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World against terrorism: काबुल हमले के भयावह निहितार्थ

अवधेश कुमार
अफगानिस्तान की राजधानी काबुल पर हुए बम धमाकों ने पूरी दुनिया को कुछ स्पष्ट संदेश दिया है। आरंभ में केवल दो धमाकों और 13 -14 लोगों के मारे जाने की खबरें आ रही थीं। हालांकी यह अंदेशा था कि धमाके भी ज्यादा हो सकते हैं और मृतकों की संख्या भी। कम से कम सात धमाके हुए और 170 से ज्यादा लोगों के मारे जाने तथा 1400 के आसपास के घायल होने की खबरहै। भारी संख्या में घायलों की स्थिति खराब है।

वहां अस्पतालों का संचालन करने वाली इटली की एक संस्था के प्रबंधक मार्को पुनतिन ने आरंभ में ही कहा था कि हमले में घायल 60 लोगों का उपचार किया जा रहा है, जबकि 10 घायल ऐसे थे, जिन्होंने अस्पताल लाने के दौरान ही दम तोड़ दिया। अभी तक इतना साफ है कि इन धमाकों में 12 अमेरिकी नौसैनिक और एक नौसेना का चिकित्साकर्मी मारा गया। अमेरिकी अधिकारी ही यह कहते सुने गए कि अमेरिकी सेना के 60 से अधिक जवान घायल हुए हैं और इनकी संख्या बढ़ सकती है।

जाहिर है, अमेरिका के लिए यह सीधी चुनौती है तथा संपूर्ण दुनिया के लिए चेतावनी। अफगानिस्तान और तालिबान को लेकर के नए सिरे से खुलकर विचार विमर्श करने तथा रणनीति बनाने की आवश्यकता अगर विश्व समुदाय महसूस नहीं करता तो यह दुर्भाग्यपूर्ण होगा।

इस हमले का सबसे चिंताजनक पहलू यह है कि अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों ने पहले ही चेतावनी दे दी थी कि आईएस काबुल हवाई अड्डे पर हमला कर सकता है। इन्होंने अपने नागरिकों को काबुल हवाई अड्डे पर न जाने के प्रति अलर्ट भी जारी कर दिया। बावजूद इसके हमला कैसे हो गया? अमेरिका और नाटो देशों को यह भी पता था कि पिछले दिनों ही तालिबान ने आईएस के चार आतंकवादियों को पकड़ा था। उनका क्या हुआ किसी को नहीं पता। संभव है उनका काम तमाम कर दिया गया हो। आम खबर ये थी कि काबुल हवाई अड्डे पर जाने के लिए अब कई स्तर की सुरक्षा व्यवस्था की गई है। फिर आत्मघाती बम विस्फोटक और बंदूक लिए आतंकवादी कैसे वहां तक पहुंच गया?

ब्रिटेन के विदेश मंत्री ने तो कहा कि उनके पास पहले से लिखित बयान मौजूद था कि आईएस का हमला होगा और क्या बोलना है। यह ऐसी स्थिति है जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती थी। विश्वभर में जो देश आतंकवाद से पीड़ित हैं या आतंकवादियों के रडार पर हैं या जो आतंकवाद का अंत करना चाहते हैं वे विचार करें कि पूर्व चेतावनी और जानकारी रहते हुए भी बड़े देश अगर उनके खिलाफ पुख्ता सुरक्षा व्यवस्था नहीं कर सकते तो फिर क्या होगा?

