोजगारी इस समय अपने चरम पर है। कोरोनावायरस, चीन से सीमा-विवाद, से बीच भारत की जीडीपी पिछले चार दशकों में पहली बार इतनी गिरी है, यह 1979 के दूसरे ईरान तेल संकट से भी बुरी स्थिति है, जब 12 महीनों का प्रदर्शन -5.2 प्रतिशत दर्ज किया गया था। 
 
देश को विकास के पथ पर ले जाने वाले इंजन के पहिए खपत, निजी निवेश या निर्यात बंद पड़े हैं। अब केंद्र सरकार के पास इस दौबारा दौड़ाने के लिए अब आर्थिक प्रोत्साहन के साथ-साथ दूरदर्शिता का होना बेहद जरूरी है। सरकार को इस बार सबके विकास के लिए सही मायनों में सबका साथ लेना ही उचित होगा।
 
वर्तमान में देश के जो आर्थिक और राजनीतिक हालात हैं, उन्हें बयां करने के लिए दुष्यंत कुमार की पंक्तियां काफी मौजूं हैं-
तुम्हारे पांव के नीचे कोई ज़मीन नहीं,
कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यक़ीन नहीं, 
मैं बे-पनाह अंधेरों को सुबह कैसे कहूं
मैं इन नज़ारों का अंधा तमाशबीन नहीं।

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