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मोदी हार गए यूपी तो फिर क्या-क्या 'मुमकिन' है?

मोदी हार गए यूपी तो फिर क्या-क्या 'मुमकिन' है?
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श्रवण गर्ग

, सोमवार, 14 फ़रवरी 2022 (20:46 IST)
10 मार्च को प्राप्त होने वाले उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनावों के नतीजे अगर भाजपा और संघ की उम्मीदों के ख़िलाफ़ चले जाते हैं (जैसी कि हाल-फ़िलहाल आशंका ज़ाहिर की जा रही है) और जीत 'कमंडल' के बजाय 'मंडल' की हो जाती है तो उस स्थिति में क्या भारत को एक हिन्दू राष्ट्र घोषित करने की दिशा में संघ-भाजपा का हिन्दुत्व का कार्ड निष्प्रभावी साबित हो गया मान लिया जाएगा? क्या तब हिन्दुत्व का पूरा एजेंडा ठंडे बस्ते में डाल दिया जाएगा? या उसका ज़्यादा आक्रामक रणनीति के साथ परीक्षण किया जाएगा, देश के कोने-कोने को हरिद्वार जैसी धर्म संसदों से पाट दिया जाएगा?
 
चुनाव परिणामों को दलों की हार-जीत के गणित से इतर भाजपा और संघ के हिन्दू राष्ट्रवाद की अवधारणा के साथ जोड़कर देखने की शुरुआत इसलिए कर देना चाहिए कि जो कुछ भी 10 मार्च को 5 राज्यों में तय होगा, उसी के बीजों से 2024 के लोकसभा के चुनाव और उसके भी पहले अन्य 11 राज्यों की विधानसभाओं की फसलें भी काटी जाने वाली हैं। अल्पसंख्यकों के प्रति जिस तरह की भड़काऊ और आक्रामक ज़ुबान का इस्तेमाल मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और अन्य भाजपा नेता कर रहे हैं, उससे यही संकेत निकलते हैं कि उत्तरप्रदेश में मतदान हक़ीक़त में भारत को एक हिन्दू राष्ट्र घोषित करने के भाजपा के अलिखित घोषणापत्र पर मतदाताओं की सहमति प्राप्त करने को लेकर हो रहा है और उसे ही 80 बनाम 20 (या अब 90-10) के बीच का चुनाव बताया गया है।
 
इससे पहले कि चुनाव परिणामों के बाद सोशल मीडिया पर चलने वाली बहसों पर पहरे बैठा दिए जाएं, विचार करने का मुद्दा यह है कि सरकार न बना पाने या बहुमत के नज़दीक पहुंचकर ठिठक जाने की हालत में भाजपा सारा दोष हिन्दुत्व की अतिवादी राजनीति को देते हुए अपने साम्प्रदायिक एजेंडे पर फिर से विचार करेगी या फिर पराजय का ठीकरा मुख्यमंत्री योगी की प्रशासनिक खामियों और संगठनात्मक कमज़ोरियों के माथे पर फोड़ते हुए साम्प्रदायिक विभाजन के एजेंडे का और ज़्यादा मज़बूती और संकल्प के साथ विस्तार करना चाहेगी?

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उत्तरप्रदेश के नतीजों की प्रतीक्षा एक अज्ञात भय के साथ इसलिए की जानी चाहिए कि भाजपा को मिलने वाली सीटों की संख्या और पड़ने वाले कुल मतों में उसका हिस्सा भारत को एक हिन्दू राष्ट्र में तब्दील करने की उसकी महत्वाकांक्षाओं के पक्ष (या विपक्ष) में जनता के समर्थन का प्रतिशत भी तय करने वाला है। इस तरह की आशंकाओं की प्रतिक्रिया ही मतों के विभाजन को रोकते हुए विपक्षी गठबंधन की सीटों में प्रकट होने वाली है। विपक्ष की मज़बूत चुनौती के साथ-साथ केंद्र और राज्य दोनों ही सरकारों के प्रति व्याप्त व्यापक नागरिक-असंतोष के बावजूद अगर भाजपा वापस सत्ता में आ जाती है तो उसे फिर योगी के कट्टर हिन्दुत्व का चमत्कार ही मान लिया जाएगा।
 
उत्तरप्रदेश के नतीजों को 'वहां सरकार कौन बनाएगा' से ज़्यादा इन संदर्भों में भी देखने की ज़रूरत पड़ सकती है कि लोकसभा के लिए की जाने वाली तैयारी में भाजपा, संघ और उसके आनुषंगिक संगठनों को अपने हिन्दुत्व की धार को और कितना तेज करने की ज़रूरत पड़ने वाली है और उसका नागरिक-राजनीतिक प्रतिरोध किस रूप में प्रकट हो सकता है?
 
