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कोविड-19 के खिलाफ रक्त ‘प्लाज्मा थेरैपी’ की संभावना तलाशता भारत

कोविड-19 के खिलाफ रक्त ‘प्लाज्मा थेरैपी’ की संभावना तलाशता भारत
, मंगलवार, 14 अप्रैल 2020 (12:27 IST)
टी.वी. वेंकटेश्वरन / ज्योति सिंह,

विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग से संबद्ध राष्ट्रीय महत्व के संस्थान श्री चित्रा तिरुनल इंस्टीट्यूट फॉर मेडिकल साइंसेज ऐंड टेक्नोलॉजी (एससीटीआईएमएसटी) ने कोविड-19 से पीड़ित रोगियों को एक नवीनतम उपचार प्रदान करने के लिए पहल की है। तकनीकी रूप में इसे "कान्वलेसेंट-प्लाज्मा थेरैपी" कहा जाता है। इस उपचार पद्धति का उद्देश्य बीमारी से उबर चुके व्यक्ति की प्रतिरक्षा शक्ति का उपयोग दूसरे मरीजों के इलाज के लिए करना है।भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) ने इस अभिनव उपचार पद्धति के लिए एससीटीआईएमएसटी को मंजूरी दे दी है। एससीटीआईएमएसटी की निदेशक डॉ आशा किशोर ने कहा है- 'हमने ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया (डीसीजीआई) को रक्तदान के मानदंडों में छूट के लिए उम्र में कटौती के लिए आवेदन किया है।

क्या होती है कान्वलेसेंट-प्लाज्मा थेरेपी : कोरोना वायरस जैसे रोगजनक सूक्ष्मजीव जब हमारे शरीर को संक्रमित करते हैं, तो हमारा रोग प्रतिरोधी तंत्र एंटीबॉडी (प्रतिरक्षी) का उत्पादन करता है। ये प्रतिरक्षी तत्व पुलिस के उन खोजी कुत्तों की तरह होते हैं, जो किसी बाहरी घुसपैठिये के आने पर उसकी तलाश में निकल पड़ते हैं। शरीर के भीतर जैसे ही कोई बाहरी बैक्टीरिया या वायरस प्रवेश करता है, तो ये प्रतिरक्षी उसे पहचानकर शरीर को संक्रमण से निजात दिलाने में मदद करते हैं। रक्त संचारण (Blood Transfusion) थेरैपी में भी बीमारी से उबर चुके व्यक्ति के प्रतिरक्षी तत्वों को लेकर दूसरे रोगियों के शरीर में डाल दिया जाता है। इस तरह, बीमार व्यक्ति का प्रतिरक्षा तंत्र मजबूत हो जाता है और वायरस का सामना कर सकता है।

क्या होते हैं एंटीबॉडी (प्रतिरक्षी) : शरीर में जब कोई बाहरी सूक्ष्मजीव आक्रमण करता है, तो उससे बचाने के लिए प्रतिरक्षी तत्व अग्रिम पंक्ति में तैनात रहते हैं। ये विशेष प्रकार के प्रोटीन होते हैं, जिन्हें बी-लिम्फोसाइट्स नामक प्रतिरक्षा कोशिकाओं द्वारा उस समय स्रावित किया जाता है, जब उनका सामना नये कोरोना वायरस जैसे बाहरी आक्रमणकारी सूक्ष्मजीव से होता है। प्रतिरक्षा प्रणाली एंटीबॉडी को डिजाइन करती है, जो प्रत्येक आक्रमणकारी रोगजनक के लिए विशिष्ट होती है। कोई विशेष एंटीबॉडी और उसके साथी वायरस एक दूसरे के लिए बने होते हैं।

