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Mahabharat 7 May Episode 81-82 : कौरवों के चक्रव्यूह के पीछे की असली साजिश, लेकिन फंस गया अभिमन्यु

Mahabharat 7 May Episode 81-82 : कौरवों के चक्रव्यूह के पीछे की असली साजिश, लेकिन फंस गया अभिमन्यु

अनिरुद्ध जोशी

, गुरुवार, 7 मई 2020 (20:01 IST)
बीआर चौपड़ा की महाभारत के 7 मई 2020 के सुबह और शाम के 81 और 82वें एपिसोड में यह बताया जाता है कि युधिष्ठिर को बंदी बनाने के लिए अर्जुन के सामने त्रिगत नरेशों को लगाया जाता है, लेकिन फिर भी द्रोणाचार्य असफल हो जाते हैं तब वे करते हैं चक्रव्यूह का निर्माण।
 
बीआर चोपड़ा की महाभारत में जो कहानी नहीं मिलेगी वह स्पेशल पेज पर जाकर पढ़ें... वेबदुनिया महाभारत
 
दोपहर के एपिसोड का प्रारंभ दुर्योधन, कर्ण आदि को आचार्य द्रोण के कहीं जाने का पता चलता है तो शकुनि कहते हैं कि वे अपने प्रिय पांडव शिष्यों से मिलने गए होंगे। उन्हें बताने गए होंगे कि कल वे कौनसा व्यूह रच रहे हैं और उसकी काट क्या है। जब गंगापुत्र भीष्म स्वयं अपनी पराजय का उपाय बता सकते हैं तो आचार्य द्रोण ऐसा क्यूं नहीं कर सकते? 
इस पर कर्ण आपत्ति लेता हुआ कहता हैं कि वे (द्रोण और भीष्म) चाहते तो पांडवों की ओर से भी लड़ सकते थे। आप उनकी निष्ठा पर अविश्वास न करें मामाश्री। आप दोनों का नाम आदर से लीजिए। फिर कर्ण कहते हैं कि मैं निष्ठावान नहीं हूं गांधार नरेश मैं ऋणि हूं। अपने इस मित्र का ऋणि हूं और निष्ठा की बात मैं ऋण उतारने के बाद ही कर सकता हूं। यदि वे (भीष्म) निष्ठावान नहीं होते तो वे ये नहीं कहते कि मैं पांडव पुत्रों का वध नहीं करूंगा। ऐसे खरे लोग बड़े आदरणीय होते हैं मामाश्री।
 
इस बात को सुनकर दुर्योधन करता है कि मैं तो आज तक इसी भ्रम में था कि तुम्हारे और मेरे बीच केवल मित्रता का नाता है। मैं तो तुम्हें निष्ठावान समझता था।... तब कर्ण कहता है कि ऋण चुकाए बिना मैं तुम्हारे प्रति अपनी निष्ठा सिद्ध नहीं कर सकता मित्र। ये प्रश्न ऋण चुक जाने के बाद करना मित्र की मैं निष्ठावान हूं या नहीं।...तब दुर्योधन कहता है कि जाओ मैंने तुम्हें ऋ‍ण से मुक्त किया। ऐसा सुनकर कर्ण कहता है कि दान लेना मेरी रुचि नहीं है मित्र। मैंने तो देवताओं को भी दान दिया है। यदि तुम्हें मेरी मित्रता पर संदेह है मित्र तो ये लो.. ऐसा कहकर कर्ण अपनी कृपाण निकालकर पेट में घोंपने ही वाला रहता है लेकिन दुर्योधन उसका हाथ पकड़ लेता है।
तभी द्रोण वहां आ जाते हैं। दु:शासन पूछता है कि आप कहां चले गए थे गुरुदेव? द्रोण कहते हैं कि मैं गंगापुत्र के पास गया था। फिर वे उदास होकर कहते हैं कि अर्जुन के रहते युधिष्ठिर को बंदी बनाना मुश्किल है। कर्ण कहता है कि अर्जुन को मुझ पर छोड़िये आचार्य। फिर द्रोण कहते हैं कि मुझे तुम्हारी वीरता पर संदेह नहीं लेकिन अर्जुन फिर भी अर्जुन ही है।
 
