भगवान कृष्ण का मामा था कंस। कंस का ससुर था जरासंध। कंस के वध के बाद भगवान श्रीकृष्ण को सबसे ज्यादा यदि किसी ने परेशान किया तो वह था जरासंध। वह बृहद्रथ नाम के राजा का पुत्र था। मगध सम्राट जरासंध का राज्य भारत में सबसे शक्तिशाली राज्य था। उसके पास सबसे विशाल सेना थी। वह अत्यंत ही क्रूर और अत्याचारी था। हरिवंशपुराण के अनुसार उसने काशी, कोशल, चेदि, मालवा, विदेह, अंग, वंग, कलिंग, पांडय, सौबिर, मद्र, कश्मीर और गांधार के राजाओं को परास्त कर सभी को अपने अधीन बना लिया था। इसी कारण पुराणों में जरासंध की बहुत चर्चा मिलती है। जरासंध अत्यंत क्रूर एवं साम्राज्यवादी प्रवृत्ति का शासक था।
कहते हैं कि जरासंध ने अपने पराक्रम से 86 राजाओं को बंदी बना लिया था। बंदी राजाओं को उसने पहाड़ी किले में कैद कर लिया था। यह भी कहा जाता है कि जरासंध 100 राजाओं को बंदी बनाकर किसी विशेष दिन उनकी बलि देना चाहता था जिससे कि वह चक्रवर्ती सम्राट बन सके।
कालयवन : जरासंध का मित्र था कालयवन। जरासंध ने कालयवन के साथ मिलकर मथुरा पर हमला कर दिया था, तब श्रीकृष्ण की युक्ति से यह तय हुआ कि सेना आपस में नहीं लड़ेगी। हम दोनों ही लड़कर फैसला कर लेंगे। कालयवन ये शर्त मान गया, क्योंकि वह जानता था कि मैं शिव के वरदान के कारण अमर हूं। जब वह श्रीकृष्ण को मारने के लिए लपका तो श्रीकृष्ण मैदान छोड़कर भागने लगे। कालयवन भी उनके पीछे भागा और अंतत: श्रीकृष्ण एक गुफा में चले गए।
जरासंध भी गुफा में घुसा, लेकिन उसने वहां एक व्यक्ति को सोए हुए देखा तो उसने समझा कि वे श्रीकृष्ण ही हैं, जो बहाना बनाकर सो रहे हैं। तब उसने सोए हुए व्यक्ति को लात मारकर उठाने का प्रयास किया। वह व्यक्ति मुचुकुन्द था जिसको कि कलयुग के अंत तक सोने का वरदान मिला था और इसी बीच उसे जो भी उठाएगा, वह उसकी क्रोध की अग्नि में मारा जाएगा। मुचुकुन्द ने जब आंख खोली तो सामने कालयवन खड़ा था। मुचुकुन्द ने जब उसकी ओर देखा तो वह भस्म हो गया।
जरासंध के मित्र : जरासंध के कई साथी राजा थे- यवन का राजा कालयवन, कामरूप का राजा दंतवक, चेदिराज, शिशुपाल, कलिंगपति पौंड्र, भीष्मक पुत्र रूक्मी, काध अंशुमान तथा अंग, बंग कोसल, दषार्ण, भद्र, त्रिगर्त आदि के राजा थे। इनके अतिरिक्त शाल्वराज, पवन देश का राजा भगदत्त, सौवीरराज गंधार का राजा सुबल, नग्नजीत का मीर का राजा गोभर्द, दरद देश का राजा आदि।
जरासंध का जन्म : मगध के सम्राट बृहद्रथ के दो पत्नियां थीं। जब दोनों से कोई संतान नहीं हुई तो एक दिन वे महात्मा चण्डकौशिक के पास गए और उनको अपनी समस्या बताई। महात्मा चण्डकौशिक ने उन्हें एक फल दिया और कहा कि ये फल वे अपनी पत्नी को खिला देना, इससे संतान की प्राप्ति होगी।
राजा ने वह फल काटकर अपनी दोनों पत्नियों को खिला दिया। फल लेते वक्त राजा ने यह नहीं पूछा था कि इसे क्या मैं अपनी दोनों पत्नियों को खिला सकता हूं? फल को खाने से दोनों पत्नियां गर्भवती हो गईं। लेकिन जब गर्भ से शिशु निकला तो वह आधा-आधा था अर्थात आधा पहली रानी के गर्भ से और आधा दूसरी रानी के गर्भ से। दोनों रानियों ने घबराकर उस शिशु के दोनों जीवित टुकड़े को बाहर फिंकवा दिया।
