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मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
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हिन्दी, श्रेष्ठ है और श्रेष्ठतम सिद्ध होगी, प्रतीक्षा तो कीजिए

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डॉ. मनोहर भंडारी

जब से चिकित्सा शिक्षा को हिन्दी माध्यम से दिए जाने की घोषणा हुई है, तभी से अभी तक कुल मिलाकर लगभग डेढ़ सौ चिकित्सा शिक्षकों, चिकित्सकों, पत्रकार साथियों और गैर चिकित्सीय विद्वानों तथा विद्यार्थियों ने मुझसे बातचीत में सरकार के इस कदम की आलोचना एवं घोर निन्दा की है, उपहास उड़ाया है, आत्मघाती कहा है, 19 वीं सदी में ले जाने की बात कही है, यह भी कहा है कि फिर तो संस्कृत में ही दे दी जाना चाहिए, जब पीछे धकेल रहे हो तो पूरा ही धकेल दो, यहां तक कि भावी चिकित्सकों की गुणवत्ता पर प्रश्न उठाए गए हैं, विश्व पटल पर उनकी काल्पनिक अयोग्यताओं का भी उल्लेख किया गया है। इसके अतिरिक्त भी न जाने क्या-क्या कहा गया हैI  मोदीजी, आरएसएस और अन्य इससे जुड़े व्यक्तियों के लिए अपशब्दों का भी प्रयोग किया गयाI अभी भी सिलसिला अनवरत है।

तुर्की की स्वतन्त्रता और उनकी भाषा
जब तुर्की स्वतन्त्र हुआ तब वहां के बादशाह कमाल पाशा ने अपने अधीनस्थों से कहा था कि अब सारा कामकाज तुर्की में होगा, तो वे बोलें थे कि ऐसा करने के लिए कम से कम दस वर्ष लगेंगेI बादशाह ने उत्तर दिया ठीक है, कोई बात नहीं, यही समझ लीजिये की आज उस दस वर्ष का अन्तिम 365 वां दिन हैI  इस आदेश के तहत दूसरे ही दिन से तुर्की भाषा पूर्णरूपेण अस्तित्व में आ गई।

महात्मा गांधी का उद्घोष और भाषाई पराधीनता के अन्त का शुभारम्भ
स्वराज, सुराज और स्वदेशी के प्रचारक राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की यह तीव्र मंशा थी और उन्होंने स्पष्ट रूपसे यंग इण्डिया में सम्भवत: 1931 में कहा था कि ‘अगर मेरे हाथों में तानाशाही सत्ता हो तो मैं आज से ही विदेशी माध्यम के जरिए हमारे लड़के-लड़कियों की शिक्षा बन्द कर दूं, और सारे शिक्षकों एवं प्राध्यापकों से यह माध्यम तुरन्त बदलवा दूंI या उन्हें बर्खास्त कर दूंI मैं पाठ्यपुस्तकों की तैयारी का इन्तजार नहीं करूंगाI वे तो माध्यम के परिवर्तन के पीछे-पीछे चली आएंगीI यह एक बुराई है, जिसका तुरन्त इलाज होना चाहिए’ हमें तो गर्व होना चाहिए कि गांधीजी की मंशा पूर्ण होने का शंखनाद हुआ हैI  गांधीजी के सिद्धान्तों को मूर्तरूप देने वाले दृढ निश्चयी माननीय मोदीजी ने स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव पर इसका शुभारम्भ किया हैI मोदीजी के ही नेतृत्व में देश के एक हिन्दी भाषी मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान तथा चिकित्सा शिक्षा मंत्री विश्वास सारंग ने उनकी मंशा को साकार करने की दिशा में समारोहपूर्वक पहला कदम बढ़ाया हैI यह तो भाषाई गुलामी से मुक्ति का महापर्व हैI इस पर्व की पूर्ण सफलता में आने वाली सम्भावित कठिनाइयों के व्यावहारिक समाधान, मध्य प्रदेश सरकार और केन्द्र सरकार को देने हेतु हमारे द्वारा युद्धस्तर पर प्रयास किए जाने की अपेक्षा थी और अभी भी हैI हम सभी के सहयोग के बिना क्या कोई भी सरकार ऐसे राष्ट्रहित के कार्य को समयसीमा में व्यापक रूप में पूर्ण कर सकती है? क्या स्वतन्त्रता के तुरन्त बाद ही गांधीजी की मंशा साकार हो जाती तब भी क्या, ये सभी प्रकार की आशंकाएं-आलोचनाएं हम सभी के मन-मस्तिष्क में उसी परिमाण में आकार लेती? उत्तर है कदापि नहीं लेती

