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मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
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जि‍से खून-पसीने से सींचा था… बुद्धिश्रेष्ठों के उस बाग को खा रहे हैं जड़मति

जि‍से खून-पसीने से सींचा था… बुद्धिश्रेष्ठों के उस बाग को खा रहे हैं  जड़मति
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डॉ. छाया मंगल मिश्र

कल रात से मेरे सपने में एक लगभग 72 वर्ष की महिला बैचैन, बिलखती, दर्द से बिलबिलाती, तड़पती, लहूलुहान, चोटिल, घायल फटे कपड़ों में नजर आ रही है। हाथों में तिरंगा है, उससे अपना नंगा बदन ढंकने की कोशिश कर रही है पर वो भी मटमैला हो चुका है। जगह जगह से छेदिल है।

हरा रंग सफेद रंग को दागदार बनाते हुए, नीले चक्र के रंग के साथ मिल कर केसरिया को निगलने की कोशिश कर रहा है। चक्र की ताड़ी बिखर कर उसके शरीर में सुओं की भांति चुभी हुईं है। उसके दोनों हाथ आसमान की तरफ उठे हुए हैं वो धरती पर रहने वाले द्विपाद पशुओं से आहत, पीड़ित, त्रस्त, दुखी नजर आ रही है।

ये द्विपाद पशु की भी अपनी ही एक खूंखार प्रजाति है। सबसे जहरीली, स्वार्थी और विध्वंसकारी भी। और ऐसा लगा मुझे कि शायद दीमक भी लग चुकी थी उसके जर्जर बदन में। हरे रंग की बदबूदार काई की परत भी दिख रही थी। मैं घबरा कर उठ पड़ी। पसीना निकल आया था शरीर से, सांस धौकनी सी चल रही थी, आवाज गले में फंस रही थी, किसी अनिष्ट की आशंका से मैं कांप उठी।

अनिष्ट तो था ही। केसरिया लाल हो दम तोड़ चुका था। जमीं पर पड़ा था। बेबस, लाचार, जाहिलों की बर्बर लाठियों के नीचे कराहता, जीवन की भीख मांगता, अपने निर्दोष होने की दुहाई देता। मैं तो अपने स्वप्न फल को ढूंढती ही रह गई और वहां केसरिया स्वप्न के दोषियों का शिकार हो गया।

एक बार मैंने ऐसा भी देखा कि कुछ चींटियां अपने से कई गुना बड़े जीव को मिल कर पहले खा रहीं हैं, जीव थोडा कसमसाता है, तिलमिलाता है, दर्द पर ध्यान नहीं देता। उन्हें छोटी जानकर समय रहते ईलाज नहीं करता। चींटियों की संख्या बढ़ी, और बढ़ी, खूब बढ़ी। चारों ओर से उस बड़े जीव को घेर लिया, उसका मांस खा लिया, खोखला कर दिया। वो जीव जो उनसे बड़ा था और शक्तिशाली भी तिलतिल कर, तड़प-तड़पकर मरने को मजबूर हुआ क्योंकि समय रहते उसने चींटियो को झटक कर अपने से दूर नहीं किया था। अपने पर पलने दिया। अंततः उसका खोल भी सारी चींटियां उठा कर ले चलीं।

मैं देख रही हूं। सोच रही हूं की ऐसा कैसे हो जाता है? क्यों हो जाता है? तब समझ में आता है कि एकता इसका मन्त्र है। वो कर्म में भरोसा करतीं है। भले ही वो बुरे कर्म हों। पर बड़े, शक्तिशाली, खुद को केवल विचारों तक सीमित रखतें हैं। केवल ज्ञान बांटना, विचारों को बुद्धि पर हावी होने देना ही उनका प्रधान कर्म होता है। एकता से इनका कोई नाता नहीं होता। विचार जो ये लोग पालते हैं वो भी क्षणिक घटना/ दुर्घटना का परिणाम मात्र होते हैं। जिनका कर्म कर परिणिति से कोई नाता नहीं होता जिससे ये विचार भी शीघ्र ही पतन को प्राप्त हो जाते हैं।

ये जो चींटी है ये बड़े से हाथी, गजराज को भी नाकों चने चबवा देती है। क्योंकि हाथी अपनी ही मस्ती में झूमता रहता है। ध्यान ही नहीं देता कि चिटियों ने अपने बिल/बाबिन बना बना कर उसके क्षेत्र में अतिक्रमण कर लिया है। समय रहते उन्हें अपने पैरों से कुचलता नहीं। फिर जब नाक में घुसतीं हैं तब बस बिलबिला कर तड़प कर दर्द सहन करता रह जाता है या प्राण त्यागता है।

