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मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
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Nirbhaya case : दरिंदों की फांसी के बाद, निर्भया की चिट्ठी देश के नाम

Nirbhaya case : दरिंदों की फांसी के बाद, निर्भया की चिट्ठी देश के नाम
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डॉ. छाया मंगल मिश्र

Nirbhaya case


मैं निर्भया, 29 दिसंबर की रात करीब सवा दो बजे इस काले आसमान में तारा बन कर चिपक गई जिसमें मेरे साथ अनंत मेरे जैसी असंख्य 'ज्योति' हैं जो आपकी भाषा में आंकड़ों में बयां की जाती हैं। 
 
निर्भया नाम दिया मेरा, मैं तो भय से ही मर गई थी उस दिन, जिस दिन वो बस यमराज बन कर मुझे ले जा रही थी। याद है मुझे 16 दिसंबर 2012 की वो मनहूस रात से लेकर 20 मार्च 2020 की सुबह 5 बज कर 30 मिनट तक का समय। पूरे 7 साल 3 महीने 4 दिन। जब जब आप सभी को ये काले बादल कड़कती बिजलियों के साथ डराएं तो समझ लेना मेरे साथ 2.4 लाख घोषित (यूं तो ना जाने कितनी?) न्याय का इंतजार करते ऐसे मामलों की कई निर्भयाओं की आत्मा भी अभी अपने देश में तड़प रहीं हैं, गुहार लगा रहीं हैं और न जाने कितनी उम्र,जाति,धर्म संस्कारों के बोझ से तो मर ही गईं हैं और कईयों की आवाज ही दबा दी गई होंगी। 
 
ये संख्या तो बढ़ती ही जा रही है न। तो क्यों ना तुम सब इस क़ानून का भी सेनिटाईज करते जिससे वो विषाणु ख़त्म हो जाएं जो फैसलों को सालों साल लटकाते रहते हैं। क्योंकि इसमें भले ही तुम्हारा क़ानून जीत जाता हो पर न्याय हमेशा ही हारता रहा है। भले ही मुझे न्याय के लिए और समय लगता पर फांसी की सजा सुनाने बाद भी लगाए गए दांव-पेंच से समझ आ जाना चाहिए की हमारे देश का कानून कितना लिजलिजा, लचर, बेबस है।
 
 मेरा मामला जब विश्व भर में देश के लिए बदनुमा धब्बा बना तब देर से ही सही न्याय तो मिला, तो सोचिये इसी कमजोर कानून के बूते पर अदालतों में हमारे देश की कई बेटियां हैवानियत व दरिंदगी के खिलाफ न्याय का दरवाजा खटखटा रहीं है जो भयावह सत्य है। उनकी आवाज भी सुनो न। उन्हें भी तो न्याय चाहिए। 
 
 ये ठीक है कि इस कांड के बाद गाइड लाईन बदली गईं, पर ठीक से अमल नहीं किया, निर्भया फंड बनाया गया हर साल एक हजार करोड़ का पर सिर्फ 9 फीसदी ही खर्च हुआ, वन स्टॉप सेंटर के लिए 219 करोड़ रुपए आवंटित किए पर केवल 462 ही बने, 53.98 करोड़ का ही इस्तेमाल किया गया। असल में हमारी प्रशासनिक मशीनरी के इंजन फेल है। इनमे कितना भी ईंधन डालो काम ही नहीं करता। क्योंकि सर्विसिंग जरुरी है और सर्विसिंग सेंटर तो आपको याने देश की जनता को खोलने चाहिए। कस देने चाहिए सारे ढीले नट बोल्ट,स्क्रू,बेल्ट, स्प्रिंग कर देनी चाहिए ओइलिंग और घिस देना चाहिए बेरहमी से पुर्जों में लगा जंग अपने प्रश्नों व जागरूकता के कड़क,खुरदुरे रेजमाल से, बिना किसी की परवाह किए.. 
 
मैं मेडिकल की छात्रा थी। मेरे अंगों को वहशियत के साथ खेलने का सामान बना दिया था उन्होंने। कितनी चीखी थी, चिल्लाई थी,नहीं जानती थी कौन हैं? कुछ नहीं बिगाड़ा था मैंने उनका। देवियां पूजने वाले देश की राजधानी में मेरा अपने दोस्त के साथ घूमना अक्षम्य अपराध हो गया? 
इतना बड़ा पाप हो गया कि मरे बाद मेरे चरित्र पर प्रश्नचिह्न लगा दिया जाए केवल इसलिए कि वो दरिंदे अपने वकील के माध्यम से अपनी मां, बहनों व बीबी बच्चों परिजन की आड़ में मौत से बच सके। 
 
मैं पूछती हूं उन सब मानवाधिकारों के झंडाबरदारों से कि किसकी मां,बहन,बीबी अपने बच्चों,भाई,पति को बलात्कार करना सिखाती हैं? क्या उन्हें उस लड़की में उनके दर्शन नहीं होते जिसका जिस्म वो गिद्ध की तरह नोच-नोच कर खेलते-खाते हैं? अरे गिद्ध तो केवल देह नोंच कर खाते हैं ये तो आत्मा भी नोंच कर खा जाते हैं और आह भी नहीं भरते। 
 
 जब खुद पर बनी तब रोए गिड़-गिड़ाए.. माफ़ी मांगी...खाना पीना बंद किया. याद आता है मुझे अंतिम समय में मेरी मां मुझ प्यासी को पानी भी नहीं पिला सकी थी। मेरी आंतों में लोहे की रॉड घुसेड दी थी उसने जिसे नाबालिग समझ कर छोड़ दिया गया है। अफरोज यही नाम है न उसका? आज मैं भारत की समस्त बेटियों को आगाह करती हूं कि कोरोना और अफरोज दोनों भारत की हवा में सांस ले रहे हैं पर अफरोज जैसी मानसिकता के लोग कोरोना को भी मात देने का माद्दा रखते हैं क्योंकि सियासी रोटियां इन्हीं मुद्दों पर करारी कर के सेंकी जाती हैं। 
 