क्यों, क्योंकि तब तक अंगरेजी ने हमारे मन-मस्तिष्कों को इतना ग्रसित नहीं किया था, गुलाम नहीं बनाया थाI इसलिए भी कि तब यह निर्णय आरएसएस या मोदीजी का नहीं कहलाताI  इसलिए भी कि हम उस समय बाजारवाद के आक्रामक प्रचार-प्रसार से मुक्त थेI  इसलिए भी कि उस समय अंगरेजी के चंगुल से 90% भारतीय मुक्त थे और आज तो शहरों और कस्बों तक में गरीब बस्तियों के बच्चों पर अंगरेजी को जबरिया थोपा जा रहा हैI

हिन्दी की प्रासंगिकता और प्रीपीजी मेडिकल स्टूडेंट्स
हिन्दी मातृभाषा से आए चिकित्सा विद्यार्थियों के जीवन में हिन्दी की उपयोगिता का इससे बढ़कर क्या प्रमाण होगा कि जब अंगरेजी में पढ़ाई-परीक्षाओं के अनेक सोपानों को पार करते हुए साढ़े पांच वर्ष की पढ़ाई के बाद चिकित्सक जब प्रीपीजी की तैयारी करते हैं तब भी वे कांसेप्ट्स समझने के लिए हिंगलिश में उपलब्ध व्याख्यानों को सुनते हैंI प्रेपलैडर नामक व्यावसायिक कोचिंग संस्थान ऐसे वीडियोज को अनावश्यक रूप से तो तैयार नहीं करवाएगा, यह तो बनी बात हैI इसका अर्थ यह है कि अंगरेजी जानने-समझने वाले चिकित्सकों के लिए हिन्दी कांसेप्ट्स समझने की दृष्टि से अंगरेजी से बेहतर हैI

अंगरेजी थोपे जाने के षड्यंत्र से अनभिज्ञ हम भारतीय
यह बताना प्रासंगिक होगा कि भारत में तीव्रता के साथ अंगरेजी केवल ज्ञानार्जन के लिए नहीं पधराई गई थी, यह हमारी संस्कृति, हमारी परम्पराओं, हमारी धार्मिकता, हमारी विश्व स्तर की धरोहरों-उपलब्धियों को अंधविश्वास सिद्ध करते हुए, उन सबकी चुपचाप (ताकि आपको पता ही नहीं चले) अंगरेजी द्वारा जड़ें काटी जा सकेंI  वे पूरी तरह सफल होते ही जा रहे हैं। हमारी विज्ञानसम्मत भाषा, देश, काल और परिस्थितियों के अनुरूप भूषा और भोजन आपसे विलग कर दिए गए हैं, उन्हें बड़े ही शातिराना और गुप्त तरीके से अपदस्थ किया जा चुका हैI आप अनभिज्ञ हो और हमारे व्यवहार में ऐसे बदलाव आ चुके हैं कि माता-पिता को स्वप्न में वृद्धाश्रम दिखने लगे हैं, क्योंकि अनायास ही श्रवण कुमार लुप्त हो गए हैंI हम धर्म (नैतिकता), अर्थ (नैतिकता की सीमा में धनार्जन), (काम नैतिक मूल्यों का सम्मान करते हुए सुख सुविधाओं का उपभोग) और मोक्ष (अर्जित अतिरिक्त धन का परमार्थ हेतु उपयोग, जैसे टाटा,बिरला आदि अनेकानेक धनाढ्य करते हैं) के क्रमिक पुरुषार्थ मार्ग से भटक कर जिस किस तरीके से धन का अर्जन करना और नैतिक-अनैतिक को भुलाकर अच्छी-बुरी सुख सुविधाओं का भोगने, शराब, जुआ, नशा, स्वच्छन्द यौनाचार में ही बुरी तरह जकड़ चुके हैंI बेटियां तक मां-बाप की हत्या कर डालती हैं, केवल धन हथियाने के लिए ही नहीं अपितु मोबाइल या छद्म प्रेमी के लिए भीI हमें कोई भान ही नहीं है, इन गम्भीर आत्मघाती स्थितियों के विषय में चिन्ता कदापि नहीं है, इसे जमाने की दौड़ का सहज परिणाम मान कर चुप्पी साधे हुए हैंI हमें लगा ही नहीं कि कि इसके पीछे के क्या-क्या सम्भावित कारण हो सकते हैं।

