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भारतीय नारी के उत्पीड़न और उनके समाधान

सपना सीपी साहू 'स्वप्निल'
भारतवर्ष में जहाँ प्राचीनकाल से ही नारी को पूजने की परंपरा बलवती रही, वहीं मध्यकाल व आधुनिक काल में विदेशी आक्रांताओं के चलते धीरे-धीरे जो परिवर्तन आए वो नारी जाति पर बंदिशों के साथ उत्पीड़न बन गए। क्योंकि कई कुप्रथाएं बलवती हुई। नारी जाति को कुप्रथाओं के नाम पर उन असमानता के गहन दल-दल में धकेल दिया गया, जिनका प्राचीनकाल में कभी कहीं उल्लेख तक नहीं मिलता। 
 
नारियों की ज्वलंत समस्याएं धीरे-धीरे विकराल शोषण, अधिकारों का हनन बन गई। जबकि नारी ही तो साधारण हो या असाधारण, पुरुष हो या महापुरुष, संत हो या ऋषिगण प्रत्येक मानव की जननी होती है। पर पुरुष वर्चस्व व उनकी आन-बान-शान के झूठे प्रपंचों के चलते स्त्री जाति जो माँ, बहन, बेटी, अर्धांगिनी, कोमलांगी होती है वे कन्या भ्रुण हत्या, बालविवाह, दहेजप्रथा, वैधव्य से देव दासी प्रथा और सती प्रथा, बलात्कार, अनाचार, पुत्र प्राप्ति हेतु उत्तरदायी होने का दोषारोपण, रूढ़िवादी परंपराएं, यौन शोषण, पशुवत व्यवहार, डायन-चुडै़ल प्रथा, घरेलू हिंसा, अत्याचार, भगाकर ले जाना, अपहरण करना, बलात वेश्यावृति, यौन इच्छाओं की पूर्ति के लिए छेड़छाड़, प्रणय निवेदन अस्वीकार करने पर तेजाब फेंकना, तरह-तरह के शारीरिक शोषण के अलावा अपशब्दों से मानसिक प्रताड़ना करना, शिक्षा व ज्ञान कौशल से वंचित रखना, अनैतिक व्यवहार करना, पर्दाप्रथा/हिजाब प्रथा, घरेलू बंदनी बनाना, मासिक चक्र के समय छुआछूत करना, जबर्दस्ती व बेमेल विवाह करना, जीवनसाथी के चुनाव पर प्रतिबंध लगाना, सुंदरता पर अश्लील, तो कुरूपता पर असम्मानित फबतियाँ कसना, कमजोर महिलाओं पर स्वामित्व के लिए दवाब बनाना, नारी के ऊपर दवाब बनाते हुए प्रश्नचिन्ह खडे़ करना, तनावपूर्ण व अभावग्रस्त जीवन जीने पर मजबूर करने जैसे कई उत्पीड़न घरेलू, पारिवारिक, सामाजिक तो कई बार राष्ट्रीय स्तर पर भी दृष्टिगोचर होते रहे है।
 
हालाँकि धीरे-धीरे इन कुप्रथाओं को दूर करने और रोकने के लिए कई समाज सुधारक व सुधारिकाओं, अनेक पथप्रदर्शकों ने अपनी आवाज़ बुलंद की, जिसके प्रभाव से समाज के उच्च वर्ग में ठीकठाक, मध्यम वर्ग में औसत और नीचले तबके में अपेक्षा से कम परिवर्तन भी दृष्टिगोचर होते है। जिसके लिए हर तबके में विभिन्न प्रकार के निरंतर प्रयासों की आज भी आवश्यकता बनी हुई है। 
भारत में वर्तमान समय में नारी उत्पीड़न के प्रति घंटे के अनुरूप लगभग 49 मामले दर्ज होते है। इस तरह यह स्थिति भयावह है। हमारे देश की आधी आबादी, वे पूरी तरह से अब भी सामाजिक सम्मान, शक्ति संपन्नता, सम्पत्ति की समान अधिकारिणी व आर्थिक रूप से स्वतंत्रता, राजनैतिक दृष्टि से सुदृढ़ता, भौगोलिक परिवेश को लेकर उदारता की भागीदार नहीं बन पाई है। 
 
इसलिए ही, नारी उत्पीड़न के समाधान हम सबको मिलकर घरेलू स्तर से प्रारंभ करते हुए, सामाजिक व राष्ट्रीय स्तर पर करते रहने होंगे। जहाँ बेटी के जन्म को बोझ समझते हुए लिंग परीक्षण को पूरी तरह रोकना होगा। हालाँकि यह कानूनी अपराध बन चुका है पर जालसाजी के चलते भीतर ही भीतर ऐसे घृणित कार्य आज भी हो ही रहे है। घरेलू स्तर से ही बालक-बालिका में भेद पर अंकुश लगाना जिसमें घर-बाहर के काम दोनों को एक समान रूप से सौंपना, अनुशासन, श्रद्धाभाव व संस्कार रोपित करना आवश्यक है। सबसे श्रेष्ठ समाधान समान शिक्षा व्यवस्था से ही संभव है। बालिकाओं हेतु रोजगान्मुखी शिक्षा को जरूरी बनाना ताकि वे पढ़ने लिखने के साथ आर्थिक रूप से सक्षम बन सकें। इसी के साथ समान खानपान, समान मनोवृति व व्यवहार करना सिखाना जैसे प्रयोग भी सम्मिलित करने चाहिए।बाल्यावस्था से ही बालकों को बालिकाओं से मारपीट पर रोक लगाना, घरेलू स्तर पर होने वाले यौन शोषण को बालिकाओं को उजागर करना सिखाना जरूरी है। 
 
