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पांच राज्‍यों में विधानसभा चुनाव परिणामों का सच यही है

अवधेश कुमार
जिन लोगों ने पांच राज्यों में अलग चुनाव परिणामों की उम्मीद लगा रखी थी निश्चित रूप से उन्हें आघात लगा है। हमारे समाज में अग्रिम मोर्चे पर खड़े ऐसे लोगों की संख्या काफी है जो धरातल की वास्तविकता की बजाय अपनी सोच के अनुरूप जन मनोविज्ञान की कल्पना कर लेते हैं।

इस समूह का मानना था कि पांच में से चार राज्यों में भाजपा की सरकारें हैं, इसलिए प्रदेश के साथ केंद्र सरकार के दोहरे विरोधी जन मनोविज्ञान का सामना करना होगा।

इसके साथ इनका विश्लेषण यह भी था कि केंद्र और प्रदेश की भाजपा सरकारों ने नीतियों और वक्तव्यों में हिंदुत्व पर जैसी  प्रखरता दिखाई है, उससे मुसलमानों और ईसाइयों के साथ पढ़ा-लिखा वर्ग भी नाराज है। इस तरह उसे तीन प्रकार के सत्ता विरोधी रुझान का सामना करना है और उसकी सरकारों का जाना निश्चित है।

चुनाव परिणामों ने फिर एक बार इन्हें पूरी तरह गलत साबित कर दिया है। हालांकि चुनावी अंकगणित के आधार पर अभी भी ये अपनी हवाई कल्पनाओं को सही साबित करने के लिए अलग-अलग तरह के तर्क और तथ्य दे रहे हैं। हम और आप जानते हैं कि ये सारे तथ्य और तर्क खोखले हैं जिनका वास्तविकता से लेना-देना नहीं।

उत्तर प्रदेश को लीजिए तो तीनों श्रेणी का सत्ता विरोधी रुझान सबसे ज्यादा यही होना चाहिए। आखिर हिंदुत्व का सर्वाधिक मुखर प्रयोग इसी राज्य में हुआ। अल्पसंख्यकों में मुसलमानों तथा भाजपा विरोधियों की सर्वाधिक संख्या यही थी।

भाजपा के विरुद्ध प्रचार करने वाली गैर दलीय ताकतें भी यहां सबसे ज्यादा सक्रिय थीं। यह वातावरण बनाया गया था कि भाजपा को पराजित करना है तो एकजुट होकर बिना आगा पीछा सोचे सपा के पक्ष में मत डाला जाए। हुआ भी यही। बसपा की कमजोर उपस्थिति के कारण भाजपा विरोधी मतों का ध्रुवीकरण सपा के पक्ष में हुआ। सपा को प्राप्त मतों और सीटों में वृद्धि का मूल कारण यही है। उसके पक्ष में सकारात्मक के बजाय भाजपा हराओ मानसिकता का नकारात्मक मत ज्यादा है।

दूसरी ओर भाजपा के पक्ष में सकारात्मक मत ज्यादा है। दरअसल, हिंदुत्व और उस पर आधारित राष्ट्रीयता के साथ केंद्र और प्रदेश सरकारों द्वारा समाज के वंचित तबकों के हित में किए गए कार्य, उनको पहुंचाए गए लाभ, अपराध नियंत्रण के कारण कायम सुरक्षा स्थिति तथा नेतृत्व के रूप में केंद्र में नरेंद्र मोदी और प्रदेश में योगी आदित्यनाथ की उपस्थिति ने विरोधियों की कल्पनाओं को ध्वस्त कर दिया।

नेतृत्व के स्तर पर इन दोनों के सामने कोई नेता टिकता ही नहीं था। प्रोफेशनलों, कारोबारियों, महिलाओं.. सबके लिए सुरक्षा प्राथमिक चिंता का विषय था और इस कसौटी पर केवल भाजपा सरकार खरी उतरती थी।