संस्कृत, संस्कृत से उपजी भारतीय भाषाएं
जिस संस्कृत की वैज्ञानिकता पर पाश्चात्य वैज्ञानिक और नासा अपने शोधों के निष्कर्ष से हतप्रभ और प्रफुल्लित होकर उसकी अनुशंसा कर रहे हैंI महान भाषावादी और अमेरिका में लिंगविस्टिक सोसाइटी के संस्थापक लियोनार्द ब्लूमफिल्ड ने पाणिनि अष्टाध्यायी के अध्ययन के बाद कहा है कि ‘संस्कृत मानवीय बुद्धिमता का महानतम मन्दिर हैI’ यूनेस्को ने माना है कि संस्कृत में जाप से मन और तन पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता हैI  उस संस्कृत की बेटियों (भारतीय भाषाओं) की वैज्ञानिकता, संवेदनाओं का वरदान देने वाली, बौद्धिक चेतना से सम्पन्न करने वाली क्षमताओं से अनभिज्ञता के साथ घर निकाला देने में गर्व का अनुभव कर रहे हैंI हमें मालूम ही नहीं है कि युद्ध या एकाधिकार की आकांक्षा, परमाणु हथियारों की बाढ़, सबको पराजित और अधीन करने की उत्कट मनोकामना, भयावह हिंसा की स्वीकार्यता, धन के लिए सब कुछ जायज मानने की उत्कट लालची वृत्ति, अहंकार, मदान्धता, सभी को गुलाम बना देने की तीव्र और तानाशाह मानसिकता के सशक्तिकरण में कहीं न कहीं भाषा का भी हाथ हो सकता है। आखिर क्यों भारत की पुण्यभूमि पर जन्म लेने वाले हिन्दू अवतारों, जैन तीर्थंकरों, गौतम बुद्ध और उनके अनुयायी शासकों ने शक्ति सम्पनता के उपरान्त भी शान्ति, संतुष्टी, सरलता, सहजता, अहिंसा, जियो और जीने दो, सर्वे भवन्तु सुखिनः, विश्व का कल्याण हो, प्राणियों में सद्भावना हो जैसे जीवनदायी मन्त्रों का उद्घोष कर उन्हें जीवन में अंगीकार किया है? कबीरदासजी, स्वामी रामतीर्थ, महर्षि अरविन्द, स्वामी रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द, स्वामी योगानन्द, जिद्दु कृष्णमूर्ति जैसे अनेकानेक लोगों की परम्परा है, जिन्होंने जीवनपर्यन्त देश-विदेश में मानवता का दिव्य सन्देश दियाI हिन्दी माध्यम से पढ़े-बढे ओशो की बुद्धिमता और आभामंडल से अमेरिका की सरकार तक भयभीत रहती थी, इन सभी बातों से यही ध्वनित होता है कि अंगरेजी और बौद्धिक श्रेष्ठता का कोई स्थायी सम्बन्ध नहीं हैI प्रश्न यह है कि आखिर क्यों मोदीजी जैसे सैन्य शक्ति से सम्पन्न तथा सशक्त शासक को विश्व के अधिसंख्य नागरिक विश्वशान्ति का अग्रदूत मान रहे हैं? मेरे अभिमत में इसमें संस्कृति के साथ-साथ संस्कृत से जन्मी भाषाओं का बहुत बड़ा हाथ है।

भारतीय भाषाओं का विज्ञान
नेशनल ब्रेन रिसर्च सेंटर, नई दिल्ली की एक प्राथमिक रिसर्च, जो करेंट नामक विज्ञान पत्रिका में प्रकाशित हुई थी कि संस्कृत से जन्मी भाषाओं और अंगरेजी में मौलिक अन्तर होने से अंगरेजी पढने से मस्तिष्क का बायां गोलार्द्ध ही अधिक सक्रिय होता है, जो तर्क, गणित, खण्ड-खण्ड विश्लेषण आदि से जुड़ा है और दायां गोलार्द्ध करुणा, शान्ति, वात्सल्य, ममता, कला, संगीत, अखण्ड दृष्टि आदि से जुड़ा हैI अमेरिका और ब्रिटेन की तरह भारत में भी तेजी से हो रहे पारिवारिक विखंडन और धनप्रधान मानसिकता की पृष्ठभूमि में अंगरेजी के हाथ को खोजा जाना चाहिएI स्कूलों में गर्भपात की समस्त सुविधाओं के उपरान्त भी हर वर्ष अमेरिका और ब्रिटेन की लाखों कुंवारी किशोरी माताओं की भयावह बाढ़ के पीछे अर्थ और काम प्रधान वाली अंगरेजी भाषा की भूमिका पर शोध किए जाने चाहिएI भारतीय मानस या यूं कहें, आयुर्वेद हरेक व्यक्ति को प्रकृति के सन्दर्भ में एक पृथक व्यक्तिसत्ता मानकर उपचार और दिनचर्या निश्चित करता है और जबकि अंगरेजी चिकित्सा विज्ञान एक देश के सभी व्यक्तियों को एक समान मशीन मानने का ज्ञान देता है, इसलिए रोग विशेष में सभी भारतीयों के लिए अधिकांशत: समान दवाएं प्रिस्क्राइब की जाती है, मात्रा उम्र के साथ बदल जाती हैI आपने यह भी देखा होगा कि एक पेट रोग या स्त्रीरोग, या नेत्र विशेषज्ञ साढ़े पांच वर्षीय पाठ्यक्रम एमबीबीएस में निष्णात होने उपरान्त भी रोगी के साधारण सर्दी-बुखार के उपचार के लिए जनरल फिजिशियन के पास भेजता है, यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति एक विकासशील देश के मध्यमवर्गीय या निम्नवर्गीय रोगी को अनेक विशेषज्ञों के बीच फुटबाल बना कर उसकी आर्थिक स्थिति को गम्भीर रूप से प्रभावित कर डालती है।