अमेरिकी राष्ट्रपति जो बिडेन को गुस्सा आना स्वाभाविक है। उन्होंने चेतावनी देते हुए यह तो कह दिया है कि हम माफ नहीं करेंगे। हम नहीं भूलेंगे। हम चुन-चुन कर तुमको मारेंगे। आपको इसका अंजाम भुगतना ही होगा। किंतु वे करेंगे क्या इसके संदर्भ में कोई स्पष्ट संकेत नहीं दिया है। वे यह भी कह रहे हैं कि काबुल हवाई अड्डे पर हुए हमलों में तालिबान और इस्लामिक स्टेट के बीच मिलीभगत का अब तक कोई सबूत नहीं मिला है। इसका मतलब क्या है? उनकी घोषणा यह भी है कि हम अफगानिस्तान में अमेरिकी नागरिकों को बचाएंगे तथा अफगान सहयोगियों को बाहर निकालेंगे और हमारा मिशन जारी रहेगा।

अमेरिका पूरी तरह वापसी के निर्णय पर कायम है तथा अभी उसका उद्देश्य केवल अपने नागरिकों तथा सहयोगियों को वहां से बाहर निकालना है। उनके बयान का अर्थ यह भी है कि वे तालिबान के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं करने जा रहे हैं। आईएसआईएस खुरासान समूह ने इस हमले की जिम्मेदारी स्वीकार की है और तत्काल इसे नकारने का कोई कारण नहीं है। आईएएस और तालिबान के बीच हिंसक संघर्ष चल रहा है। हम सामान्यतया मान कर चलते हैं कि वैश्विक जेहादी आतंकवाद के विश्व स्तर पर और अलग-अलग देशों में जितने समूह हैं उन सबकी विचारधारा एक होगी। यह सही नहीं है।

एक समय अलकायदा विश्वभर के आतंकवादियों के लिए मुख्य प्रेरणा का स्रोत था भले वे उससे प्रत्यक्ष जुड़े हों या नहीं। उसी अलकायदा के अंदर से विद्रोह करके अल बगदादी निकला और उसने आईएस की स्थापना की। धीरे-धीरे अलकायदा कमजोर हुआ और जिहादी मानसिकता के लोग आईएसआईएस से जुड़ने लगे। अलकायदा हाशिए पर गया आईएसआईएस मुख्य संगठन बना।

आतंकवादी समूहों के बीच व्यापक मतभेद व शत्रुता का इससे बड़ा उदाहरण कुछ नहीं हो सकता। इराक में आतंकवादी समूह ने एक दूसरे के विरुद्ध भी हमला किया है। अफगानिस्तान तो इनका सबसे भयंकर उदाहरण बना है। तालिबान और इस्लामिक स्टेट एक ओर अमेरिका और नाटो के साथ अफगान सेना के विरुद्ध आतंकवादी हमले करते रहे तो एक दूसरे के विरुद्ध भी। आईएस वैश्विक स्तर पर इस्लामिक साम्राज्य यानी खलीफा का शासन स्थापित करना चाहता है, अलकायदा का भी यही लक्ष्य था और तालिबान उसके समर्थक थे। तालिबान की गतिविधि अफगानिस्तान और पाकिस्तान तक ही सीमित रही। तालिबान ने अपना केंद्र बिंदु अफगानिस्तान को ही बनाया और अमेरिका के साथ समझौता कर लिया।

इस कारण आईएस ही नहीं, विश्वभर के अनेक जेहादी समूह तालिबान के विरुद्ध हैं। उनका मानना है कि तालिबान ने ओसामा बिन लादेन और उसके जैसे दूसरे जिहादी नेताओं के विचारों को तिलांजलि दे दिया है। वैश्विक जिहादी आतंकवाद का यह ऐसा पहलू है जिस पर अगर सही परिपेक्ष में विचार नहीं किया जाए तो कोई देश उपयुक्त नीति निर्धारित नहीं कर सकता। आने वाले समय में अफगानिस्तान में कुछ और समूह भी तालिबान के विरुद्ध हिंसक सक्रियता दिखा सकते हैं।

