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मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
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प्यारा बचपन,निराले खेल [भाग 2] : बिना पैसे के मजेदार खेल-खिलौनों की रंगीन दुनिया

प्यारा बचपन,निराले खेल [भाग 2] : बिना पैसे के मजेदार खेल-खिलौनों की रंगीन दुनिया
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डॉ. छाया मंगल मिश्र

विश्वास है आप सभी अपने अपने घरों में स्वस्थ होंगे व कोरोना से बचने के सभी उपायों का इस्तेमाल कर रहे होंगे। बच्चे इन सभी बातों को अनबूझ पहेली की तरह देख, सुन, समझ रहे होंगे। वे न घबराएं इसलिए अपनी बचपन की पुरानी और उनके लिए नयी बातें करते हैं। बात खेलने व खेलों की कर रहे थे।

तो हम उस समय एक डोरी या मोटे धागे से भी कई खेल खेल लेते थे। अकेले भी और कोई साथी या साथियों के साथ भी। है न आश्चर्य की बात कि भला डोरी / मोटे धागों से कैसे खेल सकते है? तो उनसे हम एक लूप बना लेते, हाथों की कलाईयों में पहनने के बाद ऐसे-ऐसे ट्रिक होते उसमें जैसे की जादू हो। हावड़ा ब्रिज, मछली का पेट, मोती, हथकड़ी, रेल की पटरी और भी न जाने क्या क्या। मोर का पैर, अल्फाबेट्स, स्टार, एफिल टावर। कहा न, जो न हो वो थोडा। आज ये खेल ‘थ्रेड गेम’ के नाम से हैं। इनमें घंटों निकल जाते हैं।

साथ में उलझने-सुलझने से बचने के लिए दिमागी कसरत भी होती है। ऐसे ही डोरी के लूप में बटन पिरो लिया जाता, या उस लूप में दो से तीन इंच की छोटे आकार की कोई सख्त लकड़ी या गत्ता भी काट कर फंसा लेते फिर डोरी में दोनों और बल-बटे दे देते। इतने के बाद उन दोनों लूप के सिरों को अंगूठे या ऊंगलियों में डाल कर उन्हें दूर-पास करते जिससे उनके बलों में घुमाव पैदा होता तो अनंत समय तक आप इस क्रिया का आनंद उठाते। वो इतनी तेजी से घुमने लगते की उनकी वास्तविक छबि आंखों से ओझल होने लग जाती।
 
कुल्फी की व आइसक्रीम की डंडिया सम्हाल कर रखते। जिन्हें केन भी कहते हैं। उनके कड़क और नर्म हिस्सों को छील कर अलग-अलग कर के रखते फिर इन्हीं को जोड़-तोड़ कर खूबसूरत गांधी चश्मा, बैल गाड़ी, फिरकी, मोर, पवन चक्की और भी जो आप चाहें जो आपकी कल्पना में आ रहा हो और आप बना सकते हों। वो मटेरियल सॉफ्ट होता, जिसमें कड़क वाला ऊपरी हिस्सा जो हमने छील कर रखा हुआ रहता वो लम्बी पतली काड़ियां होतीं।

जो आपस में जॉइंट करने के काम आते। इसमें कहीं भी कभी भी किसी और चीज की जरुरत महसूस नहीं होती। ज्यादा से ज्यादा मजबूती के लिए आप छोटी सी आलपिन का उपयोग कर सकते थे। पर हम उचित नहीं समझते क्योंकि उसके लगने से चुभ जाने का डर होता फिर टिटनस का इंजेक्शन का खौफ।हम बच्चे सुई लगने से बहुत डरते थे।
 
पुरानी सेल, माचिस के डिब्बियां, पुराने डब्बे या ऐसी ही मिलती-जुलतीं चीजों से रेलगाड़ी बना लेते। ज्यादा हुनरमंद तो इनमें छोटे ढक्कन या कोल्डड्रिंक की झब्बियों के पहियें भी लगा देते। पुराने दीपकों, डब्बों, झब्बियों के तो मंजीरे और तराजू बनाना प्रिय शगल थे। यहां ये बताना जरुरी है की पहले हर घर में कारपेंटरी का जरुरी सामान मौजूद रहता था। ऐसे ही इलेक्ट्रिक, आवश्यक मरम्मत के लिए जरुरी यंत्र-संयंत्र का सामान भी। बात-बात पर किसी सुधारक का मुंह नहीं देखा जाता था। काफी कुछ घरों में ही सुधार-जुगाड़ हो जाया करता था। इसीलिए छोटे छोटे कलपुर्जे, सामान आसानी से उपलब्ध हो जाया करते थे।
 
यही नहीं हम माचिस की खाली डब्बियों से डमरू, बन्दूक, फोन, झुन झुना आदि बनाया करते थे। बड़े आसान हैं पर मजा असीमित। सिगरेट की डिब्बियों का भी इस्तेमाल कर सकते हैं। हम लोगों का समूह होता था सो हम इनके सुंदर सुंदर आकार प्रकार के शो पिसेस भी बना लिया करते। इन डिब्बों/माचिस के उप्पर के हिस्सों को अलग कर के ताश की गड्डी सी बना लेते। घर में ही किसी जगह एक बड़ा गोला बना कर सेंटर में पत्ते रख कर उन्हें किसी चपटी सी हथेली बराबर वस्तु से गोले से बाहर निकालना होता। हर ऊपरी हिस्से की अलग-अलग वेल्यु होती। खेलने के नियम अपने तरीकों से निर्धारित किये जाते।बस माचिस-बक्से का कलेक्शन होना चाहिए। ऐसे ही कंचों को भी खेला जाता। अंटी, कांच के रंगीन खूबसूरत कंचे। हर आकार, हर रंग के। अलग अलग नामों के साथ। अलग-अलग खेलों की तकनीक के साथ। एकाग्रता को बढ़ाने और लक्ष्य भेदने के लिए परफेक्ट खेल। पर अब घरों में लाईटर हैं। कंचे खेलने की फुर्सत नहीं। सभी आउट ऑफ फैशन हो चले हैं। यहां एक और खेल है जिसके बिना खेल जीवन अधूरा है।भंवरा, लट्टू। लकड़ी के रंगीन इन भवरों ने हर किसी का दिल जीत रखा था।
 