हिन्दी माध्यम से चिकित्सा शिक्षा और हमारी गहन चिन्ता
चिकित्सा शिक्षा हिन्दी माध्यम से दिए जाने के निर्णय से हमें इस बात की तो गहन चिन्ता हो गई है कि हिन्दी पढ़कर निकलें चिकित्सक विदेशी शोध पत्रिकाओं को कैसे पढेंगे? परन्तु हमने आज तक यह पता नहीं किया कि अंगरेजी माध्यम से पढ़ें कितने प्रतिशत भारतीय चिकित्सक देशी और विदेशी पत्र-पत्रिकाओं के शोधों को पढ़ते हैंI मैंने लगभग ढाई दशकों तक सफलतापूर्वक डिस्पेंसिंग चिकित्सक के रूप में प्रैक्टिस की मुझे तो इसकी कभी आवश्यकता ही नहीं पड़ीI जो नगण्य चिकित्सक पढ़ते हैं, वे उन शोधों को अपनी प्रैक्टिसिंग लाइफ में कितना अपनाते हैं, यदि ऐसा शोध करेंगे तो वास्तविकता का अनुमान लग सकेगा। विदेशों की चिंता में आकण्ठ डूबे हम लोगों ने यह भी कभी पता ही  नहीं किया कि हमारे गांवों के नागरिकों को बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाएं मिलती हैं अथवा नहीं मिलती है या उन सुविधाओं का स्तर कैसा हैI हमारे ग्रामीण परिवार इसी के चलते, शने: शने: गांवों को छोड़कर शहरों की भीड़भाड़ भरी अपरिचित जिन्दगी में अपनी अस्मिता को तिरोहित करने को विवश हो चुके हैंI हमें अपने ग्रामीण नागरिकों की चिन्ता प्राथमिकता से करने की आवश्यकता है, सम्भव है, यह भाषाई परिवर्तन गांवों के लिए भी वरदान सिद्ध होI

आतंकित, उपेक्षित, निराश, हताश चिकित्सा विद्यार्थी और उनकी जिम्मेदारों द्वारा आपराधिक अनदेखी
हिन्दी माध्यम से प्रवेशित कितने प्रतिशत मेडिकल स्टूडेंट्स अंगरेजी के आतंक से भयातुर होकर घर से दूर अपने बन्द कमरों में अकेले क्रंदन करते रहते हैं और उनकी वाणी में अनायास उतर गई निराशा की अनुगूंज को मां-बाप पहचान लेते हैं और फिर वे माता-पिता कितने व्यथित, आक्रांत और आशंकाओं के समुद्र में डूबते उतराते रहते हैं? काश! अपनी साढ़े तीन दशक की सेवावधि में एक आत्मीय मित्र की तरह देखें और अनुभव किए गए उन क्रन्दनों को एक छोटे तालाब में एकत्रित कर आपके दर्शनार्थ प्रदर्शित कर पाताI विश्वास कीजिए साहब, आपकी आत्मा बुरी तरह कांप जातीI वे तो हमारे अपने बेटे-बेटियां ही हैं, विदेशी या पराए नहीं हैंI उनकी हमने कभी चिन्ता नहीं कीI हमें पैरों की आग नहीं दिखाई दे रही है, परन्तु पहाड़ों की आग की गहरी चिन्ता हैI एक शोध करवाइए, कितने बच्चें पिछले चालीस वर्षों में प्रथम वर्ष में अंगरेजी भाषा के कारण अनुत्तीर्ण हुए हैं और फिर पूरक परीक्षा में पहली बार में ही सफल हुए हैंI आपको पता चलेगा कि प्रवेश परीक्षा में शीर्ष सातवां-आठवां स्थान पाने वाले तक असफल हुए थे, अन्यों की कल्पना की जा सकती हैI यह पता करवाना चाहिए कि कितने बच्चों ने एमबीबीएस का साढ़े पांच वर्षों का पाठ्यक्रम आठ-दस-पन्द्रह वर्षों में पूरा किया है? एक विद्यार्थी ने जब 21 वर्ष में प्रथम वर्ष उत्तीर्ण किया था तो उसकी जिजीविषा पर दैनिक भास्कर के एक पत्रकार ने बड़ी स्टोरी प्रकाशित की थी, जो मेरे पास है, शीर्षक था “उन्होंने 21 वर्षों में पार की डॉक्टरी की पहली सीढीI” उसकी और उसके परिवार तथा उसके जैसे सैकड़ों बच्चों की पीड़ा को किसी ने नहीं सुना, न सरकार ने, न कॉलेज ने, न अध्यापकों नेI चिकित्सा शिक्षा में अंगरेजी भाषा की अपरिहार्यता-अनिवार्यता ने नीति निर्धारकों, अध्यापकों आदि सभी को आत्मसम्मोहित कर रखा हैI

