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मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
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मोहन भागवत द्वारा धर्म संसद का विरोध अतिवादी और विरोधी दोनों को जवाब

मोहन भागवत द्वारा धर्म संसद का विरोध अतिवादी और विरोधी दोनों को जवाब
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अवधेश कुमार

मोहन भागवत द्वारा हाल में हिंदुत्व को लेकर अतिवादी आक्रामक बयानों की आलोचना बिल्कुल स्वाभाविक है। हालांकि इससे उस पूरे समूह में नाराजगी है, जो हिंदुत्व के नाम पर अतिवादी विचारों व व्यवहारों के समर्थक हैं।

भागवत का यह कहना उन सबको नागवार गुजर रहा है कि धर्म संसद में जो कुछ कहा गया वह हिंदुत्व बिल्कुल नहीं है। उन्होंने राष्ट्रीय एकता और हिंदुत्व से संबंधित नागपुर के कार्यक्रम में हिंदुत्व,  हिंदू राष्ट्र और अन्य प्रश्नों पर विस्तार से बोला है और यही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ परिवार की अधिकृत सोच मानी जाएगी।

भागवत ने जो कुछ कहा वह नया नहीं है। दुर्भाग्य से सही समझ, सोच, नेतृत्व और मार्गनिर्देश के अभाव में पिछले कुछ वर्षों में हिंदुत्व की प्रतिक्रियावादी व्याख्या और उसके अनुसार व्यवहार करने वालों का समूह विकसित हुआ है। समस्या यह है कि हमारे देश में जब भी हिंदुत्व के नाम पर प्रतिक्रियावादी समूह या तत्व कुछ बोलते या कदम उठाते हैं तो उसे सीधे-सीधे संघ, भाजपा या पूरे परिवार से जोड़ दिया जाता है।

दूरगामी व्यापक लक्ष्यों के साथ अग्रसर कोई संगठन समूह इस तरह के अतिवादी विचार से स्वयं को कभी बांध नहीं सकता। विश्व इतिहास गवाह है कि प्रतिक्रियावादी विचारधारा वाले संगठन या समूहों की आयु बहुत लंबी नहीं होती।

ऐसे लोगों को माहौल के कारण आरंभ में कुछ दिनों तक कुछ लोगों का समर्थन अवश्य मिलता है पर ये स्वयं अपने जीवन काल में ही कमजोर या अलग-थलग पड़ जाते हैं। अतिवादी घटनाओं की प्रतिक्रियाओं को तात्कालिक जन समर्थन मिलनि स्वभाविक होता है।

किंतु सतत रूप से प्रतिक्रियावादी बने रहना किसी को भी उस विचारधारा की सच्ची और गहरी समझ से दूर रखता है। इस कारण उनके विचार और व्यवहार दोनों कभी भी संतुलित सहज स्वाभाविक और स्वीकार्य नहीं होते।

हालांकि यह दुर्भाग्य एकतरफा नहीं है। हिंदुत्व शब्द का विरोध करने वालों के साथ भी यही समस्या है। वे कतिपय नकारात्मक कारणों से जानबूझकर या अज्ञानता में हिंदुत्व की गहराई और व्यापकता को समझे बिना ही प्रतिक्रियाएं देते हैं।

सीधे-सीधे हिंदू धर्म के अलावा अन्य सभी मजहबों और संप्रदायों के विरुद्ध घृणा व नफरत पैदा करने वाली विचारधारा के रूप में हिंदुत्व को व्याख्यायित किया जा रहा है। तस्वीर ऐसी बनाई जाती है मानो हिंदू धर्म की व्यापकता से परे निहायत ही संकुचित फासीवादी आक्रामक या उग्रवादी हिंसक तत्वों ने इस विचारधारा को अलग से जन्म दिया है।

ये भी अपने विरोध और निंदा में सीमाओं का अतिक्रमण कर नकारात्मक अतिवाद का शिकार हैं। जैसे हिंदुत्व के नाम पर प्रतिक्रियावादी व्यक्तियों या समूह की व्याख्या गलत है वैसी ही इनकी भी। वे कहते हैं कि हमें इसे हिंदू राष्ट्र बनाना है।

इनमें कुछ ऐसे तत्व हैं जो वाकई कहते हैं कि हिंदू राष्ट्र का अर्थ यहां केवल एक ही धर्म रहेगा। दूसरी तरफ हिंदुत्व के विरोध में झंडा उठाने वाले भी यही दुष्प्रचार करते हैं कि संविधान से सेकुलर शब्द हटाकर  हिंदू राष्ट्र लिख दिया जाएगा और लाल किले पर तिरंगा की जगह भगवा फहराया जाएगा।

इनकी प्रतिक्रिया में वे कहते हैं कि हां ऐसा ही होना चाहिए। धर्म संसदों में दिए गए कई भाषणों में आपको इससे भी आगे की भाषा सुनाई देगी। दुर्भाग्य से हिंदुत्व से अनभिज्ञ या जानबूझकर इसके विरोध करने वालों को निंदा और दुष्प्रचार का पूरा आधार मिल जाता है।

भागवत का पूरा वक्तव्य इन दोनों पक्षों को ध्यान में रखते हुए दिया गया लगता है। संघ परिवार की विचारधारा को निष्पक्ष होकर पढ़ने और समझने वाले मानेंगे कि हिंदू राष्ट्र से उनका अर्थ न संविधान बदलना है और न ही लाल किले या अन्य सरकारी संस्थानों पर तिरंगा हटाकर सीधे भगवा ध्वज फहरा देना है।