कैसे होता है उपचार : इस उपचार पद्धति में कोविड-19 से उबर चुके रोगियों के शरीर से रक्त लिया जाता है, जिसमें से सीरम को अलग कर लिया जाता है और उसका परीक्षण वायरस को बेअसर करने वाले एंटीबॉडी तत्वों का पता लगाने के लिए किया जाता है। बीमारी से उबर चुके मरीज से प्राप्त प्रचुर एंटीबॉडी से युक्त कान्वलेसेंट सीरम या रक्त सीरम को कोविड-19 से पीड़ित दूसरे मरीज के शरीर में चढ़ाया जाता है। इस तरह, बीमार व्यक्ति कृत्रिम प्रतिरक्षा प्राप्त करता है। डॉ किशोर ने इंडिया साइंस वायर से बातचीत में बताया कि “रक्तदाता से रक्त प्राप्त करने और बीमार व्यक्ति को दिए जाने से पहले दाता की जांच की जाती है। सबसे पहले, कोविड-19 का पता लगाने के लिए किया जाने वाला रक्तदाता का स्वाब परीक्षण नेगेटिव होना चाहिए और वह स्वस्थ घोषित किया हुआ होना चाहिए। इसके बाद, बीमारी से उबर चुके व्यक्ति को दो सप्ताह तक इंतजार करना पड़ता है। या फिर संभावित दाता में कम से कम 28 दिनों तक बीमारी का कोई लक्षण नहीं उभरना चाहिए। इन दोनों में से किसी एक शर्त का अनिवार्य रूप से पालन करना जरूरी है।"

कौन प्राप्त कर सकता है उपचार : डॉ किशोर ने बताया कि “शुरू में हम कम संख्या में रोगियों पर इसका उपयोग करेंगे। फिलहाल, केवल गंभीर रूप से प्रभावित रोगियों में प्रायोगिक रूप में इसके सीमित उपयोग की अनुमति है। इसके लिए, पहले सूचित तौर पर सहमति ली जाती है। यह क्लीनिकल ट्रायल के के रूप में आयोजित किया जाएगा।” पाँच मेडिकल कॉलेज अस्पतालों के कोविड-19 क्लीनिक भी इस पहल में शामिल हैं।

यह टीकाकरण से कैसे अलग है: इस थेरेपी को पैसिव इम्यूनाइजेशन के नाम से जाना जाता है। जब एक टीका लगाया जाता है, तो प्रतिरक्षा प्रणाली एंटीबॉडी का उत्पादन करती है। टीकाकरण के बाद, जब कोई व्यक्ति किसी रोगजनक सूक्ष्मजीव से संक्रमित होता है, तो उसके शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली एंटीबॉडी का उत्पादन करती है, जो संक्रमण को बेअसर कर देती है। टीकाकरण किसी विशिष्ट संक्रमण के प्रति आजीवन प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर सकता है। जबकि, पैसिव इम्यूनाइजेशन का प्रभाव केवल तभी तक रहता है, जब तक इंजेक्ट की गई एंटीबॉडी रक्त प्रवाह में मौजूद रहती हैं। यह संक्रमण से लड़ने के लिए शरीर को अस्थायी सुरक्षा उपलब्ध कराती है। किसी नवजात बच्चे में उसकी एंटीबॉडी विकसित होने से पहले माँ स्तनपान कराकर उसे अपनी एंटीबॉडी प्रदान करती है।

इतिहास के झरोखे में : वर्ष 1890 में जर्मन शरीर-क्रिया विज्ञानी एमिल वॉन बेहरिंग ने पाया कि डिप्थीरिया से ग्रस्त खरगोश से प्राप्त सीरम डिप्थीरिया की रोकथाम में कारगर हो सकता है। बेहरिंग को वर्ष 1901 में चिकित्सा के पहले नोबेल पुरस्कार से नवाजा गया। एंटीबॉडीज के बारे में तब तक जानकारी नहीं थी। कान्वलेसन्ट सीरम थेरेपी भी कम प्रभावी थी और उसके अपने दुष्प्रभाव थे। एंटीबॉडी अंश को अलग करने में कई साल लग गए। अनापेक्षित एंटीबॉडी और अशुद्धियों के कारण दुष्प्रभाव अब भी हो सकते हैं।

