आस्था कोई शब्द नहीं, यह एक अवस्था है, एक भाव है। यह मनुष्य के विश्वास की सबसे उच्चतम अवस्था है। जिसके होने के अर्थ में ईश्वर का अस्तित्व है। या हर उस चीज का अस्तित्व है, जिसमें हमारी आस्था मौजूद है। किसी चीज, किसी तत्व (ऑब्जेक्ट) के मौजूद होने में आस्था ही महत्वपूर्ण है, उसमें तत्व महत्वपूर्ण नहीं है। तत्व तो बाद में उपस्थित होता है, पहले आस्था होती है।
ऑब्जेक्ट बाद में आता है, पहले आस्था प्रकट होती है।
हिंदू दर्शन में एक औसत आदमी एक पत्थर को सड़क से उठाकर सिंदूर से रंगकर ईश्वर के स्तर पर प्रतिष्ठित कर देता है, उसकी आस्था के पहले वो सिर्फ एक पत्थर मात्र था। किंतु अब वह एक देवता है और इससे भी ऊपर वह एक ईश्वर है। जो उस आस्तिक के लिए हमेशा उपस्थित है। वही ईश्वर उसके सुख-दुख का गवाह है। उसकी प्रार्थनाओं को सुनने वाला और सुनवाई के बाद उसकी तकलीफों का निराकरण करने वाला ईश्वर है।
आस्था शब्द के पार जाने पर यह अनुभूति भी होती है कि इसका संबंध बाहर से नहीं है, यह भीतर की ध्वनि है। मनुष्य के भीतर की एक ऐसी अवस्था जिसे सिर्फ वही सुनता और महसूस करता है। इसका बाहर से कोई लेना- देना नहीं है। यह एक आध्यात्मिक लगाव है। जैसे सिंदूर रंगने से कोई पत्थर ईश्वर नहीं हो जाता, वो बाद में भी पत्थर ही होता है, लेकिन मनुष्य के भीतर मौजूद आस्था का प्रकाश उस पत्थर के ईश्वर होने का कारण बनता है। उसी आस्था की वजह से ईश्वर पत्थर में निवास करता है।
आस्था, विश्वास, भरोसा, श्रद्धा और निष्ठा से भी बाद का विषय है। यह आध्यात्म का एक ऐसा आयाम है, जिसका बुद्धि से कोई संबंध नहीं है, तर्क से कोई संबंध नहीं है। जहां तर्क है, वहां बुद्धि है और जहां आस्था है वहां कोई तर्क नहीं। वहां सिर्फ साधक है और उसका भगवान है।
ओशो ने कहा भी है, श्रद्धा या विश्वास बुद्धि के नीचे का विषय है, परंतु आस्था बुद्धि के पार का विषय है। इसलिए किसी व्यक्ति की आस्था किस चीज में है यह किसी बहस से सिद्ध या साबित नहीं हो सकता। यह बुद्धि, बहस और तर्क के परे की आवाज है। वो बस है। उसका होना ही आस्था है।
Written: By Navin Rangiyal