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गोमुख से होता है जटाशंकर का अखंड जलाभिषेक (वीडियो)

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कुंवर राजेन्द्रपालसिंह सेंगर
बागली (देवास)। पांच याज्ञिक वृक्षों के मध्य स्थित जटाशंकर तीर्थ अनादिकाल से ही अपने दिव्य स्वरूप, अलौकिकता, शांति और महत्वपूर्ण आध्यात्मिक केंद्र के रूप में विख्यात रहा है। त्रेता युग में जटायु की तपोभूमि रहे इस स्थल पर अब तक कई संत-महात्माओं ने निवास किया और अपनी तपस्या से इस देवभूमि को पावन किया। तीर्थ की विशेषता भगवान जटाशंकर का अखंड जलाभिषेक करने वाली जलधारा हैँ, जिसका स्रोत पता लगाने में विशेषज्ञ भी असफल रहे हैं। 
 
विध्यांचल पर्वत श्रंखला में स्थित जटाशंकर को चर्चित और विकसित करने का श्रेय ब्रह्मलीन संतश्री केशवदासजी त्यागी (फलाहारी बाबा) को जाता है। हालांकि तीर्थ अपनी भंडारा प्रथा के चलते अर्द्धकुंभ और सिंहस्थ में लोकप्रिय है। वर्तमान में उनके शिष्य मंहत बद्रीदासजी तीर्थ का संरक्षण कर रहे हैं। इतिहास को खंगालें तो लगभग 600 वर्ष पूर्व वैष्णव संप्रदाय के वनखंडी नामक एक महात्मा यहां निवास करते थे। 
 
जनता में उनका नाम लाल बाबा था। वे प्रतिदिन धाराजी के नर्मदा तट पर स्नान के लिए जाते थे और सूर्योदय के समय जटाशंकर लौटकर भगवान्‌ का अभिषेक करते थे। उनके अशक्त होने पर नर्मदा माता ने प्रकट होकर भगवान्‌ के अभिषेक सहित विभिन्न कार्यों के लिए सतत बहने वाली पांच जलधाराओं का वरदान जटाशंकर तीर्थ के लिए दिया। कालांतर में कलयुग के प्रभाव से चार जलधाराएं लोप हो चुकी है और भगवान्‌ का अखंड अभिषेक  करने वाली जलधारा सतत प्रवाहित है। 
 
नीललोहित शिवलिंग भी कहा जाता है : जटाशंकर महादेव पर नीले व लाल रंग की धारियां हैं, इसलिए इसे नीललोहित शिवलिंग भी कहा जाता है। मंदिर की छत से सटी चट्टान पर बिल्प पत्र का वृक्ष है, इसलिए बिल्वपत्र और जल से भगवान का अखंड अभिषेक होता है। मंदिर का जीर्णोद्धार चल रहा है। इसमें बिल्व पत्र के गिरने के लिए छत में स्थान छोड़ा गया है। इस संबंध में वाग्योग चेतना पीठम्‌ के संचालक मुनि पंडित रामाधार द्विवेदी कहते हैं कि जटाशंकर की जलधारा और नर्मदा जल का स्वाद एक है और धाराजी में धावडी कुंड में जब वेग से जल गिरता था तब वह चट्टानों में स्थान बनाता था।
 
ओंकारेश्वर डेम बनने से जलधारा के वेग में कमी आई है। द्विवेदी आगे बताते हैं कि चंद्रकेश्वर तीर्थ पर अत्रि ऋषि के पुत्र चंद्रमा का आश्रम था, जो कालांतर में च्यवन ऋषि की तपोभूमि बना और चंद्रमा ने जटायु की मदद की थी। इससे जाहिर है कि अनादिकाल में यहां पर जटायु ने तप किया था। जलधारा के मुहाने पर लगा गोमुख लगभग 200 वर्ष पूर्व बागली रियासत के राजपुरोहित पंडित सोमेश्वर त्रिवेदी ने स्थापित करवाया था। 
 
सूक्ष्म रूम से महात्मा निवास करते हैं : इस स्थल की अलौकिकता को लेकर कहा जाता है कि यहां एक महात्मा सूक्ष्म रूप में निवास करते हैं और उन्हीं का मार्गदर्शन ब्रह्मलीन संतश्र केश्वदासजी त्यागी को प्राप्त था। इसे लेकर वनकर्मी ख्याली व्यास और सत्यनारायण व्यास बताते हैं कि उनके दादाजी प्रेमीलाल व्यास को जटाशंकर महादेव का रहस्य जानने की इच्छा था, इसलिए उन्होंने जटाशंकर में रात्रि विश्राम का निर्णय लिया। 
 
