Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
webdunia

ट्विटर की जमात और राष्ट्रद्रोह का बवाल

शनै: शनै:-02

ट्विटर की जमात और राष्ट्रद्रोह का बवाल
webdunia

डॉ. आशीष जैन

'भक्त' सौ सुनार की और एक लोहार की साबित हुआ है जबकि 'राष्ट्रद्रोह' दहले पर नहला ही रह गया। मैं बताता हूं कैसे- भक्त, एक सौम्य एवं सकारात्मक शब्द था जिसका ट्विटर की जमात ने भावांतरण कर दिया है। ठीक उसी तरह जैसे अंग्रेजी में माउस शब्द सुनते ही चूहा नहीं कम्प्यूटर स्मरण में आता है, वैसे ही भक्त सुनकर आजकल धर्मावलंबी नहीं, बल्कि एक राजनीतिक पक्ष के समर्थक होने का भान होता है, वह भी नकारात्मक स्वर में। यह एक ऐसा संसदीय शब्द है जिसका भाव असंसदीय हो गया। और यह बोलने वाला भी जानता है और सुनने वाला भी। बेचारा भावांतरित भक्त!! शब्द, संज्ञा और विशेषण तीनों दया के पात्र हैं।
 

इसके विपरीत राष्ट्रद्रोह एक कठोर शब्द है। निहायत ही घृणित व्यक्तित्व की ओर इंगित करने वाला शब्द। जिसका प्रयोग एक विचारधारा के लोग उन पर करते हैं, जो मात्र उनके अनुसार कदाचित राष्ट्रहित में नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है मानो कागज की नाव को रोकने के लिए लोहे का लंगर लगाया हो। मजेदार बात यह है कि न तो सुनने वाला और न ही बोलने वाला इसे गंभीरता से लेता है। हां, सरकार गाहे-ब-गाहे अमुक फेसबुक पोस्ट पर जरूर 129-ए ठोंक देती है।
 


बात यहीं खत्म नहीं होती है। 'भक्त' शब्द का उद्विकास हुआ है जिसे ट्विटर की जमात ने धीमी आंच पर पकाया है और अब उसका घूंट-घूंट आनंद ले रहे हैं। दूसरी ओर राष्ट्रद्रोह ताबड़तोड़ में ढूंढा गया जुगाड़ है इसलिए कभी ‘लिबटर्ड’, कभी ‘सूडोसेकुलर’ आदि शब्दों पर जोर-आजमाइश चलती रहती है। पर कसम से, भक्त की तोड़ का शब्द भक्तों को आज तक नहीं मिला। ऊपर से अधिकांश भक्त इस शब्द से बचते फिरते हैं। सुनते ही बड़ा ताव चढ़ जाता है।
 

इधर राष्ट्रद्रोही, ट्विटर पर इस अलंकरण की बेसब्री से प्रतीक्षा करते हैं। नीले टिक लगे ट्विटर हैंडल से लैस ट्विटरगण भक्तों को ट्वीट-दर-ट्वीट उकसाते हैं और अगर मामला हिट हो गया, हैशटैग 1 घंटे के लिए भी ट्रेंड हो गया तो शाम को पृष्ठ-तीन पार्टी तय। अगर ज्यादा चल गया तो मोमबत्ती मार्च। चुनाव निकट हों तो मामला लंबा खींचा जाता है और आचार संहिता लगने से पहले ही अवॉर्ड वापसी शुरू।
 

ल्यूट्न की दिल्ली से मेरा संपर्क सिर्फ इतना ही है कि मैं बच्चों को इंडिया गेट पर आइसक्रीम खिलाने ले गया हूं। पर अपनी सृजनात्मकता एवं पत्र-पत्रिकाओं में किए गए चित्रण से मेरे मन में एक अविश्वसनीय तस्वीर उभरती है जिसका मुझे विश्वास तो है, पर साक्ष्य नहीं है। पर आरोप लगाने में क्या जाता है, यही तो आजकल का फैशन है।
 