भागवत ने कहा भी है कि हिंदू राष्ट्र बनाने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि यह हिंदू राष्ट्र है ही। मूल समस्या हिंदू और राष्ट्र शब्द को न समझ पाने के कारण पैदा होती है। भारतीय संदर्भ में राष्ट्र का अर्थ वह नहीं है जो हम नेशनल स्टेट का मानते हैं।

राष्ट्र का अभिप्राय ऐसी जीवन प्रणाली से है जो उस क्षेत्र विशेष के लोगों ने अपनाया हुआ है। इस दृष्टि से देखें तो भारत की संपूर्ण जीवन प्रणाली में हिंदुत्व स्वयमेव समाहित है। भारत में रहने वाले सभी हिंदू हैं कहने का तात्पर्य मजहब बदलकर सबको हिंदू धर्म में लाना नहीं हो सकता। राष्ट्रीयता के रूप में सभी हिंदू हैं उनका मजहब कोई भी हो सकता है।

यह विचार केवल एक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या वीर सावरकर जैसे लोगों का नहीं है। आप विवेकानंद से लेकर महर्षि अरविंद जैसे मनीषियों के विचारों को पढ़ेंगे तो उसमें भी यही भाव साफ-साफ परिलक्षित होता है।

इस श्रेणी के सारे मनीषी अपने भाषणों में हिंदू राष्ट्र शब्द का सहजता से प्रयोग करते हैं क्योंकि तब इसके बारे में इतनी भ्रांत धारणाएं नहीं बनाई गई थी और न इसका इस तरह विरोध था।

महर्षि अरविंद ने 1893 के अपने उत्तरपारा भाषण में ही हिंदू राष्ट्र शब्द का प्रयोग किया था। स्वामी विवेकानंद भारत के संदर्भ में समानार्थी के रूप में हिंदू राष्ट्र का प्रयोग करते हैं। वे सब इसलिए ऐसा करते थे कि उन्हें अपनी धर्म संस्कृति के साथ राष्ट्र के वास्तविक अभिप्राय का बोध था।

यह बात सही है कि विश्व भर में इस्लामी अतिवाद के डरावने उभार तथा भारत में उसके असर के कारण हिंदू समाज के अंदर व्यापक प्रतिक्रियाएं हुई। सरकारों द्वारा सच्चाई न स्वीकार करने के कारण लोगों के अंदर गुस्सा भी पैदा हुआ और उसका प्रकटीकरण लोगों ने अन्य पार्टियों के विरुद्ध भाजपा को समर्थन देने के रूप में किया।

लेकिन इसके समानांतर ऐसे तत्व भी विकसित हो गए जिनके लिए हिंदुत्व का अर्थ अन्य सभी मजहब का नकार तथा उनके मानने वालों से नफरत है। वे नाथूराम गोड्से जैसे एक हत्यारे को भी राष्ट्रभक्त कह कर उनका समर्थन करते हैं। हिंदुत्व की सर्व कल्याणकारी और व्यापक अवधारणा में दूसरे मजहब से नफरत और इस तरह की हिंसा के लिए कोई स्थान ही नहीं है।

किसी मजहब के विचारों से असहमति या उसकी आलोचना करने में समस्या नहीं है किंतु ठोस तथ्यों पर आधारित होने के साथ उसकी भाषा अनुशासित और मर्यादित होनी चाहिए। इसी तरह किसी मजहब के अतिवादियों का विरोध करना भी उचित है किंतु उसमें उसी तरह के आचरण की आक्रामक वकालत हिंदुत्व के व्यापक लक्षणों के विरुद्ध है।

वैसे भी हिंदुत्व और हिंदुत्व विरोधियों के बीच संघर्ष विचारधारा का है। इनका उत्तर विचारधारा और उसके आधार पर विकसित जन समर्थन से ही किया जाना चाहिए। भागवत ने राष्ट्रीय एकता के संदर्भ में हिंदुत्व के सभी पहलुओं की एक बार फिर से व्याख्या कर हिंदुत्व और हिंदुत्व मवादियों के संदर्भ में दोनों पक्षों द्वारा पैदा किए जा रहे भ्रमों का खंडन करने की सुविचारित प्रभावी कोशिश की है।

उम्मीद करनी चाहिए कि इसका असर होगा और भ्रम के शिकार लोग भी अपनी सोच व व्यवहार पर पुनर्विचार करेंगे। राजनीतिक या अन्य कारणों से हिंदुत्व विचारधारा के विरोध करने वालों से ऐसी उम्मीद नहीं की जा सकती लेकिन अगर स्वयं को हिंदुत्ववादी कहने वालों ने अपने व्यवहार को इसकी व्यापकता के अनुरूप संशोधित परिवर्तित नहीं किया तथा यह गलतफहमी पाले रहे कि संघ और भाजपा इसी विचारधारा को मानती है तो वे अपने साथ हिंदुत्व विचारधारा को ज्यादा क्षति पहुंचाते रहेंगे।

(आलेख में व्‍यक्‍त विचार लेखक के निजी अनुभव हैं, वेबदुनिया का इससे कोई संबंध नहीं है।)

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