समस्या का समाधान और मैडम बोस की दूरदृष्टि तथा शैक्षणिक उन्नयन की योजना
मेरी तत्कालीन हेड डॉ. सुखवंत बोस जो स्वामी विवेकानन्द की अनुयायी हैं ने ऐसे बच्चों के दर्द को समझा और मुझसे पूछा कि क्या मैं उनके अभियान में साथ दूंगा? फिर हम दोनों ने ऐसे बच्चों के मनोबल को बढाने का पराक्रम शुरू किया और हिंगलिश में सरलता के साथ, वर्ष में केवल दो-तीन दर्जन अतिरिक्त कक्षाओं के रूप में पढाना शुरू कियाI हम केवल एक विषय, फिजियोलॉजी ही पढ़ाते थे। अन्य शिक्षकों को लगा कि कहीं सरकार हमें भी इस काम में नहीं लगा दें तो उस पुनीत कार्य को ट्विस्ट कर हमारी ऊपर तक शिकायत की गई, हमें अधिष्ठाता की बहुत डांट खाना पड़ीI क्लासेस बन्द हो गई, बच्चें हतप्रभ और दुखी हुए। उनका आग्रह था कि क्लासेस फिर से शुरू की जाए। फिर मैडम ने एक निर्विवाद वैधानिक रास्ता निकाला, फिर अभियान शुरू हुआ। जब क्लासेस शुरू की थी, तब हर साल 35 से 40 बच्चें असफल होते थे, चार-पांच वर्ष बाद सन 2004 के परिणाम निकलें तो यह संख्या कम होते-होते छह रह गई थी। हमने केवल फिजियोलॉजी पढ़ाया था, परन्तु जब उन्हें यह विश्वास हो गया कि हमारा कोई सहृदयी है, सुहृद है तो उनका मनोबल बढ़ा, आत्मविश्वास जागा और वे तीनों विषयों में बेहतर परफार्म करने में सक्षम हुए। स्वामी विवेकानंद ने कहा था शिक्षा विद्यार्थियों के भीतर अन्तर्निहित प्रतिभा का प्रस्फुटन करती है, हमसे वही अनायास होता चला गयाI और जब सरकार ने 2004 में प्रदेश के सभी मेडिकल कॉलेजों से पूछा की विद्यार्थियों के उन्नयन के लिए आपके संस्थान में क्या-क्या नवाचार हो रहे हैं, तो अधिष्ठाता ने मैडम और मेरे इस नवाचार को कॉलेज की उपलब्धि के रूप में प्रस्तुत किया था। मैडम के सेवानिवृत्त होते ही, जून 2005 के उपरान्त वह कार्य बन्द हो गयाI परन्तु तब से 2019 तक के ऐसे सभी बच्चों का ईश्वर ने मुझे स्थायी और विश्वसनीय मित्र बना दिया था, मैं संयोगवश स्टूडेंट वेलफेयर कमेटी का निरन्तर पदाधिकारी भी रहा। बस, उनको यह विश्वास दिला देता था कि चिन्ता मत करो मैं सदैव तुम्हारे साथ हूं, सभी विद्यार्थियों के लिए मैं 24x 7 उपलब्ध था। हिन्दी बहुल अंगरेजी में पढ़ाना मेरी दैनिकचर्या हो गया, मैंने अतिरिक्त क्लासेस के लिए विभागाध्यक्षों और अधिष्ठाताओं से अनुमति हेतु पत्र भी लिखेंI यह भी शोध किया जाना चाहिए कि विभिन्न मेडिकल कॉलेजों में कितने बच्चों ने इस थोपी गई अंगरेजी के कारण निराशा, अवसाद और नशे को अपना स्थायी साथी बनाया और कितने विद्यार्थियों ने आत्महत्या कीI दो-तीन बच्चों को तो आत्मघात से बचाने के लिए ईश्वर ने मुझे निमित्त बनाया हैI मैंने मैडम के द्वारा किए गए पराक्रम के अनुभवों के आधार पर “हिन्दी माध्यम और आरक्षित वर्ग के विद्यार्थियों और सकल चिकित्सा शिक्षा के उन्नयन की शून्य बजट प्रभार की सार्थक योजना” को कागजों पर उतारा और अनेक चिकित्सकों, शिक्षाविदों आदि से उस पर टिप्पणी चाही, सभी टिप्पणियां सकारात्मक और सराहनाओं से परिपूर्ण थीI उस योजना को, विद्वानों की टिप्पणियों के साथ, मैंने 2009 में केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी आजाद को प्रेषित किया था। तीन जुलाई 2009 को उनका पत्र आया कि मैं इसे दिखवा रहा हूं। फिर उस योजना को अधिष्ठाता, मेडिकल कॉलेज, जबलपुर को दिखाया और उनसे चर्चा कीI सहमत और कन्विंस होने पर उन्होंने अपनी अनुशंसा के साथ शासन को भेजाI मैं इस योजना के क्रियान्वयन हेतु एक दिन भोपाल में चिकित्सा शिक्षा विभाग के अपर मुख्य सचिव इन्द्रनील शंकर दानी सर से मिलाI उन्होंने पर्याप्त समय दिया और सभी मेडिकल कॉलेजों को उसे क्रियान्वित करने के लिखित निर्देश दिएI यह फरवरी 2012 की बात हैI उस आदेश को लालफीताशाही समूचा निगल गई। फिर एक दो वर्ष बाद मैं तत्कालीन अपर मुख्य सचिव अजय तिर्की सर से मिलाI उन्होंने इस योजना के परिणामों का आकलन कर शून्य बजट के स्थान पर धन राशि भी आवण्टित की और सभी मेडिकल कॉलेजों को बजट के साथ उस योजना को क्रियान्वित करने के निर्देश दिए, मेरे इन्कार करने उपरान्त भी मुझे और एक सह प्राध्यापक को उसका प्रभारी बनाया गया। दुर्भाग्य देखिए कि विभागाध्यक्षों के अहंकार, हठधर्मिता और स्वयं को सुपीरियर एवं मठाधीश मानने की जिद ने अपर मुख्य सचिव के आदेश और बजट को निरर्थक सिद्ध कर दियाI तब समझ में आया कि भारत में ‘स्टेटस तथा व्यक्तिगत अहंकार’ तो अमर जड़ी खाकर आए हैं।