भाजपा की पराजय की प्रतिक्रिया में इस भय को भी शामिल किया जा सकता है कि अखिलेश के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार को लोकसभा चुनावों तक बचने वाले 2 वर्षों के दौरान धार्मिक आतंकवाद की घटनाओं से मुक्त रहकर विकास के एजेंडे पर काम ही नहीं करने दिया जाए, पिछले 5 वर्षों के दौरान शासन-प्रशासन पर क़ब्ज़ा कर चुके निहित स्वार्थों द्वारा उसके पैर जमने ही नहीं दिए जाएं और उसे उस तरह का साबित करने की हरेक दिन कोशिश की जाए जिसकी कि चर्चा प्रधानमंत्री अपनी वर्चुअल सभाओं में कर रहे हैं?
 
मोदी मतदाताओं को लगातार आगाह कर रहे हैं कि समाजवादी पार्टी की सत्ता में वापसी का मतलब दबंगों और दबंगई के शासन को उत्तरप्रदेश में वापस लौटाना होगा। उत्तरप्रदेश में 2017 की तरह के बहुमत के साथ भाजपा का सरकार नहीं बन पाना न सिर्फ़ 2024 में प्रधानमंत्री की सत्ता में वापसी की संभावनाओं को प्रभावित करेगा, मोदी की पार्टी और संघ पर पकड़ के साथ-साथ देश की जनता पर उनके तिलिस्म और उनकी अंतरराष्ट्रीय छवि में भी दरारें पैदा कर देगा। चूंकि आंतरिक प्रजातंत्र के मामले में भाजपा की विश्वसनीयता कांग्रेस जितनी पारदर्शी कभी नहीं रही, इस बात का कभी ठीक से अनुमान भी नहीं लगाया जा सकेगा कि मोदी को कमजोर होते देखने की कामना करने वाले नेता-कार्यकर्ताओं की भाजपा और संघ में तादाद कितनी बड़ी होगी?
 
विधानसभा के विपरीत परिणामों की स्थिति में योगी आदित्यनाथ तो लखनऊ से गोरखपुर लौटकर फिर से अपने मठ के पूजा-पाठ में ध्यान लगा सकते हैं, पर 2024 में लोकसभा चुनावों के अनपेक्षित नतीजों की हालत में मोदी को लेकर ऐसी कल्पना क़तई नहीं की जा सकती कि प्रधानमंत्री कभी सत्ता से बाहर भी रह सकते हैं या विपक्ष में भी बैठने का उनमें कोई साहस है?
 
मोदी ने वर्ष 2001 में गुजरात विधानसभा में पहली बार प्रवेश मुख्यमंत्री के तौर पर ही किया था और फिर गांधीनगर से सीधे संसद में भी प्रधानमंत्री के तौर पर ही दाखिल हुए थे। वर्ष 2024 तक मोदी सत्ता में बने रहने के 23 साल पूरे कर लेंगे। जवाहरलाल नेहरू कुल 16 साल 286 दिन और इंदिरा गांधी (2 चरणों में) 15 साल 350 दिन ही सत्ता में रह पाईं थीं।
 
आपदाओं को आमंत्रित कर उन्हें अवसरों में बदल देने की महारथ रखने वाले मोदी के राजनीति विज्ञान का अध्ययन करने वाले शोधार्थी जानते हैं कि प्रत्येक विपरीत परिस्थिति के लिए प्रधानमंत्री के पास एक 'प्लान-बी' का जादुई हथियार अवश्य मौजूद रहता है, जो पिछले लगभग 8 सालों में कई बार अवतार ग्रहण कर चुका है। अत: जो लोग इस समय योगी की नज़रों से उत्तरप्रदेश के विधानसभा चुनाव परिणामों में भाजपा के लिए संकट ढूंढ रहे हैं, वे 10 मार्च के बाद मोदी की नज़रों से 2024 के लोकसभा चुनावों के लिए किसी 'प्लान-बी' की प्रतीक्षा भी कर सकते हैं।
 
मोदी अब न तो अपने लिए सत्ता को छोड़ सकते हैं और न ही संघ के लिए हिन्दू राष्ट्र की स्थापना का एजेंडा। संसद के बजट सत्र के दौरान राष्ट्रपति के अभिभाषण पर हुई बहस के जवाब में प्रधानमंत्री ने पहले लोकसभा और फिर राज्यसभा में जिस कटुता और विद्वेष की भावना के साथ विपक्ष पर आक्रमण किया, उसमें चुनाव परिणामों के बाद बनने वाली राजनीति के स्पष्ट संकेत ढूंढे जा सकते हैं? देश की जनता को बस अपनी तैयारी रखनी चाहिए।

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