उसी दौरान वहां से एक राक्षसी का गुजरना हुआ। जब उसने जीवित शिशु के दो टुकड़ों को देखा तो उसने अपनी माया से उन दोनों टुकड़ों को आपस में जोड़ दिया और वह शिशु एक हो गया। एक होते ही वह शिशु दहाड़े मार-मारकर रोने लगा। उसके रोने की आवाज सुनकर दोनों रानियां बाहर निकलीं और उस बालक और राक्षसी को देखकर आश्चर्य में पड़ गईं। एक ने उसे गोद में ले लिया। तभी राजा बृहद्रथ भी वहां आ गए और उन्होंने वहां खड़ी उस राक्षसी से उसका परिचय पूछा। राक्षसी ने राजा को सारा किस्सा बता दिया। उस राक्षसी का नाम जरा था। राजा बहुत खुश हुए और उन्होंने उस बालक का नाम जरासंध रख दिया, क्योंकि उसे जरा नाम की राक्षसी ने संधित (जोड़ा) था।
जरासंध वध : जरासंध की खासियत यह थी कि वह युद्ध में मरता नहीं था। उसे अक्सर मल्ल युद्ध या द्वंद्व युद्ध लड़ने का शौक था और उसके राज्य में कई अखाड़े थे। वह श्रीकृष्ण का कट्टर शत्रु भी था। श्रीकृष्ण ने जरासंध का वध करने की योजना बनाई। योजना के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण, भीम और अर्जुन ब्राह्मण के वेष में जरासंध के पास पहुंच गए और उसे कुश्ती के लिए ललकारा। लेकिन जरासंध समझ गया कि ये ब्राह्मण नहीं हैं। तब श्रीकृष्ण ने अपना वास्तविक परिचय दिया। कुछ सोचकर अंत में जरासंध ने भीम से कुश्ती लड़ने का निश्चय किया।
अखाड़े में राजा जरासंध और भीम का युद्ध कार्तिक कृष्ण प्रतिपदा से 13 दिन तक लगातार चलता रहा। इन दिनों में भीम ने जरासंध को जंघा से उखाड़कर कई बार दो टुकड़े कर दिए लेकिन वे टुकड़े हर बार जुड़कर फिर से जीवित हो जाते और जरासंध फिर से युद्ध करने लगा। भीम लगभग थक ही गया था। 14वें दिन श्रीकृष्ण ने एक तिनके को बीच में से तोड़कर उसके दोनों भाग को विपरीत दिशा में फेंक दिया। भीम, श्रीकृष्ण का यह इशारा समझ गए और उन्होंने वहीं किया। उन्होंने जरासंध को दोफाड़ कर उसके एक फाड़ को दूसरे फाड़ की ओर तथा दूसरे फाड़ को पहले फाड़ की दिशा में फेंक दिया। इस तरह जरासंध का अंत हो गया, क्योंकि विपरित दिशा में फेंके जाने से दोनों टुकड़े जुड़ नहीं पाए।
जरासंध का वध होने के पश्चात श्रीकृष्ण ने उसकी कैद से सभी राजाओं को स्वतंत्र कराया और कहा कि राजा युधिष्ठिर चक्रवर्ती पद प्राप्त करने के लिए राजसूय यज्ञ कराना चाहते हैं और आप लोग उनकी सहायता कीजिए। राजाओं ने श्रीकृष्ण की बात मान ली और सभी ने युधिष्ठिर को अपना राजा मान लिया। अंत में जरासंध के पुत्र सहदेव को अभयदान देकर मगध का राजा बना दिया गया।
जरासंध का अखाड़ा : बिहार के राजगृह में अवस्थित है कंस के ससुर जरासंध का अखाड़ा। जरासंध बहुत बलवान था। मान्यता है कि इसी स्थान पर भगवान श्रीकृष्ण के इशारे पर भीम ने उसका वध किया था। राजगृह को 'राजगीर' कहा जाता है। रामायण के अनुसार ब्रह्मा के चौथे पुत्र वसु ने 'गिरिव्रज' नाम से इस नगर की स्थापना की। बाद में कुरुक्षेत्र के युद्ध के पहले वृहद्रथ ने इस पर अपना कब्जा जमा लिया। वृहद्रथ अपनी शूरता के लिए मशहूर था।
जरासंध की गुफा : सोन भंडार गुफा में आज भी दबा पड़ा है जरासंध का खजाना। इस गुफा में 2 कक्ष बने हुए हैं। ये दोनों कक्ष पत्थर की एक चट्टान से बंद हैं। कक्ष सं. 1 माना जाता है कि यह सुरक्षाकर्मियों का कमरा था जबकि दूसरे कक्ष के बारे में मान्यता है कि इसमें सम्राट बिम्बिसार का खजाना था। कहा जाता है कि अभी भी बिम्बिसार का खजाना इसी कक्ष में बंद है।
किंवदंतियों के मुताबिक गुफाओं की असाधारण बनावट ही लाखों टन सोने के खजाने की सुरक्षा करती है। इन गुफाओं में छिपे खजाने तक जाने का रास्ता एक बड़े प्राचीन पत्थर के पीछे से होकर जाता है। कुछ का मानना है कि खजाने तक पहुंचने का रास्ता वैभरगिरि पर्वत सागर से होकर सप्तपर्णी गुफाओं तक जाता है, जो सोन भंडार गुफा के दूसरी तरफ तक पहुंचता है।