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world museum day : मध्‍यप्रदेश की विरासत 'ट्राइबल म्यूजियम', देश का अनूठा संग्रहालय

डॉ. किसलय पंचोली
देश में कहीं भी जाओ हर राज्य की अपनी सांस्कृतिक पहचान सीधे-सीधे नजर आती है। गुजराती भाषा और गरबा है तो गुजरात। पंजाबी और भांगड़ा है तो पंजाब। मराठी और लावणी है तो महाराष्ट्र। मलयालम और कथकली है तो केरल!

दरअसल भारत के स्वतंत्र होने के पश्चात, सन 1950 में भाषावार प्रान्तों के गठन के दौरान अपने जन्म से ही मध्य प्रदेश, विषमरूपी एकत्रीकरण/ हेटेरोजीनस असेम्बलेज से बना प्रदेश है। मोटे तौर पर प्रदेश के हिस्से आया है पूरे क्षेत्र में अलग-अलग घाटियों, जंगलों टीलों और कबीलों में, बिखरा हुआ, विविधता भरा ऐसा जन-जातीय जीवन, जिसकी सांस्कृतिक पहचान, दस्तावेज के रूप में कहीं अभिलिखित नहीं थी। जीवन था प्राचीन, उन्नत, कलात्मक और रसमय लेकिन टापू-सा अपने आप में सीमित और खोया हुआ! एक प्रांत के रूप में समग्र पहचान से सर्वथा कटा हुआ।

इस म्यूजियम के बनने के बाद, भारत के ह्रदय प्रान्त को, अपनी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत एक जगह दिखा पाने का, मौका मिला है। राजधानी भोपाल की श्यामला हिल के मनोरम घुमाव पर स्थित यह ‘ट्राइबल म्यूजियम’ अपने आप में देश का एक अनूठा संग्रहालय है। इसने प्रदेश को, एक मुकम्मल पहचान दिलवाने का गौरव प्रदान किया है।

मप्र के जन-जातीय जीवन की सांस्कृतिक विविधता विरल, अनोखी और इकलौती है। प्रदेश की सीमा पांच अन्य भाषावार गठित प्रान्तों को छूती है इसलिए कदाचित उनके जन-जातीय जीवन का वैविध्य भी इसमें उतर आया है। इसकी प्रमुख आदिवासी जन जातियां यथा गोंड, भील, कोरकू, बैगा, कौल, भारिया, सहारिया, भिलाला, पटालिया, बरेला व राथिया आदि के जन-जातीय जीवन के ज्ञान व जीवन मूल्य, रीति-रिवाज और सौन्दर्य बोध, मिथक और मान्यताओं को दर्शाना इस म्यूजियम का उद्देश्य था जो यहां भली भांति साकार हुआ है।

इसकी संरचना दर्शकों के लिए तकनीकि दृष्टि से जटिल होते हुए भी, निसंदेह अंतर संवादी और प्रयोगी है। संरचना जैसे दर्शकों से बात करती है। बोलती है। मुखर है। यहां मप्र और पड़ोसी राज्यों के जन जातीय जीवन का हर चित्रण उनकी विविधता में साम्यता या साम्यता में कलात्मक विविधता को  दर्शाता है।

स्थापत्य: एक सुन्दर सत्य
इसमें कतई अतिश्योक्ति नहीं कि इसका स्थापत्य नितांत प्राकृतिक स्वरूप में किया गया है1 जगहें / स्पेसेस बहुत कलात्मक खूबसूरती से सृजित की गई हैं इसलिए वे किसी सामान्य म्यूजियम की बोरियत भरी मोनोटोनी से विपरीत, बेहद जीवंत लगती हैं।

इसके प्रवेश के रास्ते की हल्की चढाई पर आगंतुकों स्वागत करते, लोहे पर कारीगरी वाले बड़े आकार के हाथी, घोड़े और द्वीप स्तम्भ अत्यंत कलात्मक दीख पड़ते हैं। मुख्य प्रवेश द्वार बारीक रेत से क्लेडेड दीवाल में बना है जिस पर लकड़ी के उभरे हुए पीले कटआउट पर बारीक काली रेखाओं से नर्मदा की कथा उकेरी गई है। यह काम बहुत अनूठा और नयनाभिराम है। ज्ञातव्य है कि नर्मदा प्रदेश की जीवन रेखा है।

मध्य में मप्र का त्रिआयामी नक्शा है जिस पर प्रदेश की सभी प्रमुख जन जातियों का प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व है। प्रदेश का एम्बलेम / संप्रतीक बरगद का विशाल पेड़ केंद्र से फैलता दिखाया गया है। सर्पिलाकार रेम्प पर चढ़कर कोई भी दर्शक दीर्घा का विहंगम दृश्य देख सकता है। उसकी परिक्रमा का आनन्द ले सकता है। रेम्प की अपर वाल पर देश का प्राचीनतम ट्राइबल कल्चर गोंडवाना लैंड दर्शाया गया है। लगता है मानो यहां इतिहास भी दर्शक बनना चाहता है या बन गया है!