हताशा, निराशा और अंगरेजी माध्यम
एक सामान्य श्रेणी की छात्रा अपने अभिभावकों के साथ मैडम बोस से मिली, जो फिजियोलॉजी की हेड होने के साथ-साथ विद्यार्थी शाखा समिति की प्रमुख भी थी और मैं उनकी समिति का सदस्य। वे अपनी बेटी को कॉलेज से निकालना चाहते थे, और तत्काल ही कॉलेज लिविंग सर्टिफिकेट चाहते थे, क्योंकि वह अंगेरजी के कारण निराशा और हताशा की शिकार हो चुकी थी, आत्मविश्वास खो चुकी थी। तात्कालिक व्यस्तता के चलते मैडम ने उन्हें मेरे पास भेज दिया। मैंने बहुत समझाया, परन्तु तीनों अड़े रहे। मैंने उस छात्रा से यही कहा कि बेटी कठिन प्रतिस्पर्धा के बाद तेरा प्रदेश के सबसे अच्छे कॉलेज में एडमिशन हुआ है, इसका अर्थ यही है कि तू सर्वथा योग्य है। जब तेरे जैसे और तुझसे कमतर विद्यार्थी कॉलेज छोड़ने की नहीं सोच रहे हैं तो तू क्यों हताश होती है? वे किसी साइंस कॉलेज में एडमिशन की प्रक्रिया की औपचारिकता पूरी कर चुके थे, सीएलसी जमा करने की समयसीमा निकट थी। परन्तु मैंने उनसे स्पष्ट कह दिया कि आठ दिन बाद यदि इसकी यही मंशा रही तो मैं एक ही दिन में इसका काम करवा दूंगा। मैंने उससे स्पष्ट कह दिया कि बेटी तू आठ दिनों में सोच लें कि तुझे डॉक्टर बनने का सपना छोड़ देना चाहिए या नहीं छोड़ना चाहिएI तीनों मेरी इस हरकत को तानाशाही निरूपित करते हुए बहुत अप्रसन्न हुए, उनके अधिकारों पर मेरी मनमानी को अवैध बताया, उन्हें यह लग रहा था कि उसका साइंस कॉलेज का एडमिशन निरस्त हो जाएगा, तो मैंने उनसे कहा कि मैं निरस्त नहीं होने दूंगा, सम्बन्धितों से मैं चर्चा करूंगा। अत्यधिक क्रोध परन्तु असहाय भाव के साथ वे चले गएI कुछ दिनों बाद वह बिटिया चुपचाप कॉलेज आने लगी और वातावरण से समरस और सहज हो गईI और जब उसे फाइनल इयर में गायनी विषय में गोल्ड मैडल मिला तो मेरे कक्ष में आई और बोली सर, आपके आशीर्वाद से मुझे यह उपलब्धि हुई हैI ऐसे तमाम अनुभवों के आधार पर, मैंने एनएमसी को कई बार लिखा है कि न केवल फर्स्ट इयर के विद्यार्थियों के लिए बल्कि सभी के लिए सप्ताह में एक बार मेडिकल कॉलेज में ही मनोचिकित्सक और मनोविज्ञानी को बिठाया जाना चाहिए और स्टूडेंट वेलफेयर कमेटी वास्तविक रूप में अस्तित्व में होना चाहिए।