दुर्भाग्य से इस समय अफगानिस्तान में तालिबान के हिंसक आधिपत्य को लेकर विश्व में जिस तरह का मतभेद है वैसा ही मतभेद आतंकवादी समूहों को लेकर भी रहा है। रूस खुलेआम तालिबान के साथ काम करने की इच्छा जता चुका है, बातचीत कर रहा है। चीन ने तो उनके प्रतिनिधिमंडल को पहले बीजिंग बुलाया, चीनी प्रतिनिधिमंडल काबुल गया। बड़ी शक्तियों के बीच यही मतभेद आतंकवादी समूहों का हौसला अफजाई करने वाला है।

सीरिया और इराक में अमेरिका, रूस, चीन जैसे देशों का आपसी मतभेद आईएस के खात्मे में बहुत बड़ी बाधा रहा है। यही स्थिति अफगानिस्तान और पाकिस्तान को लेकर भी है। अमेरिकी राष्ट्रपति जो बिडेन भले अपने जवानों की मृत्यु पर आंसू बहाए, पूरी दुनिया में अमेरिकी ठिकानों के झंडे झुकाने का ऐलान करें, सच यही है कि वर्तमान भयावह स्थिति के लिए तत्काल कोई एक देश और व्यक्ति जिम्मेदार है तो अमेरिका और जो बिडेन। तालिबान से बातचीत करने की पहल अमेरिका ने की, समझौता उसने किया और जो बिडेन ने बिना गंभीरता से विचार किए, अफगान सेना के बैकअप यानी रणनीतिक मार्गदर्शन और आवश्यक सामग्रियों की आपूर्ति की व्यवस्था के संदर्भ में आत्मनिर्भर बनाए एकाएक वापस आना आरंभ कर दिया।

इस कदम ने 20 वर्षों के युद्ध को निष्फल कर दिया। मजहबी हिंसा वाले आतंकवादी समूह को आप मान्यता देंगे तो दूसरे आतंकवादी समूह उसके विरुद्ध खड़े वैसे भी होंगे। दूसरे आतंकवादी समूहों को यह भी संदेश मिलेगा कि अमेरिका अब हमसे लड़ना नहीं चाहता इसलिए जैसे चाहो हिंसा करो। हैरत की बात है कि अमेरिका को यह भी पता है कि सारे आतंकवादी समूह उसके जानी दुश्मन हैं, फिर भी उसने विशेष सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए न तो कोई अंतरराष्ट्रीय बैठक बुलाई न नाटो के देशों के साथ मिलकर प्रबंध ही किया।

इस हमले के बाद भी जो बिडेन के नेतृत्व वाला अमेरिकी प्रशासन इस दिशा में कदम उठाना तो छोड़िए विचार करने के लिए भी तैयार नहीं है। हालांकि अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन का बयान है कि अमेरिका इस दिशा में विचार कर रहा है कि काबुल हवाई अड्डे की सुरक्षा कैसे सुनिश्चित की जाए ताकि 31 अगस्त के बाद भी वहां से कोई निकलना चाहे तो सुरक्षित निकल सके, दूसरे देशों के जहाजों का आवागमन हो सके। जब आपके सैनिक वापस ही आ जाएंगे, अफगान सेना ने हथियार डाल दिया है तो यह व्यवस्था किसके जिम्मे होगी? अफगानिस्तान में नए आंतरिक और आपसी जिहादी युद्ध की यह नये सिरे से शुरुआत है।

आगे इससे भी भीषण संघर्ष देखने को मिलेगा और यह अफगानिस्तान तक सीमित नहीं रह सकता। काबुल हमले के अगले दिन कज़ाकिस्तान के सैन्य अड्डे पर श्रृंखलाबद्ध धमाका इसका प्रमाण है। विश्व समुदाय इस खतरे को समझे तथा नए सिरे से तालिबान और अफगानिस्तान को लेकर अपनी नीति बनाए।

इस आलेख में व्‍यक्‍‍त विचार लेखक के निजी अनुभव और निजी अभिव्‍यक्‍ति है। वेबदुनि‍या का इससे कोई संबंध नहीं है।

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