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Motivation Story : संत नागार्जुन ने चोर को कहा कि तू चोरी कर लेकिन...

Motivation Story : संत नागार्जुन ने चोर को कहा कि तू चोरी कर लेकिन...
, गुरुवार, 8 अप्रैल 2021 (14:31 IST)
नागार्जुन से एक चोर ने कहा था कि तुम ही एक आदमी हो जो शायद मुझे बचा सको। यूं तो मैं बहुत महात्‍माओं के पास गया, लेकिन मैं जाहिर चोर हूं, मैं बड़ा प्रसिद्ध चारे हूं, और मेरी प्रसिद्धि यह है कि मैं आज तक पकड़ा नहीं गया हूं, मेरी प्रसिद्धि इतनी हो गई है कि जिनके घर चोरी भी नहीं कि वह भी लोगों से कहते है कि उसने हमारे घर चोरी की। क्‍योंकि मैं उसी के घर चोरी करता हूं जो सच में ही धनवान है। हर किसी अरे-गैरे-नत्थू-खैरे के घर चोरी नहीं करता। सम्राटों पर ही मेरी नजर होती है। और कोई मुझे पकड़ नहीं पाया है। लेकिन तुमसे मैं पूछता हूं। और महात्‍माओं से पूछता हूं तो वे कहते हैं: पहले चोरी छोड़ो।
 
और उस चोर ने कहा, आप समझ सकते हैं कि यह तो मैं नहीं छोड़ सकता। यह छोड़ सकता तो इन महात्‍माओं के पास ही क्‍यों जाता। खुद ही छोड़ देता। छोड़ने का ढोंग कर सकता हूं। लेकिन ढोंगी मुझे नहीं होना। कोई ऐसा तरकीब बता सकते हो कि मुझे छोड़ना न पड़े और छूट जाए। क्‍योंकि छोड़ना पड़े तो मुझसे न छूट सकेगा। यह मैं कर-कर के देख चूका हूं। बहुत नियम संयम बहुत दफे कसमें खा लीं। व्रत ले लिए। मगर सब व्रत टूट गए। सब कसमें टूट गई और हर बार चित आत्‍मग्‍लानि से भर गया, क्‍योंकि मैं फिर-फिर वहीं कर लेता हूं।
 
नागार्जुन ने कहा कि तूने फिर अब तक किसी महात्‍मा का सत्‍संग किया ही नहीं है। नहीं तो तू ये बात कहता ही नहीं। तू भूतपूर्व चोरों के पास चला गया होगा। यह तो सीधी-साधी बात है। चोरी से क्‍या लेना-देना है। चोरी से क्‍या डरना, तू जितना चाहे जी भरकर चोरी कर।
 
चोर चौंका, चोर भी चौंका, उसने कहा, क्‍या कहते हो, चोरी जी भर करूं?
 
नागार्जुन ने कहा, चोरी जी भर के कर, चोरी में कुछ बनता-बिगड़ता नहीं। सिर्फ एक बात का ध्‍यान रख कि चोरी करते वक्‍त होश सम्‍हाले रखना। जानकर चोरी करना कि चोरी कर रहा हूं, कि यह देखो ताला खोला। यह देखो तिजोड़ी खोली, यह देखो हीरे निकाले, ये हीरे मेरे नहीं है, दूसरे के है। बस होश रहे। रोकना मत। चोरी करने को मैं कहता नहीं कि मत कर। जी भर के कर, दिल खोल के कर, पर होश पूर्वक कर।
 
पंद्रह दिन बाद वह चोर आया। और उसने कहा कि तुमने मुझे फांसा, तुमने मुझे मुश्‍किल में डाल दिया। कोई महात्‍मा मुझे मुश्‍किल में न डाल सका था। कसमें ले लेता था, तोड़ देता था। फिर कसमें लेना और तोड़ना ही मेरा ढंग हो गया था। यही मेरे जीवन की शैली हो गई थी। वही मेरी आदत बन गई। लेकिन तुमने मुझे उलझा दिया। यह तुमने क्‍या बात कहीं, अगर होश रखता हूं तो तिजोड़ी खुली रह जाती है। हीरे सामने होते हैं, हाथ नहीं बढ़ता। और अगर हाथ बढ़ता है तो होश खोता है। दोनों बातें साथ नहीं सधती। या तो चोरी करूं तो होश खोता है और या होश सम्‍हालूं तो चोरी नहीं होती।
 
नागार्जुन ने कहा, अब यह तू जान, अब यह तेरी झंझट है। हमारा काम खत्‍म हो गया। अब तुझे जो बचाना हो, होश बचाना हो तो होश बचा लो, चोरी बचाना है चोरी बचा ले। हमें क्‍या लेना देना है, तेरी जिंदगी तू जान।
 
चोर ने कहा, और मुश्‍किल खड़ी कर दी। क्‍योंकि दो बार होश को बचा कर बिना चोरी किए हुए घर लौट आया। और जीवन में जो आनंद और जो शांति मैंने पाई उन रातों में, ऐसी कभी न पाई थी। अगर हीरे भी ले आता तो किसी काम के न थे। हीरे छोड़ कर आया, हाथ खाली थे, पर अंदर कुछ झर रहा था आनंद एक क्वारापन, एक गुदगुदाहट सी। तिजोरी मैंने खोल ली थी, सामने हीरे दमदमा रहे थे। उनको छोड़ कर आया। पर ये मैंने कभी सोचा भी नहीं था, कि चोरी न करने के बाद भी ऐसा संतोष, ऐसा आनंद, ऐसी प्रफुल्‍लता, जैसी मैंने पहले कभी नहीं जानी थी। एक तृप्ति पाई, ऐसा संतोष पाया, में तो सोच रहा था कि घर जाकर मन में पछतावा होगा कि क्‍यों हाथ में आये हीरे छोड़ दिए। पर मुझे उन से भी कहीं अधिक मिल गया उन्‍हें छोड़ कर। मूर्च्‍छा तो अब फिर वापस नहीं ले सकता, जागृति तो बचानी ही होगी।
 
तो नागार्जुन ने कहा, फिर तू समझ, जागृति बचानी है तो चोरी जाएगी। दोनों साथ नहीं चल सकती।
 
शील चरित्र, आचरण ऊपरी बाते हैं। समाधि, ध्‍यान भीतरी बात है। मैं तो आभूषण कहूंगा सुरति को, समाधि को, ध्‍यान को, जागरण को। शील तो उसकी साधारण सी अभिव्‍यक्‍ति है। अपने आप जैसे तुम्‍हारे पीछे छाया चलती है, ऐसे ही समाधि के पीछे सम्‍यक आचरण चलता है। सम्‍यक बोध हो तो उसके पीछे सम्‍यक आचरण चलता है। और अगर तुम मूर्च्‍छित हो तो लाख उपाय करो। तुम्‍हारे सब उपाय व्‍यर्थ जाएंगे, तुम मूर्च्छित ही रहोगे। तुम जहां रहोगे वहां मूर्च्छित रहोगे।
 
(आपमें कोई भी बुराई हो, शराब पीने की, गाली बकने की या झूठ बोलने की यदि आप उपरोक्त कहानी के अनुसार कार्य करेंगे तो निश्‍चित ही वह बुराई छूट जाएगी)
 
ओशो : आपुई गई हिराय, प्रवचन—6, ओशो आश्रम से साभार

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