वर्ष 1940 के आसपास निर्जन वन होने के कारण यहां कोई रहता नहीं था, लेकिन पूजा प्रतिदिन ब्रह्ममुहुर्त में हो जाती थी। एक दिन प्रेमीलालजी व उनके कुछ साथियों ने यहां पर रात्रि जागरण किया, लेकिन सुबह-सुबह सभी को नींद आ गई और जब जागे तो पूजा हो चुकी थी। अगले दिन मंदिर के अंदर राख फैला दी गई। तब अगले दिन सुबह राख पर 1 फुट से अधिक लंबे पैर का एकमात्र चिह्न मिला। 
 
रियासतकाल से लगता है मेला : यहां पर रियासतकाल से महाशिवरात्रि के अवसर पर 5 से 7 दिन अवधि का मेला लगता है। साथ ही विश्वशांति व कल्याण की कामना से शिवशक्ति महायज्ञ का आयोजन भी होता है। वर्ष 2017 याज्ञिक आयोजन का 52वां वर्ष था। बागली रियासत के राजा छत्रसिंह ने बताया कि रियासत काल में शिवरात्रि पर यहां बड़े पैमाने पर मेला लगाया जाता था। इसमें आदिवासियों को लकड़ी विक्रय करने और कर में 100 प्रतिशत की छूट होती थी। उस समय बड़े व्यापारियों का तांता यहां लगा रहता था। 
 
मेले के दौरान घुड़दौड सहित लंबी कूद, ऊंची कूद सहित अन्य खेलकूद प्रतियोगिताएं भी होती थीं। नगर से लेकर जटाशंकर तक रोशनी के लिए लालटेन कतारबद्ध लगती थी और कालीसिंध नदी पर पैदल यात्रियों के लिए झुला पुल बनता था। यहां अनादि काल से कई साधुओं ने निवास किया है। 
 
देवास के ब्रह्मलीन संत शीलनाथ बाबा भी यहां कुछ समय ठहरे थे। नगर तक शेर पर बैठकर आने वाले भारती बाबा ने भी यहां निवास किया। इस स्थान को सर्वाधिक ऊर्जा फलाहारी बाबा ने प्रदान की और अपनी तपस्या से यहां का विकास किया। इसके साथ ही वनक्षेत्र में भी बाबा ने शिकार पर पाबंदी की और उनके प्रयासों से ही आसपास के राजपूतों ने अपने हथियारों को घरों में टांग दिए। 
श्रावण माह में होता है अखंड महारुद्राभिषेक : तीर्थ पर श्रावण मास में गत 15 वर्षों से अखंड महारुद्राभिषेक हो रहा है। इसमें वाग्योग चेतना पीठम्‌ बागली के आचार्य पं. ओमप्रकाश शर्मा व पं. मुकेश शर्मा द्वारा भगवान जटाशंकर का महारुद्राभिषेक, पार्थिव पूजन, महामृत्युंजय मंत्रों का जाप, पंचाक्षर मंत्र जाप, सहस्त्रार्चन और हवन आदि क्रियाएं जारी हैं। साथ ही पठानकोट हमले और आतंकी हमलों में शहीद सैनिकों की आत्मशांति के लिए गीता पाठ एवं हवनात्मक क्रियांए भी हो रही हैं। श्रावण मास में 51 हजार पार्थिव लिंगों का निर्माण और पूजन भी होता है। 
 
होती है मनोकामना पूर्ण  : मान्यता है कि मनोरथ सिद्ध करने के लिए सच्चे मन से भगवान जटाशंकर का अभिषेक करने के बाद पति-पत्नी या कोई भी श्रद्धालु मंदिर की दीवारों पर स्वास्तिक चिन्ह को गोबर से उल्टा उकेरता है तो उसकी मनोकामना पूर्ण होती है। साथ ही मनोकामना पूर्ण होने के बाद उसे उन उल्टे स्वास्तिक को सीधा करने के लिए तीर्थ पर फिर से आना होता है।

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