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एक गुलामी अभी बाकी है!

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- दीपेंद्र सिंह चौहान
इतिहास गवाह है कि हम भारतीय कई शताब्दियों से किसी ने किसी विदेशी आधिपत्य के चंगुल में फंसते आए हैं, उनमें हुन हो या मुगल, चाहे कोई अन्य विदेशी आक्रमणकारी, सबने भारत पर राज कर अपनी ठग नीतियों से भारतीय पूंजी के आधिपत्य के साथ सामाजिक और आर्थिक विकास को भी अवरुद्ध किया है, ठीक उनके पश्चात् ही सत्रहवीं शताब्दी में 'अतिथि देवो भवः' की आड़ में यूरोप की ईस्ट इंडिया कंपनी व्यापारी बनकर भारत आई और हम भारतीयों में आपसी फूट तथा जनता का राजशाही के प्रति विरोध को ताकत बना, उस व्यापारी कम्पनी ने देश की सम्पूर्ण सत्ता अपने हाथों में ले ली। 

देश की पूंजी, संसाधन, श्रमशक्ति के भारी शोषण से, कभी सोने की चिड़िया कहे जाने वाले भारत में गरीबी और अभावों ने डेरा डाल लिया था। जल्द ही शोषण और अत्याचारों से पीड़ित जनमानस ने गोरी सत्ता के खिलाफ विद्रोह कर दिया और सशत्र विद्रोह से अहिंसा और सत्याग्रहों में परिणित होकर चली क्रांति में ना जाने कितने महापुरुषों और भारतीयों ने अपने प्राण तक न्योछावर कर दिए, तब कहीं जाकर सतत् लम्बे संघर्ष ने विदेशी सत्ता को देश छोड़ने को मजबूर कर दिया था, उस साहसिक क्रांति को हम स्वतंत्रता की क्रांति कहते हैं, लेकिन जाते-जाते अंग्रेज भारत के लिए एक नासूर बो गए थे, जिसके कारण धर्म और क्षेत्र के आधार पर भारत-पाकिस्‍तान विभाजन तथा बाद में मजबूरन पाक को दो टुकड़ों में बांटा गया। 
 
इस विभाजन का कारण था भारतीयों का कई धर्मों के नाम पर बांटा जाना। उस समय के कुछ लोलुप नेताओं के स्वार्थ और अंग्रेजों की सोची-समझी नीति के परिणामस्वरूप, भारत आज तक उन धार्मिक और साम्प्रदायिक आधारित भेदभाव की संकरी गलियों से ऊपर नहीं उठ पाया है, आजादी के बाद भी जाति और धर्म के नाम पर राजनीति करने वाले अनेकों राजनेताओं द्वारा अपने वोट बैंक के लिए, धर्म और जाति के इस सामाजिक अभिशाप को और अग्रसर किया है, लेकिन हद तो तब हो जाती है जब तीव्र विकासशील और धर्मनिरपेक्षता को प्रतिबद्ध भारत के कई राज्यों में जाति और धर्म के नाम पर ही सरकार बनने-बिगड़ने लगी है, आजादी के छह दशक बाद भी बुनियादी संसाधनों से विरक्त भारत में जो समय गरीबी, अशिक्षा, कुपोषण, सामाजिक असमानता, विकास जैसे मुद्दों पर चुनाव लड़े जाने का था, वहां आज राजनीतिक पार्टिया हिंदुत्व और मुस्लिम धर्मता के नाम पर प्रचार-प्रसार कर रही है और दुर्भाग्य ये है कि भारत का भोला जनमानस उसे स्वीकार भी कर रहा है। 
 