द्वार से भीतर घुसते ही, बांस की खपच्चियों पर, पहले मिटटी के प्लास्टर और फिर चूने की पुताई संग चूड़ियों के टुकड़ों से खूबसूरती से डिजाइन किया हुआ, खड़ा पार्टीशन, बखूबी आकर्षित करता है। प्रवेश कक्ष में मिटटी और लकड़ी के लटकने वाले इको फ्रेंडली झूमर, मंहगे कांच के शेन्द्लेअर को मात देते नजर आते हैं। बाहर के घूमते लम्बे गलियारों में बांस से बने रोम्बाइडल आकार के छत से लटकते पार्टीशन, म्यूजियम के लोहे के बने संरचनात्मक ढांचों के मूल स्वरूप को कलात्मकता से ढक देते हैं।

पीले, भूरे और लाल उन से बने पार्टिशन पर पीली विद्युत् सज्जा अप्रतिम नजर आती है। आर्किटेक्ट और इन्तीरिअर डिजाइन की जीवंत प्रयोगशाला है यह म्यूजियम!

अड़ोस-पड़ोस में खड़े भिन्न-भिन्न जन जातियों के घर एक कामन कोर्टयार्ड में घुलते, मिलते, बतियाते प्रतीत होते हैं। घरों के बीच का खूबसूरत रंगों से लिपा पुता, साझा / कामन दालान, जैसे मार्डन आर्चिटेक्ट के ‘टू वे होम’ कांसेप्ट से टक्कर लेता अद्भुत प्राकृतिक स्थापत्य प्रस्तुत करता है!

कोरिडोर को थामते लोहे के मूलभूत स्थापत्य के मध्य यहां-वहां उठती झांकती शाखित काष्ट की शाखाएं और उन पर ठिठके सरकंडे की झाडू जैसे मटीरिअल से बने पक्षियों के हुजूम के हुजूम नयनाभिराम हैं।

यहां सिर्फ कुछ घरों के बाह्य स्वरूप का सादृश्य / आभास खड़ा किया गया है। जबकि कई जगह भौगोलिक प्रतिरूप को महत्व दिया गया है। इतिहास गवाह है कि गोंड राजाओं के पास मजबूत स्थापत्य वाले 52 किले हुआ करते थे।

घरों की खिड़कियों के कितने शेप, सजावट के कितने रूप, उनके रंग संयोजन में कितना वैविध्य बिखरा पड़ा है ट्राइबल म्यूजियम में! खिड़कियों के आस-पास मिटटी से की गई कंगूरेदार सजावट, उस पर पीली मिटटी का सुनहरा लेप, दीवाल पर बादामी रंग की चटाई की बुनावट के साथ गहरे भूरे रंग की मिटटी की फ्रेमिंग, नितांत अलग सौन्दर्य रचती है। कोरकू घरों के स्थापत्य में खिड़की के चारों और मिट्टी से फ्रेमिंग की कारीगरी के साथ नीचे भी मिट्टी के ढेलों से की गई सज्जा बिलकुल अनूठी है। न सिर्फ खिड़कियां, छोटे-छोटे आलिए भी मिटटी की सफेद फ्रेमिंग से मानो खिले-खिले दीखते हैं। कुम्हार के घर मिटटी के अनेक उन्नत प्रकार के रूपाकार देखते बनते हैं। और हमें सोचने को मजबूर कर जाते हैं कि हम क्यों सभ्यता की दौड़ में मिटटी से दूर होते चले गए?