आपको जानना चाहिए की मेरे गुनहगार मुस्लिम होने के साथ ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य,शुद्र भी थे। अपराध और आतंकवाद की कोई जाति, कोई धर्म  नहीं होता ये एक बार फिर सिद्ध हुआ है इस फांसी के साथ अपराध और अपराधी के जाति-धर्म विभेद पर भी उदाहरण के साथ फंदा कस गया है। 
 
आसमान से देखती रही मैं अदालतों में चक्कर लगाती मां को, जिसे हमारे सिस्टम और कानून ने कतरा-कतरा कर के मरने को मजबूर किया। उस मां को जिसे मेरी याद सताने पर भैय्या की दी हुई वो गुलाबी गुड़िया जो मुझे बहुत प्यारी थी, उसमें मुझे खोजना होता था। 
 
कितनी कलपती होगी मेरे परिवार जनों की आत्मा जब उन्हें हर बारी अदालत में ये सिद्ध करना होता था कि मेरे साथ हैवानियत का खेल खेला गया है...पर इतना जरुर है कि मेरी मां आज विश्व में फिर से सिद्ध कर गई कि एक भारतीय नारी, घर गृहस्थी संभालने वाली घरेलू महिला ने बेटी पर आंच आई तो सुप्रीम कोर्ट जैसी न्याय की बड़ी और जटिल व्यवस्थाओं से भी टक्कर लेने का हौसला रखा। 
 
 
 देखती रही मैं देश की टुकड़ों में बंटी जनता को अदालतों में फंसी रही फांसी की सजा को...पर आत्मा शुक्रगुजार है उनकी जिन्होंने इन संघर्ष के दिनों में जमीं आसमान एक कर दिया। मेरा कंगन हाथ में पहन कर मुझे महसूस कर निर्णय के आधार प्रश्नों से जूझती, मेरे लिए कानून की बारीक गलियों से गुजर, न्याय व्यवस्था की लाचारियों को झेलती, संदेहों के घेरे में घिरी इस लंबी प्रक्रिया से न घबराने वाली सीमा समृद्धि कुशवाहा, ईश्वर हर निर्भया को ऐसी बहन रूपी वकील मिले। 
 
 पर यह भी सच है की देर से किया न्याय कितना अन्याय कर जाता है। सामान्य रूप से जहां सुनवाई तक नहीं होती वहां इन वहशियों के लिए देश की शीर्ष अदालतों के दरवाजे खुले रहे। 
 
 मैं कहना कहूंगी उस सरकार से जो कहती है- महिलाओं की सुरक्षा हमारी प्राथमिकता है। तो फिर तय होना चाहिए दोषी कितनी बार याचिकाओं का अधिकार होगा? ताकि देश की इन बेटियों को न्याय के लिए तुम्हें छद्म नाम न देना पड़े, तारीखों पर तारीख का मुंह न्याय पाने के लिए न देखना पड़े।
 
 एस.डी. एम.उषा चतुर्वेदी, एस.आई.प्रतिभा शर्मा, डॉ.अरुणा बत्रा, डॉ. असित बी.आचार्य, डॉ.बी.के.महापात्रा के साथ साथ देश की जागरूक जनता और वो सब अनजाने लोग जिनसे मेरा कोई खून का नाता नहीं था पर मेरे हमदर्द रहे, हमेशा मां के संघर्ष के साथ खड़े रहे। 
 
जानती हूं जेंडर प्रशिक्षण के बगैर समाज की संरचना कदापि नहीं बदलने वाली। मौत की सजाओं से ये घटनाएं रुकने भी नहीं वाली। आप लोगों का लक्ष्य फांसी नहीं बल्कि एक संपूर्ण न्याय आधारित व्यवस्था होनी चाहिए. समझिये इस बात को- 
 
उठाएंगे आवाज तो ये थर्राएंगे महल भी, गिरेंगी बुलंद मीनारें मिल कर अगर पहल की... 
 
सच्चे भारतीय हो अगर तो जिस ब्रह्मांड के प्रत्येक ऊर्जा पुंज से हमारा जन्म हुआ और हम विभिन्न रूपों में आवश्यकता पड़ने पर शौर्य गाथाएं लिख जातीं हैं पर विडंबना है कि हम ही अपराधों की बलि भी चढ़ जातीं हैं। इस काले गहन ,घोर नैराश्य से भरे आसमान में टिमटिमाते तारे हम ही हैं...बलि चढ़े हुए। 
 
आज मैं मुक्ति/मोक्ष पा भी जाती हूं यदि...टूटती हूं फलक से...और देख रहे हो तुम मुझको तो मांगना इन बचे हुए सितारों का मोक्ष। मिले उनकी आत्मा को भी मुक्ति। मिले न्याय उन सभी को जो जी रहीं हैं मर-मर के या मर चुकीं है, मार दी गईं हैं। हमारा देश, समाज, नारी शक्ति के साथ हमारी सिद्धियां, प्रेरणाएं और उपलब्धियां तब ही महत्वपूर्ण होंगी जब सही मायने में नारीत्व की हर इकाई खुश और सुरक्षित होगी। 
 
सखियों को न्याय मिलने के इंतजार में ....
 
आपके देश,अपनी भारत मां की बेटी
निर्भया
(हालांकि अब मुझे निर्भया नाम का सहारा नहीं चाहिए) 
 
जीत की यह ज्योति हर एक दिल में न्याय की लड़ाई में प्रज्ज्वलित रहेगी। 

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