इसी तरह केंद्र और प्रदेश सरकार ने आम जन के पक्ष में कल्याणकारी कार्यक्रमों के साथ सिर पर छत, संकट काल में पेट में अन्न तथा जेब में थोड़े पैसे पहुंचाने की नीतियों से ऐसा बड़ा समर्थक समूह खड़ा कर दिया है जिसकी काट किसी के पास नहीं।

ये बातें भाजपा शासित सभी राज्यों में थोड़ा या ज्यादा लागू होतीं हैं। चाहे उत्तराखंड हो मणिपुर या गोवा सब जगह लाभार्थियों का एक बड़ा वर्ग तैयार हो चुका है। जितनी संख्या में लोगों को आवास इन सरकारों में मिले, बिजलियां पहुंचाई गई, किसानों के खाते में धन पहुंचा,गरीब मजदूरों के निबंधन के बाद खातों में धन पहुंचा तथा कोरना टीकाकरण हुआ उन सबसे सरकारों की सकारात्मक छवि बनी।

उत्तराखंड में लगातार दूसरी बार सत्ता में वापसी का रिकार्ड बना देना असाधारण है। भाजपा ने तीन मुख्यमंत्री बदले और उसकी छवि पर इसका असर हुआ लेकिन दूसरी ओर इससे पार्टी के अंदर का असंतोष दूर हो गया।
पार्टी के अंदर असंतोष नहीं हो तो लड़ाई जीतना आसान होता है। पार्टी की भारी विजय के बावजूद मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी हालांकि स्वयं हार गए लेकिन जितना कम समय मिला उसमें उनको लेकर प्रदेश किसी तरह की नकारात्मक धारणा कायम नहीं हुई। भाजपा एकीकृत होकर चुनाव लड़ रही थी। जो छोटे-मोटे विद्रोह हुए उनका ज्यादा असर नहीं हुआ।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पहाड और तराई के लिए विकास की जो कल्पना दी और केदारनाथ व अन्य धार्मिक स्थलों से लेकर तीर्थ यात्राओं के लिए जितना कुछ किया उसका सकारात्मक प्रभाव पड़ा।

उत्तराखंड के लोगों के समक्ष भाजपा के सामने केवल कांग्रेस ही दूसरा विकल्प है। उत्तराखंड की स्थापना के बाद कोई भी सरकार लगातार दोबारा चुनाव में वापस नहीं आई। इसमें कांग्रेस के लिए उम्मीद थी।

कांग्रेस उत्तराखंड के लिए भाजपा के समानांतर कोई ऐसा विज़न नहीं दे सकी जिससे जनता का आकर्षण उसकी ओर बड़े स्तर पर पैदा हो। हरीश रावत उत्तराखंड के लोगों के लिए जाने पहचाने नेता हैं लेकिन उन्हें ही एक समय अपनी पार्टी की अंदरूनी कलह से दुखी होकर ट्वीट करना पड़ा। केंद्रीय नेतृत्व इस अवस्था में नहीं कि उनकी कोई मदद कर सके।

मणिपुर और गोवा दोनों राज्यों के चुनाव परिणामों से भी कुछ मुखर संदेश निकले हैं। मणिपुर में बहुमत प्राप्त करने का सर्वाधिक प्रमुख संदेश यही है कि भाजपा वहां स्थापित ताकत बन चुकी है।

लगातार तीन बार सत्ता में रहने वाली कांग्रेस की दशा सबके सामने है। साफ है कि पूर्वोत्तर में अब भाजपा मुख्य ताकत है। पिछले चुनाव में केवल 21 सीट पाने वाली भाजपा पांच वर्ष तक सरकार चलाने में सक्षम इसलिए हुई, क्योंकि दूसरी पार्टियों के विधायक भी किसी से उम्मीद करते थे।

हालांकि तृणमूल कांग्रेस के लिए यह परिणाम आघात पहुंचाने वाला है, क्योंकि कांग्रेस को निगलते जाने के कारण उसका मानना है कि वह पूर्वोत्तर की प्रमुख शक्ति होगी। साफ है कि मणिपुर उसके लिए पश्चिम बंगाल नहीं है।
गोवा में पिछली बार भाजपा को केवल 14 सीटें मिली थी। कांग्रेस ने सरकार बनाने का दावा नहीं किया और ज्यादातर गैर कांग्रेसी विधायकों का रुझान भाजपा की तरफ था।