मुझे कई बार जड़मति औरतें बहुत भातीं हैं। उनके लक्ष्य साफ़ होते हैं। वैसे तो वो उनके होते नहीं, दूसरे उनको चश्मा पहना के लक्ष्य जंचा जाते हैं। वो पूरे मनोयोग से उस कथित, भटकित लक्ष्य को पाने के लिए एकजुट हो जातीं हैं। उन्हें बुद्धि से कोई मतलब नहीं होता। ऐसा अस्त्र यदि किसी को मिल जाए एक नहीं चार चार तो उसे किस बात की फिकर? फिर बस चलते फिरते आत्मघाती दस्तों की फौज तैयार है।

वहीं जिनके पास बुद्धि है, शुद्धि है, शिक्षा है, सामर्थ्य है उनको बुद्धि के अजीरण का अभिशाप है। खुद को, खुद के विचारों को सर्वश्रेष्ठ मानकर आपसी प्रतिस्पर्धा में एकदूसरे को लंगी मार कर गिराने में आनंदित हो रहे हैं। जड़मति इन बुद्धिश्रेष्ठों के बागों के फल खा रहे हैं जो इनके बुजुर्गों ने अपने खून-पसीने से सींचा था। और अपने हाड़कों की खाद बनाकर इस बाग को हरा-भरा किया था। फिर सोचने में आया आखिर ऐसा क्यों? शायद इन्हें मिले हुए की वकत नहीं। फलों को कैसे तोड़कर खाएं क्योंकि वो तो पकने पर खायेंगे। सब्जी काटने के चाकू तक तो इनसे अवरते नहीं। बोठे हो जाएं तो धार तेज करने तक की सूझ इन्हें पड़ती नहीं। बाग की रखवाली के लिए रक्षा करने के लिए शस्त्र कहां से लायेंगे? लाठी के दम पर कूदने वालों आज इन्ही लाठियों ने केसरिया की हत्या कर दी।

शिव के आंसू रुद्राक्ष भी बिखर कर शर्मिंदा हो गए। असुरों का तांडव हुआ। खाकी ने कायरता का चोला पहना। बर्बरता ने अपना रंग दिखाया। नृशंसता ने हदें पार की और हम रामायण- महाभारत में उलझे रह गए। उनसे यह नहीं सीखा कि हर राक्षस, असुर, अधर्मियों को मारने के लिए उन देवताओं को भी अलग-अलग अस्त्र-शस्त्रों का संधान करना पड़ता रहा था। केवल मर्यादा का पाठ अधूरा सा सीखने में ही कच्चे रह गए। उधर वो बर्बरता, नृशंसता, हैवानियत का पक्का पाठ रट कर अधर्म की जय कर गए। क्योंकि उदारता, सहिष्णुता के पाठ की आड़ में अपनी भीरुता जो छुपाना है। उस पर गलत फहमी हो गई कहकर पाप को पुण्य के बरक से ढांक कर जो पेश करना है। पर भूल रहे हैं विष्टा को चांदी के बरक में ढक देने से वो मावे की मिठाई में कदापि नहीं बदल जाता।

पर यदि आपको यही खाने की आदत हो गई है तो इस बर्बरता के साथ हुई नृशंस हत्या को गलतफहमी से हुआ हादसा मानने को मजबूर हो जाइए और शामिल हो जाइये इस पाप में। फिर ये न भूल जाना इन हत्याओं/खून से आपके हाथ भी बराबरी से रंगे हुए हैं और कल आपकी भी बारी आ सकती है। काल किसी का सगा नहीं होता। वो तो फिर भी सद्कर्मी ही रहे होंगे। प्रभुसेवक भी। पर आप तो पाप के भागीदार हो बराबरी के। अपनी दुर्गति के बारे में विचार कीजिये, जागिये, लड़िये, आवाज उठाइए, गलत को गलत कहने का साहस कीजिये और कीजिये प्रतिकार। जरुरत पड़े तो प्रतिघात भी। निडरता और निर्भिकता के साथ।

इस लेख में व्‍यक्‍त व‍िचार लेखक की नि‍जी अभिव्‍यक्‍त‍ि है, वेबदुन‍िया का इससे कोई संबंध या लेना-देना नहीं है।

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