इस पर कर्ण कहता है कि तब तो हमें चलकर आत्मसमर्पण कर देना चाहिए आचार्य। इस पर दुर्योधन करता है कि यदि आप सभी के अहंकार से अहंकार टकराते रहे तब तो मेरी पराजय निश्चित है। इसलिए मैं आप सभी लोगों से प्रार्थना करता हूं कि मेरे हितों पर अहंकार को महत्व ना दें। मैं गुरुदेव से सहमत हूं कि जब तक हम अर्जुन को युधिष्ठिर से दूर करने में सफल नहीं हो जाते, हम युधिष्ठिर को बंदी नहीं बना सकते। मुझे लगता है कि हमें इस कार्य के लिए त्रिगर्त देश के प्रमुख से सहायता लेना चाहिए।
 
अगले दिन के युद्ध में त्रिगर्त देश के दो प्रमुखों को अर्जुन से युद्ध करने के लिए लगा दिया जाता है। ये लोग अर्जुन को चुनौती देते हुए ललकारते हैं। अर्जुन को भीम समझाते हैं कि यह कोई रणनीति है। तुम इन लोगों की चुनौती स्वीकार मत करो अर्जुन। ये दोनों तो तुम्हें पीठ दिखाकर भागने के लिए ललकार रहे हैं। यही तो युद्धनीति है कि तुम इनका पीछा करते करते दूर निकल जाओ। फिर गुरुद्रोण बड़े भैया को बंदी बना लेंगे। लेकिन अर्जुन भीम की नहीं सुनता है और चला जाता है।
इधर, युधिष्ठिर इसको लेकर चिंतित हो जाते हैं कि अर्जुन तो बहुत दूर निकल गया। यदि मैं बंदी बना लिया गया तो युद्ध यहीं समाप्त हो जाएगा। नकुल कहते हैं कि अर्जुन के न होने का मतलब यह नहीं कि हम आपकी सुरक्षा नहीं कर सकते। तब भीम कहता है कि अर्जुन के अतिरिक्त गुरुद्रोण को कोई रोक नहीं सकता।
 
गुरु द्रोण पहुंच जाते हैं युधिष्ठिर के पास और युधिष्ठिर, भीम, नकुल और सहदेव के साथ युद्ध शुरु होता है। गुरुद्रोण चारों को पस्त कर देते हैं। वे खुद को असहाय पाते हैं तभी अर्जुन लौट आता है। दोनों में युद्ध होता है और सूर्यास्त हो जाता है।
 
शिविर में द्रोण से दुर्योधन कहता है कि आचार्य आप तो वचन देकर पीछे हट गए। आप तो युधिष्ठिर के पास पहुंचकर भी उसे बंदी न बना पाए। आप तो अर्जुन के आने की प्रतीक्षा करते रहे। गुरुश्रेष्ठ मैं आप से ये पूछना चाहता हूं कि मैं आप पर विश्वास कर सकता हूं या नहीं?
द्रोण कहते हैं कि मैं तुम्हारे विश्वास का दास नहीं हूं दुर्योधन। रणभूमि और क्रीड़ा भूमि में अंतर करना सीखो। युद्ध हमारे हाथ में है किंतु युद्ध का परिणाम हमारे हाथ में नहीं है। यदि अर्जुन कुछ और दूर होता तो मैं युधिष्ठिर को बंदी बना चुका होता।... अर्जुन को रणभूमि से हटा दो तो मैं युधिष्ठर को बंदी बनाकर तुम्हें सौंप दूंगा। कल में चक्रव्यूह की रचना करूंगा जिसे अर्जुन के अतिरिक्त कोई और तोड़ ही नहीं सकता।
 
रात्रि में एक सैनिक गुप्तचर को पकड़कर द्रोण के सामने प्रस्तुत किया जाता है। वह गुप्तचर बताता है कि मैं युधिष्ठिर के शिविर में यह बताने जा रहा था कि कल आप चक्रव्यूह की रचना करने वाले हैं। द्रोण उसे बंदी बनाने की आज्ञा देते हैं।
 
इधर, अभिमन्यु अपनी पत्नी उत्तरा से मिलकर प्रेमपूर्ण बातें करता है और अंत में वह बताता है कि मुझे चक्रव्यूह आधा ही आता है। तब अभिमन्यु बताता है कि मैंने चक्रव्यूह कैसे गर्भ में सीखा। मैंने अपने मामाश्री श्रीकृष्ण से कहा कि मुझे चक्रव्यूह से निकलने का मार्ग बताएं लेकिन वे बस हर बार मुस्कुरा कर ही रह जाते हैं।
 