इस बार मनोहर पर्रिकर जैसा नेता न होने के बावजूद लोगों ने अगर उसे 18 सीटें दी तो जाहिर है न सरकार के विरुद्ध रुझान था और न ही कांग्रेस सहित आम आदमी पार्टी या तृणमूल कांग्रेस को लेकर कोई आकर्षण। तृणमूल ने यहां भी कांग्रेस के नेताओं को शामिल कर अपने आपको राष्ट्रीय स्तर की पार्टी साबित करने की कोशिश की थी। चुनाव परिणामों ने उसके सपने को यहां भी धराशाई किया है।

पंजाब में भाजपा लंबे समय से बड़ी शक्ति नहीं रही है। अकाली दल के गठबंधन में उसे 23 विधानसभा और 3 लोकसभा सीटें ही लड़ाई के लिए मिलती रही है। इस कारण जनसंघ के समय एक ताकत होते हुए भी बाद में उसका राजनीतिक विस्तार पूरे प्रदेश में नहीं हो पाया।

कैप्टन अमरिंदर सिंह कांग्रेस से अलग तो हुए लेकिन उसे ज्यादा क्षति पहुंचाकर अपनी पार्टी को सक्षम बनाएं, लोगों के बीच जाकर माहौल बनाएं ऐसा अभियान उन्होंने नहीं चलाया। इसमें भाजपा, पंजाब लोक कांग्रेस तथा ढिंढसा के अकाली दल के गठबंधन के बेहतर करने की उम्मीद भी नहीं थी।

भाजपा से अलग होने के बाद अकाली दल का एक बड़ा मत आधार कट गया। बसपा वहां अब इस स्थिति में नहीं कि दलितों का बड़ा वर्ग उसे अपनी पार्टी माने। दूसरी ओर  अंतर्कलह से जूझती हुई कांग्रेस तथा आम आदमी पार्टी विकल्प के रूप में उपलब्ध थी। हालांकि मतदान को लेकर पार्टियों के परंपरागत मतदाता के अंदर उत्साह नहीं था तभी तो 2007,  2012 और 2017 की तुलना में काफी कम वोट पड़े है।

मोहाली जैसी जगह में नए मतदाताओं में से केवल 35% ने वोट डाला। हर चुनाव में सक्रिय रहने वाले अनिवासी पंजाबी भी इस बार चुनाव से दूर रहे। इस तरह पंजाब के चुनाव को कद्दावर नेताओं तथा उनके नेतृत्व वाली पार्टियों की अनुपस्थिति के कारण परिवर्तन की आकांक्षा वाली जनता द्वारा जो है उसमें से किसी को मत देने के विकल्प का परिणाम कहा जा सकता है। इसका तात्कालिक निष्कर्ष यह हो सकता है कि पंजाब अभी उपयुक्त राजनीतिक धाराओं की तलाश करेगा।

किसी दल, विचारधारा या नेताओं से वितृष्णा से परे हटकर निष्पक्षता से विश्लेषण करें तो इन पांच राज्यों ने देश के आम जन की सामूहिक सोच को प्रकट किया है। यह सोच साफ करती है कि भाजपा और उसके नेताओं की विचारधारा, उप पर आधारित नीतियों, जनकल्याणकारी संबंधी उनके कार्यक्रमों आदि को लेकर बनाई गई नकारात्मक और विपरीत धारणा का जमीन स्तर के यथार्थ से लेना देना नहीं है।

उत्तर प्रदेश से लेकर पूरब में मणिपुर और समुद्र के किनारे गोवा जैसे आधुनिक जीवन शैली वाले प्रदेश की आवाज में कुछ एकता है तो इसकी ध्वनियों को जरा गहराई से समझने की आवश्यकता है।

(आलेख में व्‍यक्‍त विचार लेखक के निजी अनुभव हैं, वेबदुनिया से इसका कोई संबंध नहीं है।)

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