मैंने शोध प्रबन्ध हिन्दी में इसलिए प्रस्तुत किया
विभागीय परीक्षाओं में लिखें, हिन्दी माध्यम से आए बच्चों के उत्तर, स्पेलिंग और वाक्य रचना शिक्षकों के लिए उपहास का विषय हुआ करती थी, कई बार उन्हें क्लास में उत्तरपुस्तिका दिखाकर मखौल का शिकार भी बनाया जाता था। मुझे बुरा लगता था, क्योंकि मैंने पढ़ाते समय हमेशा स्वयं को विद्यार्थियों के बीच एक छात्र के रूप बैठें देखा है, तो मुझे लगता था कि यह मेरा ही अपमान है। एक वरिष्ठ साथी समझ जाते थे कि भण्डारी को बुरा लग रहा हैI तब अचानक एक दिन मस्तिष्क में विचार कौंधा और मैंने देशभर के समक्ष एक उदाहरण प्रस्तुत करने का सुनिश्चित किया। हिन्दी में भी चिकित्सा विज्ञान लिखा जा सकता है, यह सिद्ध करने के लिए अंगेरजी में तैयार हो चुकी अपनी शोध पांडुलिपियों के भाषान्तरण की ठान ली और इस तरह मैं मध्य प्रदेश का हिन्दी में अपने स्नातकोत्तर अध्ययन का शोध प्रबन्ध हिन्दी [1992] में प्रस्तुत करने वाला पहला चिकित्सक बना। उस दौर में मेरा बहुत मजाक बनाया जाता था, मेरे मनोबल को तोड़ने के भरसक प्रयास भी परोक्ष रूप से भी हुए। मुझे स्वामी विवेकानन्द का वह वाक्य स्मरण हो आता था कि दुनिया क्या कहेगी, हंसेगी, उसे हंसने दोI बस, मैं अपने निर्णय से डिगा नहीं। ईश्वर मेरे साथ थे, हिन्दी माता मेरे साथ खड़ी थी।

अंगरेजी माध्यम की अनिवार्यता से दुखी और निराश विद्यार्थियों के हितार्थ मांग तो यह उठाई जाना चाहिए थी कि हिन्दी माध्यम से आने वाले बच्चों को अंगरेजी के आतंक से आतंकित नहीं होने देंगे और उन्हें अंगरेजी का आवश्यक ज्ञान देने की मांग करेंगे। परन्तु आज तक किसी उपदेशक ने ऐसा नहीं किया, फेसबुक और अन्यान्य सभी माध्यमों पर हम हिन्दी माध्यम में चिकित्सा शिक्षा के शुभारम्भ पर प्रश्न तो उठा रहे हैं, परन्तु मूल समस्या का हमने अनुमान ही नहीं किया और समाधान का तो प्रश्न ही नहीं उठता हैI और तो और न तो सरकारी तंत्र ने, न ही शिक्षकों ने उन बच्चों के अंतस में झांकने का प्रयास नहीं कियाI और न ही मेडिकल कौंसिल ऑफ इण्डिया ने और न विश्वविद्यालयों ने।

सकारात्मक सोचिए, हिन्दी समर्थ भाषा है
हम सबको सकारात्मक सोचना चाहिए, बड़ा सोचना चाहिए, हिन्दी के परम वैभव की कल्पना कर तदर्थ रणनीति बनाने का दायित्व हम पर हैI हिन्दी आएगी, ज्ञानार्जन अधिक सरलता से और बेहतर होगा, ज्ञान अधिक क्षमता से आत्मसात होगाI हिन्दी भाषा से हमारे भावी चिकित्सकों में तर्क क्षमता, विश्लेषण क्षमता, निर्णय क्षमता, रोग निदान की श्रेष्ठता का आविर्भाव सहजता से होगाI आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के पिता के नाम से प्रसिद्ध डॉ. विलियम ओस्लर ने कहा था कि चिकित्सा पद्धतियों का आविष्कार एक मनुष्य की दूसरे मनुष्य की पीड़ाओं को हरने की संवेदना से भरपूर प्रबल इच्छा के कारण होता हैI बौद्धिक क्षमता का विकास अंगरेजी से ही हो सकेगा, यह भ्रान्त धारणा है, यह तो हर विद्यार्थी की अपनी नैसर्गिक सम्पदा होती है, जिसे थोपी जा रही अंगरेजी नष्ट कर दिया करती रही है।

अरे बाप रे ! स्वतन्त्रता के 75 वर्षों उपरान्त हिन्दी में पुस्तकें !
कल जब एल्सिवियर प्रकाशन की हिन्दी में तैयार पुस्तकों का विमोचन होने वाला था, तब किसी व्यक्ति ने अमेरिका स्थित मूल प्रकाशक को 30-40 हजार बच्चों की भीड़ और विशाल मंच और अन्य सभी आकर्षक तथा भव्य व्यवस्थाओं का वीडियो भेजा, तो उसने पूछा कि यह क्या हो रहा है, तो बताया गया कि पुस्तकों का लोकार्पण हो रहा हैI वह हतप्रभ था कि इतनी छोटी-सी बात के लिए कार्यक्रम की क्या आवश्यकता हैI तब उन्हें बताया गया कि भारत में स्वतन्त्रता के बाद पहली बार हिन्दी में चिकित्सा शिक्षा की पुस्तकें उपलब्ध होंगी और शिक्षा का माध्यम हिन्दी होने वाला है तो उन्हें घोर आश्चर्य हुआ कि क्या अभी तक चिकित्सा विज्ञान की पुस्तकें हिन्दी में नहीं थीI यह प्रतिष्ठित प्रकाशन चिकित्सा शिक्षा की पुस्तकें विश्व की 31 भाषाओं में उपलब्ध करवाता है और दुर्भाग्य देखिए कि उन 31 भाषाओं में विश्वगुरु भारत की कोई भी भाषा सम्मिलित नहीं है।