इधर, अर्जुन से श्रीकृष्ण कहते हैं कि तुम कल सुशर्मा की ललकार नहीं सुनोगे। लेकिन अर्जुन कहता है कि यह तो क्षत्रिय धर्म के विरुद्ध है यह तो संभव नहीं वसुदेव।
उधर, दुर्योधन और दु:शासन त्रिगर्त देश के नरेश सुशर्मा के पास जाते हैं। दुर्योधन सुशर्मा से मिलकर कहता है कि कल तुम रणभूमि में अर्जुन से युद्ध नहीं करोगे, बल्कि तुम अर्जुन को इतनी दूर निकाल ले जाओ कि वह सूर्यास्त के पहले लौट ना पाए। तब नरेश कहता है कि आप यदि वचन दें कि आप युधिष्ठिर को बंदी बनाकर उसे मुक्त कर देंगे तो मैं ऐसा करता हूं। क्योंकि युधिष्ठिर ने भी मेरे साथ ऐसा ही किया था। तब दुर्योधन झूठा वचन दे देता है। इस पर सुशर्मा कहते हैं कि मैं तुम्हें वचन देता हूं कि मैं अर्जुन को युद्धभूमि से दूर ले जाऊंगा।
 
शाम के एपिसोड में दुर्योधन और दु:शासन जाते हैं भीष्म पितामह के पास और कहते हैं कि कल ये युद्ध समाप्त हो जाएगा। भीष्म पूछते हैं कि ऐसा कैसे होगा? तब दुर्योधन कहते हैं कि हम युधिष्ठिर को बंदी बनाने के लिए कल चक्रव्यूह की रचना करेंगे। तब भीष्म कहते हैं कि वसुदेव और अर्जुन दोनों ही चक्रव्यूह तोड़ना जानते हैं। तब दुर्योधन बताता है कि किस तरह उन दोनों को चक्रव्यूह से दूर ले जाया जाएगा और उन दोनों के लौटने तक युधिष्ठिर को बंदी बना लिया जाएगा और युद्ध समाप्त हो जाएगा।
 
उधर, विदुर के घर जाकर धृतराष्ट्र विलाप करते हैं अपने मृत पुत्रों सहित भीष्म पर। विदुर उन्हें कड़वे वचन सुनाते हैं। दोनों के बीच युद्ध को लेकर चिंता की जाती है।
 
दूसरी ओर युद्ध प्रारंभ हो जाता है। रणनीति के तहत चक्रव्यूह बनाया जाता है और अर्जुन को त्रिगर्त देश के नरेश सुशर्मा के साथ युद्ध में उलझा दिया जाता है।
पांडव पक्ष को यह नहीं मालूम रहता है कि आज हमारे लिए चक्रव्यूह रचा गया है, लेकिन बंदी बनाया गया गुप्तचर बंदी स्थान से बाहर निकल कर भाग जाता है। भागकर वह युधिष्ठिर के पास पहुंचता है तभी उसकी छाती में एक तीर लग जाता है। फिर भी वह मरते मरते बता जाता है कि आचार्य ने चक्रव्यूह रचा है। भीम कहता है कि मैं तो पहले ही अर्जुन से कहता था कि सुशर्मा गुरुवर की युद्धनीति का प्रतीक है लेकिन अर्जुन ने मेरी एक न मानी। 
 
तब युधिष्ठिर कहते हैं कि चक्रव्यूह को तोड़ना तो हममें से कोई नहीं जानता। तभी अभिमन्यु कहते हैं कि आप चिंता न करें ज्येष्ठ पिताश्री। पिताश्री नहीं है तो क्या हुआ मैं जो हूं उनका पुत्र। मुझे चक्रव्यूह को तोड़ना आता है लेकिन उसमें से बाहर निकलना नहीं। तब युधिष्ठिर कहते हैं कि इसकी तुम चिंता न करो। तुम जो द्वार खोलोगे हम उसे बंद ही नहीं होने देंगे। हम भी तुम्हारे साथ पीछे पीछे चलेंगे।
 