क्या यह प्रभावी है:  बैक्टिरिया संक्रमण से लड़ने के लिए हमारे पास आज प्रभावी जैव प्रतिरोधक दवाएं मौजूद हैं। हालाँकि, वायरस से लड़ने के लिए आज भी प्रभावी एंटी-वायरल दवाएं नहीं हैं। जब भी किसी नये वायरस का प्रकोप होता है, तो उसका सामना करने के लिए हमारे पास कोई दवा नहीं होती। इसीलिए, कान्वलेसन्ट सीरम का उपयोग पूर्ववर्ती वायरस प्रकोप के दौरान भी किया गया है। वर्ष 2009-10 में एच1एन1 इन्फ्लूएंजा वायरस से फैली महामारी से ग्रस्त रोगियों में भी इसका उपयोग किया गया और उनमें सुधार देखा गया। इस तरह, वायरस के प्रकोप को नियंत्रित करने और मृत्यु दर को कम करने में मदद मिली। यह प्रक्रिया वर्ष 2018 में इबोला के प्रकोप के दौरान भी प्रभावी पायी गई थी।

कितनी सुरक्षित है यह पद्धति :  ब्लड बैंकिंग की आधुनिक तकनीकों से रक्त-जनित रोगजनकों की पहचान की पद्धति काफी मजबूत हो गई है। रक्तदाताओं और प्राप्तकर्ताओं के रक्त के नमूनों का मिलान करना अब मुश्किल काम नहीं रह गया है। इसलिए, जाने-अनजाने संक्रामक एजेंटों को स्थानांतरित करने या रक्त संचारण के कारण होने वाली प्रतिक्रियाओं के उभरने के जोखिम भी कम हो गए हैं। डॉ आशा किशोर ने बताया कि “रक्तदान करते समय रक्त समूह और आरएच अनुकूलता देखी जाती है। सिर्फ वही लोग रक्त का आदान-प्रदान कर सकते हैं, जिनके रक्त के नमूने मेल खाते हैं। रक्तदाता का कई कारकों के आधार पर परीक्षण के बाद उन्हें रक्तदान की अनुमति दी जाती है। रक्तदान से पहले रक्तदाता का हेपेटाइटिस, एचआईवी और मलेरिया जैसे रोगों का परीक्षण किया जाता है, जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि रक्त प्राप्तकर्ता में इस रक्त के जरिये कोई रोग संचरित न होने पाए।”

प्राप्तकर्ता के शरीर में कब तक रहती हैं एंटीबॉडी: एंटीबॉडी सीरम दिए जाने के बाद यह प्राप्तकर्ता के शरीर में कम से कम तीन या चार दिनों तक रहती है। इस दौरान, बीमार व्यक्ति के स्वास्थ्य में सुधार हो जाता है। अमेरिका और चीन में हुए अध्ययनों के मुताबिक प्लाज्मा संचारण के फायदेमंद नतीजे तीन से चार दिनों में देखे जा सकते हैं।

क्या हैं चुनौतियां: यह पद्धति चिकित्सीय दृष्टि से सरल नहीं है। मुख्य समस्या बीमारी से उबर चुके लोगों से महत्वपूर्ण मात्रा में प्लाज्मा प्राप्त करने में कठिनाई से जुड़ी है। कोविड-19 जैसी बीमारियों में, जहां अधिकांश पीड़ित वृद्ध होते हैं, वे उच्च रक्तचाप, मधुमेह जैसी अन्य चिकित्सा स्थितियों से ग्रस्त होते हैं, इसीलिए इस बीमारी से उबर चुके सभी मरीज रक्तदान नहीं कर सकते हैं। (इंडिया साइंस वायर)
भाषांतरण : उमाशंकर मिश्र

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