आंतरिक सज्जा : कला वैविध्य की कई झलकियां
टेराकोटा से बना घंटियों की सजावट वाला विशालकाय हाथी, उसके पैरों के करीब छोटे-छोटे हाथियों की कतारें और पीछे झाड़ियों का बेक ड्राप अद्भुत कलात्मक सौन्दर्य रचते हैं। यहां-वहां लटकती टेराकोटा की अप्रतिम कलाकृतियां चिड़ियाएं, तितलियां, कीड़े-मकोड़े ध्यान आकर्षित करते हैं।

सिंदूर पुती छत पर पंहुचती काष्ठ शाखा से लटकती विभिन्न आकारों की गहरे कत्थई रंग की धातुई घंटियां बड़ा सुहाना-सा रूहानी संसार रचती प्रतीत होती हैं। इनकी न सुनाई देकर भी सुनाई देने वाली कर्ण मधुर ध्वनि सुकून देती है। ब्रास और कापर की सुनहरी मेटल से बना केले का झाड़ और उस पर लटकती केले की घड धातु कारीगरी का नायाब नमूना है। पीतल की कलाकारी का विशालकाय पेड़ और उस पर उन्मुक्त खेलते-कूदते बच्चे भी बेहद मन मोहक हैं। लोहे का दीप स्तम्भ, जिसमें मध्य के चौकोर खाने में सारस अठखेलियां करते दिखते हैं, बहुत खूबसूरत है।

जगह-जगह खड़े पिल्लरों पर चटाई की बुनावट अत्यंत सुन्दर है। हर स्तम्भ की डिजाइन दूसरे से भिन्न है। आकार बुनावट और रंगों में भी। रस्सियों की बुनाई / गठान-लगाई से शृंगारित खम्बे बरबस मन मोह लेते हैं। रस्सियों से बने केले के आदमकद पेड़ व उसके पत्ते-पत्ते की शिराएं अद्भुत हैं। मधु मक्खियों के छत्ते से प्रेरित चटाई का पार्टीशन अलग ही ढंग से प्रकाश छान छटा बिखेरता है।

नीचे जाने के सर्पिलाकार रास्ते की बागड़ गहरे भूरे लकड़ी के लट्ठों पर कार्विंग से अटी पड़ी है। बीच में उगाया हुआ चटक हरे रंगों के बड़े बड़े पत्तों वाला पेड़ आत्मविश्वास के साथ हरियाली बिखेरता बहुत खूबसूरत नजर आता है।
यहां जन जातियों का अपना-अपना सौन्दर्य बोध, कदम-कदम पर बखूबी परिलक्षित होता है। जीवन से अलग कला का वहां कोई स्थान नहीं है। दूसरे हर कोई देख सकता है कि वे अपना जीवन किन-किन कलात्मक तरीकों और ऊंचाइयों से जीते हैं। सौदर्य की समझ और परख उनकी हर छोटी बड़ी उपयोग में आने वाली वस्तु में नजर आती है।

झोपड़ियों की ऊंची लिपि पुती प्लिंथ से सटे बाह्य प्राक्रतिक मचान जैसी संरचना पर, मिटटी में धंसा रखा मटका, मानों फ्रिज को चुनौती देता नजर आता है। मिटटी के गेंद नुमा लोंदों का आधार बना कटे तनों की बाउन्ड्रीवाल देखते बनती है। मिटटी की खूबसूरत आकार, अमूर्त कन्गूरेदारी और रंगों से सजी धान भरने की कोठियां मुंह से बरबस ‘वाह’ कहलवा देती हैं!

बांस या अन्य नर्म खपच्चियों से बने विशाल गेट नुमा पार्टिशन में कितने प्रकार की गठानें, ज्यामितीय डिजाइने हैं मानो अनगिनत! लकड़ी से बने जानवरों के कट आउट पर चटख हरे नारंगी काले या नीले रंगों से कंट्रास्ट बुन्दकियों की सज्जा अद्भुत है। लकड़ी के दरवाजों पर कार्वड हैं कुत्ते बिल्ली भेड़ि‍या सांप शेर फूल सूरज कलश सब कुछ। इनकी पारिस्थितिक समझ को सलाम करने को जी चाहता है!

छत पर कवेलू के उपर छोटे छोटे मिट्टी के पक्षिओं की जमावट अति सुन्दर है। लगता है वे स्वत: ही वहां आकर बैठ गए हैं1 इको फ्रेंडली चटाई का बहुविध प्रयोग फर्श चटाई दीवाल चटाई खम्बा चटाई आंतरिक सज्जा को अनोखापन देता है।

कलाकृतियों में समुद्र नदी झरने भी जगह पाते हैं। जीवन और जल के तालमेल को ये लोग निसंदेह करीब से जानते हैं। छत पर तोतों सूरज, पिलर पर हिरण सांप कबूतर कछुओं और नाचते मोर की चित्रकारी! जीव जीवन और प्रकृति कैसे संग साथ खुशी का संसार रचते हैं।