अभिमन्यु चक्रव्यूह भेदने रथ पर सवार होकर निकल जाता है। प्रारंभ में यही सोचा गया था कि अभिमन्यु व्यूह को तोड़ेगा और उसके साथ अन्य योद्धा भी उसके पीछे से चक्रव्यूह में अंदर घुस जाएंगे। लेकिन जैसे ही अभिमन्यु घुसा और व्यूह फिर से बदला और पहली कतार पहले से ज्यादा मजबूत हो गई तो पीछे के योद्धा, भीम, सात्यकि, नकुल-सहदेव कोई भी अंदर घुस ही नहीं पाए। सभी को जयद्रथ ने रोक लिया। युद्ध में शामिल योद्धाओं में अभिमन्यु के स्तर के धनुर्धर दो-चार ही थे यानी थोड़े ही समय में अभिमन्यु चक्रव्यूह के और अंदर घुसता तो चला गया, लेकिन अकेला, नितांत अकेला। उसके पीछे कोई नहीं आया।
 
उधर, अर्जुन सुशर्मा से युद्ध करते हुए बहूत दूर निकल जाते हैं। 
 
जैसे-जैसे अभिमन्यु चक्रव्यूह के सेंटर में पहुंचते गए, वैसे-वैसे वहां खड़े योद्धाओं का घनत्व और योद्धाओं का कौशल उन्हें बढ़ा हुआ मिला, क्योंकि वे सभी योद्धा युद्ध नहीं कर रहे थे बस खड़े थे जबकि अभिमन्यु युद्ध करता हुआ सेंटर में पहुंचता है।
सेंटर में वह द्रोणाचार्य, मद्र नरेश शल्य, कुलगुरु कृपाचार्य, अंगराज कर्ण, द्रोणपुत्र अश्वत्‍थामा, मामाश्री शकुनि, दु:शासन, दुर्योधन, कृतवर्मा, जयद्रथ आदि से युद्ध करके सभी को अकेले ही घायल कर देता है। दुर्योधन यह देखकर द्रोण सहित सभी से कहता है कि इस पर एक साथ आक्रमण करो। द्रोण अभिमन्यु को घायल कर देते हैं तब अभिमन्यु द्रोण को याद दिलाते हैं कि आप युद्ध के वे नियम भूल चुके हैं जिसमें एक योद्धा से केवल एक योद्धा ही युद्ध करेगा? द्रोण कुछ जवाब नहीं दे पाते हैं।
 
दुर्योधन कहता है कि युद्ध कर बालक तेरी मृत्यु निश्चित है। क्योंकि तेरे बाहर जाने का द्वार बंद हो चुका है। तब अभिमन्यु कहता है कि जो वीर होते हैं वे बाहर जाने का मार्ग खोजते भी नहीं ताऊश्री। हे आचार्यवर मैं भी श्रीश्री वासुदेव श्रीकृष्ण का शिष्य हूं। आप चाहते हैं कि मैं आप सभी के साथ युद्ध करूं तो मैं करूंगा। अवश्य युद्ध करूंगा। मैं तो केवल ये चाहता था कि आप जैसे महारथियों की गिनती कायरों में न करें।
 
उधर, युधिष्ठिर को इसका पश्चाताप होता है और वह कहता है कि अब मैं अर्जुन को क्या मुंह दिखाऊंगा?
 
सभी योद्धा मिलकर अभिमन्यु को घायल कर देते हैं। अभिमन्यु रथ से नीचे गिर जाता है और वह अकेला निहत्था होता है। द्रोण को छोड़कर सभी तलवार निकाल लेते हैं। अभिमन्यु रथ के पहिये को ढाल बना कर लड़ते हैं, लेकिन तभी कोई पीछे से अभिमन्यु की पीठ में तलवार घोंप देता है। फिर सभी योद्धा मिलकर उसकी निर्ममता से हत्या कर देते हैं। मरते हुए अभिमन्यु कहता है कि ये मेरा दुर्भाग्य है कि मैं आप जैसे कायरों के हाथों वीरगति को प्राप्त हो रहा हूं। 
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तब अभिमन्यु चीखता है पिताश्री..पिताश्री आप सूर्यास्त के पूर्व आकर इस भूमि से पूछिएगा कि आपका पुत्र इन कायरों से कैसे लड़ा। तब अभिमन्यु कहता है कि हे भारद्वाज पुत्र द्रोण क्या यही आपकी रणनीति है? अंत में अभिमन्यु के मुंह से निकलता है हे माते अभिमन्यु का आपको अंतिम प्रणाम।
 
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