इसके अतिरिक्त संयुक्त परिवार हो या एकल सम भावना के बीजारोपण अर्थात् नारी जीवन में आने वाली शारीरिक समस्याओं को बालकों को प्रारंभ से समझाना, नारी जाति के प्रति आदर और दयाभाव रखना, मन से पुरुष अहं के भावों को संतुलित करना। विद्यालयीन स्तर से ही समान प्रायोगिक, व्यवहारिक, खेलकूद, कसरत, योगाभ्यास आदि का समान प्रशिक्षण देना आवश्यक है। बालिकाओं को आत्मरक्षा के गुण भी सिखाना उतना ही जरूरी है जितना घरेलू कार्य। 
 
इसके अतिरिक्त समाज में जब भी बालविवाह, दहेज प्रथा, छेड़छाड़ आदि जैसे उपरोक्त उत्पीड़न देखने को मिले तो नारी जाति को दबाकर बैठाने की अपेक्षा खुलकर और साथ मिलकर जिस तरह बचपन से बच्चियों को कर्तव्यबोध करवाते है वैसे ही अधिकारों से अवगत करवाकर कानून की शरण दिलवाना, इसके अतिरिक्त उचित-अनुचित का फर्क करना, गलत हरकतें होने पर बच्चियों से गलत, दोषारोपण पूर्ण व्यवहार करने की जगह उनसे प्रेमपूर्ण व मित्रवत व्यवहार करना उचित है ताकि उनके साथ गलत हरकतें होने पर वे बैखोफ होकर दरिन्दों को सबके समक्ष उजागर कर पाए। 
 
नारियों को हमें दहेज के लोभियों के लिए समझाना होगा कि विवाह तो इंसान देखकर किया है, पर पशु निकलने पर उनके लिए मायके का घर-आंगन सदा खुला रहेगा। ऐसे लोगों पर मिलकर सामाजिक दवाब भी बनाया जाना चाहिए।
एक कारण, उत्पीड़न का ओर भी है जो संचार माध्यमों से बढ़ रहा है। 
 
एक ओर बात अत्यधिक आधुनिकता, अश्लीलता जिससे नारियों की छवि गलत बनती है। इसके चलते लिव इन रिलेशनशिप, प्यार-मोहब्बत के मोहपाश बढ़े है। हमें इन सबकी हानि, अपरिपक्व उम्र में होने से हानि, नारियों की बूरी छवि को दर्शाने वालों, उनके प्रति गलत संदेश प्रसारित करने वालों का एक स्वर में विरोध करना होगा। देखने में आया है कि बलात्कार व यौन अपराधों में लिप्त 85% पुरुष गलत संचार माध्यमों से उत्तेजित होकर ही निदंनीय कदम उठाते है। इस प्रकार इनके नियंत्रित होने से भी, उत्पीड़न कम करने की दिशा में प्रशंसनीय कदम बढे़गा। 
 
एक जरूरी कार्य यह भी है कि नारियों की पीड़ाओं में, उचित और अविलंब न्याय व्यवस्था को भी संविधान के अनुरूप अधिक सुधार की आवश्यकता है, क्योंकि लंबी सुनवाई में ही कई छोटे-छोटे अपराधों की सजा लंबित रह जाती है। जिससे ऐसे अपराधों के अपराधियों के प्रति भय कम रहता है। कानून में कड़ी, शीघ्र और उचित सजा के प्रावधानों की व्यवस्था भी नारी उत्पीड़न को पैर पसारने से रोकेगा। 
 
एक बात सदैव स्मरण रखें कि सरकार हर बात के लिए दोषी नहीं होती पर जब भी महिला उत्पीड़न से संबंधित समस्याएं आए तो समाज को एक स्वर में भर्त्सना करना नितांत आवश्यक है। सरकार स्त्री समानता हेतु बेटी पढ़ाओं, बेटी बढ़ाओं, विवाह की आयु 21वर्ष आदि जैसी कई योजनाएं ला सकती है, पर योजनाओं का सही क्रियान्वयन करना आमजन के हाथ ही है। इस तरह ये छोटे-छोटे किन्तु सराहनीय कदम निरंतर बढ़ते रहे तो नारी उत्पीड़न जैसा शब्द ही शब्दकोश में शेष नहीं रहेगा। चहुँओर होगा शिक्षित, समानता, सम्प्रभुता, सहयोग, स्नेहभाव से उल्लासित-उमंगित गृह, समाज व राष्ट्र।  
  
सपना सी.पी. साहू "स्वप्निल"
इंदौर (म.प्र.)

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