 ये रंगीन रंगीन भंवरे जब नुकीली कील पर झूम के नाचते थे तो दिल दीवाना सा हो जाता। जब उस पर कस के जाल (वो डोरी जिसे लट्टू के ऊपरी हिस्से से लूप डाल कर निचले हिस्से से गोल घूमाते हुए वापिस ऊपर की ओर लाते हैं) जो गोल नाड़ी की भी हो सकती है लपेटते और हवा में लहराते हुए बड़ी अदा से जब हवा में ही हथेली पर उस तेज घूमते हुए लट्टू को ले लेते तो अपने आप को विश्व विजेता समझते। क्योंकि घुमते तेज नुकीली कील वाले लट्टू को हवा से ही हाथों में रोक कर जब तक वो घूमता रहे तक उतनी जगह पर उसे बिना रोके घूमने की सुविधा देना बड़ी कुशलता का काम होता था। इसे उड़ान जाल कहा जाता। हर किसी के बस की बात नहीं होती। दुर्घटना की सम्भावनाएं भी होतीं। नजर हटी-दुर्घटना घटी। 
 
इनके भी तरह तरह के खेल इजाद होते। भिट्टियां लड़ावनी, गोले में घूमावनी और भी न जाने क्या क्या। हम बच्चे मन के राजा और खेलों के बादशाह हुआ करते थे। हम खुद के लिए खेलते , खुद अपने खेल बनाते। खेल तो आनंद देने के लिए होते हैं। तनाव बढ़ाने के लिये नहीं।इन्हीं में एक और खेल होता जिसे लिंगड़-लड़ावनी कहते। मजबूत धागे या मंजे में एक छोर पर छोटा पत्थर बांध लिया जाता। जिसे पैर के अंगूठे में फंसा लिया जाता और दूसरा सिरा हाथ में पकड़ा होता। दो या ज्यादा सदस्य भी इसे आराम से खेल सकते हैं। सारे लोग अपने लिंगड़ों को आपस में उलझा सा लेते फिर पैर के अगूठे और ऊंगली के बीच वो पत्थर जोर से दबा कर के हाथों से ढील-खींच के पतंग उड़ाने के दांव-पेंच के समान धागे काटने होते। जिसकी डोरी कट गई वो हारा, जिसकी डोरी से कटा वो सिकंदर। ज्यादा खिलाड़ी होने पर ये खेल आखिरी डोरी के कटने तक चलता।
 
ऐसे ही एक रंगीन खेल हुआ करता है साबुन के पानी से बुलबुले बना कर उड़ाना। एक भाग तरल साबुन में चौथा भाग ग्लिसरीन मिला कर द्रव्य तैयार किया जाता। पतले धातु के तार को आगे से गोलाई में घुमा लिया जाता। उस गोल हिस्से को साबुन के पानी में डूबा कर धीरे-धीरे उस गोल हिस्से में जमी, साबुन की पारदर्शी उस परत के बीच में फूंकते जिससे कई सारे बुलबुले एक के पीछे एक इतराते हुए, रंग-बिरंगे मन मोहते हमारे दिल को अपार खुशी देते। उन्हें पकड़ने-फोड़ने का अलग ही अपना मजा होता।
 
मिटटी के खिलौने बनाना भी व्यस्ततम खेलों में से एक है। अपने आप में कल्पना के बादलों पर सवार हो जैसे चाहो वैसे मनमाना संसार रच सकते है। मिट्टी के सेठ-सेठानी, गुड्डा-गुड्डी, घरगुल्ले से लेकर सारी गृहस्थी का सामान, पशु-पक्षी, फूल-पौधे, नदी-पहाड़, झाड़-झंकड़ क्या नहीं बना सकते? घंटों अपनी दुनिया सजाएं और रंग भर दें उनके सूख जाने पर। वैसे रेती से घर बनाना तो सभी को याद होगा न? बाजार से रंग न मिलें तो घर में मौजूद प्राकृतिक रंगों का सहारा ले सकते हैं। देखिये बच्चों की रचनात्मकता व सृजनशीलता कितनी कोमल होती है। वे इसी बहाने अपनी मिट्टी से जुड़ाव भी महसूस करते हैं।
 
समय बड़ा कठिन है उससे भी बड़ा कठिन है बालक वृन्द को सम्हालना।उन पर किसी प्रकार के खौफ की परछाई न पड़े। इसलिए उन्हें व्यस्त रखें, मस्त रखें। अपने समय को दोहराएं, एक बार फिर याद करें अपने बीते दिनों को और विरासत में सौंप दें इन नन्हों को अपने देशी बिना खर्च के कबाड़ से जुगाड़ में बने खेल-खिलौने जिनकी कोई कीमत नहीं पर ये अमूल्य हैं। घर में रहें, सुरखित रहें, स्वस्थ रहें। फिर मिलेंगे ऐसे ही और आनंदित कर देने वाले मजेदार खेल-खिलौनों के साथ जल्द ही....

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