हालिया कुछ राज्यों में बनी सरकारें इसका जीता जागता उदाहरण है, उत्तरप्रदेश हो या केरल हर जगह धर्म प्रपंच चलने लगता है। जिस समय इन राजनीतिक दलों को भारत की वैश्विक स्तर पर छवि एवं श्रेष्ठता सिद्ध करने लिए ढांचागत और संस्थागत विकास के मुद्दे पर बहस करनी चाहिए थी, वहां आज ये राजनीतिक दल जाति और समुदायों को बांटने की जुगत करते नजर आते हैं। ऐसे दलों के बहुसंख्यक नेता अपनी स्वार्थपरता के लिए देश में धर्म और जाति के नाम पर ऐसा मीठा जहर घोल रहे हैं, जिसका दंश कभी भारत को विकसित होने ही नहीं देगा, ये नेता वे होते हैं, जो दिखावा तो किसी धर्म या जाति विशेष के रहनुमा होने का करते हैं, परंतु उस जाति और धर्म के आम लोगों और उस नेता की संपत्ति और विकास के स्तर में बहुत बड़ा अंतर होता है, क्योंकि उन नेताओं के लाडले तो विदेशो में पढ़ाई करने के साथ लग्जरी जीवन जीते, परंतु उस धर्म और जाति के आम आदमी के बच्चों को बुनियादी शिक्षा और खाना भी उपलब्ध नहीं हो पाता है। 
 
आज हर दल किसी समुदाय विशेष के वोट बैंक को हथियाने के लिए किसी अन्य समुदाय के अधिकारों को कुचलने से कतई नहीं झिझकता है, परन्तु सबसे दुखद बात ये है कि देश का आमजन यानी हम इन दलों के धर्म आधारित अभियान का सहयोगी बन जाते हैं, अपने धर्म एवं जाति का पक्ष देखकर हम इन्हें अपना नेता बना के, राष्ट्रहित को अनदेखा कर देते हैं, और ये अपनी चालों से भोली जनता को धार्मिक और जातिगत आधार पर भ्रमित कर के भारत के भविष्य के निर्णायक बन जाते हैं, इससे एक बात तो साफ होती है कि हम चाहे कितना भी शिक्षित और आधुनिक होने के दावे करें लेकिन सत्य तो यही है कि हम अंग्रेजी गुलामी से आजादी के छह दशक पश्चात भी अपनी संकीर्ण मानसिकता के गुलाम आज भी हैं, उस संकीर्णता की बेड़ी में उलझकर आज भी हम योग्यता, क्षमता, नेतृत्व, शिक्षित, कुशल वक्ता वाले नेता सिद्धांत को नकार राष्ट्रहित और वैश्विक विकास की अवधारणा को ठोकर मारते हुए धर्म और समुदाय के आधार पर अपना नेता चुनते हैं, जिसका परिणाम ना कभी सुखद हुआ है ना होगा। 
 
यह बात प्रामाणिक है कि शारीरिक गुलामी उस मानसिक गुलामी से तो कमतर घातक होती है, जो व्यक्ति की विचारक्षमता का और स्थिति विश्लेषण की क्षमता का चरम होती है। ऐसी स्थितियों में भारतीय आमजन को ये बात स्वीकारनी पड़ेगी कि जिस सत्ता राजनीतिकरण की घातक प्रवृत्ति को हम बढ़ावा दे रहे हैं, वो एक विकसित भारतीय अर्थव्यवस्था को कभी जन्म नहीं दे पाएगी। और यही वर्तमान का कटु सत्य है, इसको समझना मुश्किल हो सकता है, परन्तु समझना ही होगा। तात्कालिक स्थिति में भारत के आमजन यानि हमें यानि युवावर्ग को इस छलकपट युक्त बांटने की व्यवस्था में निहित वास्‍तविकता को समझ इसका खंडन करने की जरुरत है। 
 
आज भारत माता अपनी आंखों में आशा का उन्मेष लिए भारत के युवा की ओर देख रही है, क्योंकि इस तरुण भारत की युवा आबादी ही इस धर्म, जाति, समुदायवाद पर की जाने वाली राजनीति के दमन के लिए एक क्रांति का आवाह्न कर सकती है, इस क्रांति में लड़ाई किसी अंग्रेजी सत्ता जैसे बाहरी दुश्मनों से ना होकर हमारी खुद की संकीर्ण सोच से होगी, जो हमे धर्म, जाति, समुदाय जैसे अवांछित मानकों पर आधारित नेता चुनने को मजबूर करती है। यही सोच उन समाज के ठेकेदारों को बढ़ाबा देती है, जो सही मायनों में योग्य ना होते हुए भी देश के कर्ताधर्ता बन जाते हैं। तो शपथ लीजिए देश के युवाओं कि मतदान तो सिर्फ योग्यता सिद्धांत के अनुसार करेंगे ही साथ ही धर्म, जाति, समुदाय पर वोट मांगने वालों के खिलाफ एक नई क्रांति का बीज बोएंगे।

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