खैर, कल्पना कुछ ऐसी है- दिल्ली के अतिविशिष्ट इलाके के सफेद बंगले के हरी लॉन पर गुलाबी रात में सामान्य से दिखने वाले असामान्य स्त्री-पुरुष सुरापान और झींगे की लजीज प्रजातियों को चखते-चखाते देश में बोई गई समस्याओं का अंग्रेजी में विश्लेषण तथा विच्छेदन कर रहे हैं।
 

अभी कुछ लोग आ चुके हैं, कई आना बाकी हैं, तभी एक औसत कद का अधेड़ युवा बढ़ी हुई दाढ़ी और कुर्ता पहने खीसे निपोरते हुए प्रवेश करता है। इसके चाल-ढाल, हाव-भाव बता रहे हैं कि यह इसकी पहली पृष्ठ-तीन पार्टी है। शायद इस उम्र में भी यह किसी सरकारी संस्थान से पीएचडी कर रहा है।
 
इस नए सदस्य के आगमन का जश्न इतनी धूमधाम से मनाया जाता है, मानो किसी के घर में सात बेटियों के बाद बेटा पैदा हुआ हो। अभी यह क्रांतिकारी आत्मविश्वास की कमी के कारण झिझक रहा है, पर देखना कुछ ही समय में ये पूरे देश में घूम-घूमकर अलख जगाएगा। इसकी एक हुंकार से भक्तों में खलबली मच जाएगी और इससे निपटने के लिए इसके परिवार, आय, शिक्षा एवं चाल-चलन के अध्ययन हेतु भक्तों की एक पृथक पलटन भी तैयार की जाएगी।
 

मुझे लगता है, इन पृष्ठ-तीन पार्टियों में 'राष्ट्रद्रोह' शब्द सुनने के बाद ऐसी ही ‘फीलिंग’ आती होगी, जैसे परतंत्र भारत में इंकलाबियों को आती थी। खुद को खुश रखने के लिए यह ‘फीलिंग’ भी बुरी नहीं। फर्क सिर्फ इतना है कि वो इंकलाब करते थे और ये महज ट्विटर पर बवाल करते हैं। पर बोलने की आजादी की दुहाई देते हैं और मोमबत्तियां जलाते हैं। इससे देश बदलना तो दूर, पर जब चुनाव तक नहीं जीत पा रहे थे, तो एक नई लहर भी शुरू हुई अवॉर्ड वापस करने की। भई, अवॉर्ड न हुए दिवाली की सोहन पपड़ी का डिब्बा हो गया। मिलने का कोई जतन नहीं और जाने का कोई गम नहीं।
 

मैं तो कहता हूं ट्विटर और अन्य सोशल मीडिया पर राष्ट्रद्रोही और भक्त दोनों ही अपनी-अपनी दुकान चला रहे हैं। पहले बिके हुए हैं और दूसरे खरीदे जा चुके हैं। ये जमात बवाल न ही करे तो देश का ज्यादा भला होगा। अंत में, उक्त पद्य से हमें क्या शिक्षा मिलती है? दरअसल कुछ नहीं! क्योंकि शिक्षा देना मेरा उद्देश्य नहीं है। ट्विटर पर सभी जाग्रत न सही, जागे हुए तो हैं ही। और जागे हुए को जगाया नहीं जा सकता, सिर्फ उकसाया जा सकता है। सो काम बदस्तूर जारी है...!
।।इति।। 
(लेखक मेक्स सुपर स्पेश‍लिटी हॉस्पिटल, साकेत, नई दिल्ली में श्वास रोग विभाग में वरिष्ठ विशेषज्ञ हैं) 
(अगले गुरुवार को  पढ़िए- 'खाली पीली हॉर्न प्लीज')

Share this Story:

Follow Webdunia gujarati

આગળનો લેખ

बाल गीत : भारत स्वच्छ बनाऊंगी...