मिटटी की सफेद गोल या चौकोर प्लेटों तश्तरियों पर नीले पीले बैंगनी रंगों से जीवन का बारीक चित्रण देखते बनता है1 हाथ से किए जाने वाली लीपन के गोलाकार स्ट्रोक से बनाई गए सफेद और पीले सज्जा पेटर्न को देख समझ आता है लिपाई भी इतनी कलात्मक हो सकती है। काले भूरे बादामी और सफेद रंगों से सजी बहुत सरल ज्यामितीय आकृतियां छोटी दीवाल को कितना खूबसूरत बना देती हैं। कारीडोर की मुंडेर पर काले सफेद भूरे और महरून रंगों के त्रिज्या सममित/ सिमिट्रीकल ज्यामितीय मांडने, जगह जगह मूर्त होती काष्ठ शिल्प की अमूर्त कलाकृतियां लगातार दिल को छूती रहती हैं। सफेद पुते घरों की दीवाल पर काली और महरून टिपकियों से सज्जा पेटर्न देखते बनते हैं।

खेल : बच्चों के
जनजातीय जीवन में, बच्चों के खेलों के रूपांकन, शिल्पांकन का पृथक से एक हाल में त्रिआयामी डिस्प्ले किया गया है। कम साधनों के बावजूद उनके खेल अनोखे होते हैं। यह सिद्ध करते से कि खेलने के लिए खिलोने होना उतना जरूरी नहीं है। जितना जरूरी है खेलने का जज्बा और प्रतियोगी खेल भावना। इन बच्चों के खेल जैसे घोड़ा बदाम छाई, पेड़ पर चढाई उतराई, अन्टी, कुश्ती, रस्सा कस्सी, चौपड़, पांचे, टायर की गाड़ी, गुड्डे गुड़ि‍या, रोटा पानी, घर घोंदा, आदि इकानोमिकली कितने लो कास्ट हैं और इकोलाजिकली कितने हाई कास्ट!

जीवन : विवाह और मृत्यु
यहां विवाह को जीवन की निरंतरता के रूप में स्वीकारा जाता है। मृत्यु को भी नए जीवन का प्रारम्भ माना जाता है। और उनके अमूर्त मिथकों को यहां दीर्घा में चित्रों और क्राफ्ट से बनाया गया है। महत्वपूर्ण और विशिष्ठ बात यह है कि उन्हें उन्हीं सम्बन्धित जन जातियों के ठेठ कारीगरों ने महीनों भोपाल में रुक कर बनाया है। घर में आ रही नई बहू को पहनाए जाने वाले पीतल के समृद्धि कंगन की विशाल अनुकृति बहुत ही अद्भुत है जिसमें खेत खलिहान, हल बैल, गाड़ी घोड़े, लताएं झाड़ियां, गेहूं की बालियां यानि की घर की समृधि का हर उपादान संजोया गया है। नीचे खड़े होकर कला कृतियों का वृहत्तर केनवास दृष्टिगोचर नहीं हो पाता है लेकिन विवाह मंडप में लकड़ी के चढ़ाव से उपर मचान पर चढ़ जाने के बाद कलाकृतियां मानों कला के कद्रदानों को अपनी सम्पूर्ण समग्रता से आमंत्रित करती कहती हैं आएं देखें समझे और जिएं हमारी कलात्मक भव्यता को।

देवलोक : प्रकृति की शक्ति 
आदिवासी समुदाय पत्थरों कंक्रीट के तथाकथित मन्दिरों में नहीं जाता। उनके देवलोक की धुंधलाती छटाएं किसी छोटी झील के किनारे, किसी पोखर के करीब, किसी खेत की मेड पर, घुप घने जंगल के किसी कोने काचरे में या गावों की अदृश्य सीमाओं पर छोटे से मिटटी के चबूतरे पर देखी जा सकती हैं। देव लोक के देव के रूप में बिना तराशे पत्थर की शिला / पेड़ पर लहराता झंडा / पताका / लकड़ी का लट्ठा / तिपाया हाथी/  कोई पेड़ नदी झरना आदि कुछ भी फक्त मिटटी के दिए से पूजे जा सकते हैं। दरअसल देवलोक दीर्घा का भ्रमण बताने, कहने, लिखने की बात नहीं है अपितु पृक्रति की अतुलनीय शक्ति और देवीय रूप को महसूस करने की जगह है। यहां की नीरव शांति अन्य पूजा स्थानों के घंट नादों पर भारी पड़ती प्रतीत होती है।

