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मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
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यंत्रों के गुलाम होते हम और उलझती भारतीय संस्कृति

यंत्रों के गुलाम होते हम और उलझती भारतीय संस्कृति
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पं. हेमन्त रिछारिया

आज जब फुर्सत के क्षणों में मैंने अपना स्मार्टफोन देखा तो सहसा चौंक उठा। उसमें तरह-तरह के 'एप' की भरमार देखकर एक पल तो प्रश्न उठा कि क्या ये सारे 'एप' मैंने ही इंस्टाल किए हैं? प्रतिउत्तर जब 'हां' में मिला तो मैं सोचने पर विवश हो गया। खरीददारी के लिए 'एप', खाना मंगवाने के लिए 'एप', आवागमन के लिए 'एप', शादी-विवाह तक के लिए वेडिंग प्लानर्स के 'एप' आज उपलब्ध हैं। 
 
आज हमारी जिंदगी शनै:-शनै: यंत्रवत होती जा रही है और हमें इसका तनिक भी आभास नहीं है। जिंदगी में यंत्र का उपयोग हो यह उचित है किंतु यदि यंत्र ही जिंदगी का केंद्र बन जाए तो यह समाज व संस्कृति के लिए एक गंभीर खतरा है। वर्तमान दौर में व्यक्ति की इन यंत्रों पर निर्भरता दिन-ब-दिन बढ़ती ही जा रही है।
 
आज मोबाइल ने कब यंत्र के स्थान पर परिवार में केंद्रीय भूमिका ले ली, हमें पता ही नहीं। हम आज यंत्रों पर अधिक निर्भर हैं और पारिवारिक सदस्यों व रिश्तों-नातों पर कम। हो सकता है कि आज आपको इसमें कुछ भी अनुचित न लगे किंतु भविष्य में इसके गंभीर परिणाम होने वाले हैं।
 
प्राचीनकाल में वस्तु-विनियम का प्रचलन था। एक वस्तु के बदले में दूसरी वस्तु देकर अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति की जाती थी। आज वस्तु-विनिमय का स्थान मुद्रा प्रणाली ने ले लिया है। पहले अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए व्यक्ति वस्तु-विनिमय के लिए उत्पादन पर अधिक ध्यान देता था किंतु आज मुद्रा प्रणाली की वजह से धनार्जन पर।
 
इसका असर हमारे समाज व संस्कृति पर यह हुआ कि येन-केन-प्रकारेण धन अर्जित करना ही व्यक्ति का परम लक्ष्य बनकर रह गया और धनार्जन के लिए वह उचित-अनुचित का विचार किए बिना हर उस कर्म को करने में उत्सुक हो उठा है जिससे कि उसे धन प्राप्त हो सके।
 
प्राचीन समय में जीवन-यापन करने के लिए पारस्परिक निर्भरता बहुत आवश्यक होती थी। घर में मांगलिक प्रसंग हो या कोई आपदा की घड़ी, व्यक्ति सामाजिक समरसता एवं पारस्परिक निर्भरता से ही अपना निर्वाह करता था। इस पारस्परिक निर्भरता का असर यह होता था कि समाज में व्यक्तियों के प्रति परस्पर प्रेम व सौहार्द की भावना होती थी। यह आपसी निर्भरता सामाजिक ताने-बाने का मुख्य आधार थी।
 
आज के दौर में यंत्रों व धन पर निर्भरता से यह सामाजिक तान-बाना दरक रहा है। आज समीप बैठे दो व्यक्ति भी आपस में वार्तालाप करने में उत्सुक होने की अपेक्षा अपने-अपने मोबाइल (यंत्र) में व्यस्त दिखाई देते हैं। आज सामाजिक प्रसंगों में उपस्थिति महज औपचारिकता व रस्म-अदायगी बनकर रह गई है।
 
विवाह के लिए जहां प्राचीन समय में अत्यंत आत्मीयता के साथ पीले चावल देकर स्नेहपूर्वक निमंत्रण दिया जाता था, आज 'वॉट्सएप' पर निमंत्रण पत्रिका भेजकर 'इतिश्री' कर दी जाती है। आत्मनिर्भर होना अच्छी बात है किंतु एकाकी होना व्यक्ति व समष्टि दोनों ही के लिए हानिकारक है।
 
आज व्यक्ति आत्मनिर्भर होने के फेर में एकाकी होता जा रहा है। आज माता-पिता के पास अपने बच्चों के लिए समय ही नहीं है। पहले ही आज के दौर का जीवन व्यस्तताओंभरा है। फिर जो थोड़ा-बहुत समय बचा, वह इन यंत्रों के उपयोग में खप गया, वहीं बच्चों का भी यही हाल है। आज छोटे-छोटे बच्चों के हाथों में मोबाइल व इंटरनेट उनके बौद्धिक विकास को बाधित कर रहे हैं।
 
आज टीवी चैनलों के माध्यम से जिस प्रकार के कार्यक्रम प्रसारित किए जाते हैं, उनकी विषयवस्तु व प्रस्तुतीकरण देखकर ऐसा तो कतई प्रतीत नहीं होता कि वे सामाजिक उत्थान या बौद्धिक विकास में सहायक होंगे।
 
आज तकनीकों के अनुचित प्रयोग से जुर्म में भी निरंतर वृद्धि होती जा रही है फिर जुर्म को रोकने के लिए कानून-पे-कानून बनते जा रहे हैं जिनमें इन तकनीकों के प्रयोग को संकुचित करने की वकालत की जाती है अर्थात पहले विष की बेल को सींचना और जब वह फल-फूल जाए तो उसे काटना- यह एक दुष्चक्र है। आज यह यंत्र व तकनीक धीमे जहर की भांति हमारी समाज में फैल रही है, जो हमारे समाज के लिए हानिकारक है। तकनीक यदि गलत हाथों में पहुंच जाए, तो लाभ के स्थान पर हानि ही होती है।
 
मैं कोई विकास या उन्नत तकनीकों का विरोधी नहीं हूं किंतु मेरा इतना आग्रह अवश्य है कि किसी भी यंत्र व तकनीक को देश में प्रचार-प्रसार की खुली छूट मिलने से पूर्व हमें उस तकनीक का उपयोग करने वालों की बौद्धिक क्षमताओं का आकलन जरूर कर लेना चाहिए।
 
इन यंत्रों व तकनीकों के लाभ से इनकार नहीं किया जा सकता किंतु इनसे लाभ तभी हैं, जब इनका उपयोग पूर्ण विवेक के साथ किया जाए अन्यथा ये यंत्र व ये तकनीकें हमारे समाज व संस्कृति को अपूरणीय क्षति पहुंचा सकते हैं।
 
-ज्योतिर्विद् पं. हेमन्त रिछारिया
संपर्क : astropoint_hbd@yahoo.com

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