हिन्दी, श्रेष्ठ है और श्रेष्ठतम सिद्ध होगी, प्रतीक्षा तो कीजिए
मित्रो! 74 वर्षों तक अंगरेजी को आजमाया है, आने वाले पन्द्रह बीस सालों तक माता हिन्दी या भारतीय भाषाओं को भी आजमा लीजिए और लिखकर रख लीजिए कि विश्व के सबसे सम्पन्न एवं शक्तिशाली तथा अंगरेजी मातृभाषा वाले देशों के विद्यार्थी भारत में हिन्दी माध्यम के एमबीबीएस कोर्स और आयुर्वेद कोर्स में पढने आएंगे और हिन्दी विश्व के एकीकरण की भाषा होगीI डंके की चोट, मेरा यह दावा है, यह मेरा अनुमान हैI हिन्दी भाषा के पास 35 लाख शब्द हैं और अंगरेजी के पास 50 हजार शब्द ही हैं और हम तकनीकी शब्दों को जस का तस स्वीकार लेंगे या नए शब्द गढ़ लेंगे, नए शब्द गढ़ने का समय आ गया हैI

अनुदित पुस्तकों की गुणवत्ता की चिन्ता मत कीजिए
इन अनुदित पुस्तकों की क्वालिटी पर प्रश्न उठाए जाने लगे हैं, मुझे अच्छी तरह याद है, मैं साइकल सीखते समय पचीसों बार घुटनों को जख्मी कर चुका था, परन्तु घर के बड़ों ने यह नहीं कहा कि तेरी साइकल चलाने की क्वालिटी घटिया है और अब तू भूलकर भी साइकल को हाथ मत लगानाI कुछ दिनों बाद मैं बिना हैंडल पकड़े तीन किलोमीटर तक साइकल चलाने में निष्णात हो गया थाI ये पुस्तकें सुधार के अनेक दौर पार करते हुए, विश्व के कोने-कोने में पढी जाएंगी, इतनी मुझे आश्वस्ती है और आप सभी इस अतिशयोक्ति पूर्ण निराधार घोषणा को सत्यापित होते हुए देखेंगेI संक्रमण काल या शैशवावस्था को बीत जाने दीजिए, बच्चा पहले लुढकना सीखता, फिर घुटनों के बल चलना, फिर डगमगाते हुए खड़े होना, और फिर सहारे से चलना और फिर दौड़ना भी सीख ही लेता है।

हिन्दी माध्यम के चिकित्सकों की अंगरेजी भी श्रेष्ठ होगी
यह तथ्य भी बताना चाहता हूं कि भाषाविद, देश के प्रसिद्ध न्यूरोलॉजिस्ट, बेस्ट मेडिकल टीचर अवार्ड से अलंकृत पद्मश्री स्व.डॉ. अशोक पनगढ़िया ने लिखा था कि “जो व्यक्ति अपनी मातृभाषा में निष्णात होता है, वह दूसरी भाषा को सरलता से सीख सकता है।” नागपुर के धर्मपीठ विज्ञान महाविद्यालय के स्वर्ण जयन्ती समारोह पर भारतरत्न डॉ.एपीजे अब्दुल कलाम साहब ने शिक्षकों को सम्बोधित करते हुए कहा था कि “बच्चों को गणित और विज्ञान की शिक्षा मातृभाषा में दी जाना चाहिए इससे वे उस ज्ञान को समग्रता से आत्मसात कर सकेंगे और अंगरेजी तो वे बाद में पिकअप कर लेंगे, जैसे मैंने की है।”

हिन्दी में शिक्षित-दीक्षित चिकित्सकों की अंगरेजी की चिन्ता करने की आवश्यकता इसलिए भी नहीं है, क्योंकि पूरे साढ़े पांच वर्ष तक वे उन चिकित्सकों के शिष्य रहेंगे, जिनकी जिव्हा पर अंगरेजी सहज रूप से विराजमान है और डरने की आवश्यकता नहीं है, वे स्वत: भी प्रयास करेंगे ही, रिसर्च पेपर जर्नल्स में भेजेंगे तब भी अंगरेजी में ही तैयार करेंगेI अन्यथा रेपिडेक्स इंग्लिश क्लासेस हैं ही, महीनेभर में अमेरिका में भाषण देने योग्य हो जाएंगे।
Edited: By Navin Rangiyal

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