कुछ साल पहले जब वाराणसी में बीजेपी के पीएम पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी का प्रस्तावक बनने के लिए बनारस घराने की शास्त्रीय परंपरा के मशहूर गायक पं. छन्नूलाल मिश्र को संदेशा भेजा गया तो कहा जाता है कि उन्होंने इसमें दिलचस्पी नहीं दिखाई थी, जिसके बाद अमित शाह ने उनसे निजी मुलाक़ात कर के उन्हें मोदी का प्रस्तावक बनने के लिए राजी किया था।
इस चर्चा के दौरान पंडित छन्नूलाल मिश्र ने कहा था कि मुझे उम्मीद है कि नई सरकार काशी में गंगा और संगीत परम्परा के लिए कुछ बेहतर करेंगे।
यह साल 2014 की बात है, अब 2021 में राजनीतिक और सामाजिक परिदृश्य बदल गया है, सरकार का भी और देश का भी।
वही पद्मविभूषण और बनारस घराने के गायक पंडित छन्नूलाल मिश्र कोरोना से अपनी पत्नी और बेटी की मौत के बाद लाचार हैं। वे उत्तर प्रदेश सरकार के सामने घुटने टेक कर अस्पताल में अपनी बेटी के इलाज के मामले की जांच चाहते हैं, लेकिन देश में जब चारों तरफ एंबुलस से आते सायरन के शोर में पंडित जी के दुख का राग इतना मदृध्म हो गया है कि इसलिए सरकार को सुनाई नहीं आ रहा है।
बनारस में गंगा और शास्त्रीय संगीत का तो कोई उद्धार हुआ नहीं, उल्टा यहां बसने वाले कलाकार बेबस और लाचार अपने दुःखों के आंसुओं में बह रहे हैं।
दुनिया मे हमेशा फ़नकारों को सहेज कर रखने की फ़िक्र और मंशा का टोटा रहा है। एक कलाकार ख़ुद को गढ़ने के लिए अपनी पूरी ज़िंदगी को कला के नाम पर झोंक देता है और हम उनके प्रशंसक और सरकारें एक दिन उनकी कला को बेहद बेदर्दी से ढहा देते हैं और उनकी ज़िंदगी को बिसरा देते हैं।
यह सिर्फ़ भारत में ही नहीं होता पाकिस्तान समेत दुनिया के दूसरे तमाम देशों में भी फ़नकारों की बेबसी के आलम की यही कहानियां हैं।
दुनियाभर में मौसिकी पसंद लोगों के लिए रात रातभर महफ़िलें रोशन करने वाले मेहदी हसन को पाकिस्तान ने उनके आख़िरी वक्त में बिसरा दिया था। अपने मुश्किल दिनों में वे अकेले ही अस्पताल में वेंटिलेटर पर अपने सुर साध रहे थे-- और अंततः अकेले ही चले गए।
एमएफ हुसैन को हमारी ही मौकापरस्ती की वजह से भारत छोड़कर क़तर जैसे देश की शरण लेना पड़ी थी। मौकापरस्ती इसलिए, क्योंकि हमने ज़िंदगीभर उनके हाथों से रंगे हुए कैनवास अपने ड्रॉइंग रूम में लटकाकर अपना सोशल स्टेटस ऊंचा किया और जब उन्होंने अपनी कला की एक सीमा को पार किया तो हमने उन्हें देश छोड़ने पर मजबूर कर दिया।
शायद ही किसी को याद होगा कि शहनाई के शहंशाह उस्ताद बिस्मिल्लाह खान को एक बार मजबुरन एक निजी शादी की महफ़िल में जाकर शहनाई बजाना पड़ी थी, ताकि ग़ुरबत के दौर में वो अपने बड़े से कुनबे का पेट पाल सके। किसी राज्य सरकार या केंद्र सरकार ने इस बुज़ुर्ग कलाकार की भोली मुस्कान पर भी करुणा नहीं दिखाई।
ऐसे में जब प्रधानमंत्री नरेंद मोदी के प्रस्तावक पंडित छन्नूलाल मिश्र की उम्मीद टूटती जा रही है तो बनारस और वहां बहने वाली गंगा सरकार से क्या आस लगा सकती है?
लेकिन संस्कृति और परंपराओं को संरक्षित करने का दावा करने वाली सरकार से इतनी तो उम्मीद की ही जाना चाहिए कि कम से कम कला और संस्कृति से जुडे लोगों की आत्माओं को तो गुम न ही होने दें।
(इस आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी अनुभव और निजी अभिव्यक्ति है। वेबदुनिया का इससे कोई संबंध नहीं है।)