संगीत के देव पर आधारित ढोलकों वाला पेड़, पितृ पूर्वजों के प्रवेश द्वार पर अत्यंत आकर्षक कोठियां पूर्वजों की याद में चढाए जाने वाले टेराकोटा के खूबसूरत नमूनें देवलोक की आदिवासी परिकल्पना को अक्षरश: साकार करते हैं। तिलिस्मी जंगल, ऊंचे ऊंचे पूर्वज स्मृति रूपाकारों के ढेर के ढेर, लाईट व्यवस्था, लटकते झंडे, कहीं कल कल बहता पानी सब कुछ मिलाकर रहस्यमय मंजर उपस्थित करते हैं। झाड़ों की सूखी टहनियों के झुरमुट, उन पर टंगी घंटियां, देव स्तम्भ के पेड़ की लटकती जड़ों के मध्य हथियार लिए खड़ी आकृतियां, हाथी पर सवार देव दम्पत्ति, मानता के छोटे-छोटे त्रिशुलों की भीड़ के मध्य खड़े, खुसे, धंसे, बड़े त्रिशूल, लकड़ी की घंटी और बांस के ढक्कनदार टोकने, अनजानी आध्यात्मिकता की ओर धकेल देते हैं। जो बरबस पचमड़ी के चौरागढ़ और धूपगढ़ की याद दिला देते हैं।

पड़ोसी राज्य : छतीसगढ़
छतीसगढ़ और मप्र भले अब अलग अलग राज्य हो गए हैं पर उनमें लम्बी सांस्कृतिक निरंतरता रही है। अलबत्ता छतीसगढ़ मप्र से भी ज्यादा जन जातीय प्रमुखता वाला प्रदेश है। और यह पड़ोसी राज्य मप्र से कहीं उन्नीस नहीं बैठता। बस्तर के घने जंगलों में सालों से बसती आई जातियों का मुख्य त्योंहार दशहरा है। इसीलिए इस गैलरी के मध्य में दशहरा रथ रखा गया है। उसकी दीर्घा में प्रवेश लेते ही जालीदार पार्टीशनों की सफेदी पर चटक रंगों की कलात्मक छटा मन मोह लेती है। और कुछ नहीं तो बाहरी दीवाल पर ज्यामितीय सज्जा और नीचे दो रंगों के पट्टे आदिवासी जीवन की खुशहाल रंगीनी को प्रतिबिंबित कर जाते हैं।  छतीसगढ़ी फर्श और दीवाल ही नहीं उनकी छत पर भी नजर जाए तो वहां सूरज चांद तारों के साथ जीवन में मुस्कुराहट की अहमियत समझाते मुस्कुराते हुए स्माइली नजर आते हैं। निसंदेह रंग संयोजन की जबरजस्त समझ है छतीसगढ़ी लोक जीवन में। इतनी कि बार-बार मुंह से बरबस कुछ ही शब्द निकलते है। ‘भई वाह!’ ‘अति सुन्दर!’ ‘क्या बात है!’

इस म्यूजियम में आकर उपर नीचे, इधर उधर, दाएं बाएं, जहां भी नजर जाती है दर्शक जैसे कला की कल-कल बहती नदी में सवार हो कला का रसपान करता चलता है। कदम-कदम पर आंखें चकरा जाती हैं। और यह सघन अनुभूति होती है कि जीवन और पृक्रति के सत्यों के प्रति हर जन जातीय प्रजाति का अपना भिन्न और विशिष्ठ सांस्कृतिक नजरिया होता है।

और यह गुमान भी कि प्रदेश की सांस्कृतिक विरासत विविधता भरी होते हुए भी कितनी बोधगम्य और एक दूसरे में गुंथी हुई है कि मप्र आदिवासी संस्कृति और कला में कितना प्राचीन और समृद्ध प्रदेश है, कि हर आदिवासी जीवन ही कलात्मक ढंग से जीता है। उन्हें जीवन में हर वस्तु का भौतिक और परा भौतिक अस्तित्व सहज स्वीकार्य होता है।

मप्र के इस अनूठे संग्रहालय को देखना एक रोमांचक यात्रा है। जिन्दगी की खूबसूरत पाठशाला है यह म्यूजियम। विशेषकर लेखकों, चित्रकारों, नाटककारों यानि कला से जुड़े हर शख्स के लिए बहुत कुछ है यहां जो उन्हें न सिर्फ आकर्षित करता है, मोहता है, अपितु निसंदेह नव सृजन के लिए प्रेरित भी करता है। क्या ही अच्छा हो कि संस्कृति मंत्रालय यहां आडियो कमेंट्री की भी व्यवस्था कर दें। और द्रश्य सुखानुभूति के साथ श्रव्य सुखानुभूति भी जुड़ जाए तो सोने पर सुहागा हो जाए।

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