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मनु के पापा....पापा का मनु.......!

शैली बक्षी खड़कोतकर
“मम्मा! हम स्विमिंग पूल के फॉर्म ले आए हैं।”
“शाम 5 का टाइम लिया न? मैं तब फ्री रहूंगी।”
“7 का बैच लिया है। पापा ने कहा है, वो सिखाएंगे।”
‘ऊं-हूं! हो गया तब तो। ऑफिस से आ जाए तो गनीमत। घर को, खासकर मनु को, समय देने को कहो तो सौ काम आड़े आते हैं।’ मम्मा मन ही मन भुनभुनाई।

 
“अरे भई....! मनु को प्रॉमिस किया है, तो आ जाऊंगा वक्त पर। मेरा भी वर्क-आउट हो जाएगा। तुम ही कहती हो न तोंद निकल रही है।” पापा की आवाज आई।
(पापा ने मम्मा का मन पढ़ना सीख लिया है या ये स्थाई शिकायत की प्रतिक्रिया है ?) 
 
कल की तो बात लगती है...
“मनु, मेरा राजा बेटा...किसका है?”“अकेले मम्मा का.....!” और मनु दौड़कर मम्मा को गलबहियां डाल लिपट जाता। मम्मा उस पर अपना सारा लाड़ बरसा देती।मनु की पूरी दुनिया मम्मा पर ही केंद्रि‍त थी, पर धीरे-धीरे बढ़ते कदमों को पापा के साथ की चाह दिखने लगी थी।
 
दोस्तों से कट्टी होने पर छुटकू-सा मनु रुआंसा होकर घर आता। मम्मा घर में, आंगन में उसे बहलाने का लाख जतन करती, लेकिन उसे बैट-बॉल ही खेलना होता... वह भी मैदान में। ऐसे में एकमात्र उपाय बचता, पापा का इंतजार। और कई बार पापा जब तक लौटते, मनु आंखों में मोटी बूंदे और हाथ में गेंद लिए सो चुका होता।
 
“मनु के लिए ग्रीन टी-शर्ट या ब्लू?”“देख लो, जो तुम्हें पसंद आए
“कौन-सा प्ले स्कूल ?”
“तुम बताओ?”
“प्रोजेक्ट में हेल्प करो न।”
“अरे यार... ये सब मुझसे नहीं होता।”
मम्मा कभी-कभी खीझ जाती। मनु क्या सिर्फ मम्मा का ही बच्चा है?
 
“भाई! साढ़े छह बज रहे है और मैं रेडी हूं। हां, मम्मा चाय बना रही हो तो मैं मना नहीं करूंगा।” पापा ने घर में प्रवेश की सूचना दी। मम्मा ने मुस्कुराते हुए चाय चढ़ा दी है और मनु उत्साह से स्विमिंग का बैग तैयार कर रहा है।
 
“आज पहला दिन है न, इसलिए...” यह प्रत्यक्ष कारण बता कर मम्मा भी साथ आई है। वैसे ‘छुपा’ डर किसी से भी छुपा नहीं है, “बेटा, ध्यान से..। गहरे पानी में मत जाना और....” पापा ने मम्मा को आंखों से आश्वस्त किया और दोनों पूल के अंदर हैं।
 
ट्रेनर मनु को निर्देश दे रहे हैं और मनु पापा का हाथ पकड़ कर खड़ा है।
“सांस रोको, मनु....। अब पैर चलाओ...., तेजी से....।” पापा की आवाज लगातार आ रही है।
 
मां से बच्चे का रिश्ता जन्म के पहले से जुड़ जाता है, लेकिन पिता से उसका रिश्ता किस क्षण जुड़ता है और कैसे पल्लवित होता है, शायद मां भी नहीं जान पाती।
मनु इमानदारी से कोशिश कर रहा है और इत्मिनान से गलतियां कर रहा है, पापा जो साथ है।
        
“आठ-दस दिनों में अच्छे-से सीख जाऊंगा, मम्मा।” मनु आत्मविश्वास से लबरेज है।
 
मम्मा ने राहत की सांस ली। एक तरफ तो मम्मा चाहती है कि मनु में पुरुषोचित साहस और दृढ़ता आए, लेकिन उसकी सुरक्षा को लेकर अनंत चिंताए भी हैं। उनका क्या करे? मनु जब साइकिल सीख रहा था और दुसरे ही दिन उसे चोट लग गई थी। मम्मा कितना घबरा गई थी। तब भी पापा ने बेफिक्र अंदाज में कहा था, ‘गिरेगा नहीं तो सीखेगा कैसे? कुछ नहीं हुआ है, ब्रेव बॉय!” शायद यही है, मां का ममत्व और पिता की दृढ़ता। और मम्मा समझती है कि बच्चे के समुचित विकास के लिए दोनों की जरूरत है, सही-संतुलित मात्रा में।
 
“मनु...! जरा टूल-बॉक्स लाना।” पापा बड़े स्टूल पर चढ़कर ट्यूब-लाइट ठीक कर रहे हैं।
“पापा, मैं देखूं..?”
“हां, स्लीपर पहनी है न? ये स्टार्टर खराब हो गया है, शायद।”
मम्मा पहुंची, तब तक मनु स्टार्टर बदल चुका है। पापा स्टूल पकड़े नीचे खड़े हैं।
“मम्मा, जरा स्विच ऑन करना।” मनु ने एकदम पापा के अंदाज में कहा।
“वाह! चालू हो गई देखा, मैंने ट्यूब-लाइट ठीक कर दी।
 
“गुड, बेटा।” मम्मा ऐसे कामों के बारे में कुछ समझाइश देना चाहती थी पर बस इतना ही कह पार्ई। कच्ची मिट्टी के पकने का वक्त आ गया है। आंच तो सहनी पड़ेगी। तसल्ली है कि दो मजबूत हाथ उसे थामे हुए हैं।
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