देवव्रत जोशी
फ़कीर का हुस्न
एक सूफी संत अपने शिष्यों के साथ दुग्ध-धवल चांदनी रात में अपने घर की छत पर ईश्वर आराधना में मग्न थे। कौतुकवश एक नवयुवक भी वहां आया और चुपचाप सत्संग में शामिल हो गया, उसे बड़ा आनंद आया। इतना सुकून, इतनी शांति तो उसे कभी नहीं मिली थी। संत ने भी उसे अपना आशीर्वाद दिया और कहा कि बराबर आया करो।
कुछ दिन बाद अचानक युवक अनुपस्थित रहने लगा। कई सप्ताह, महीने गुजर गए। एक दिन वह आया और उदास मुख, जर्जर शरीर, उखड़े मन से सत्संग में बैठ गया, सबसे पीछे।
गुरु ने देखा और सब कुछ समझ लिया। उसे पास बुलाया। बेटे इतने दिन क्यों नहीं आए। मैंने तो तुम्हारा काफी इंतजार किया... ये दुनिया बड़ी मायावी और दिलकश है। मेरी तरफ देखो' संत ने अपनी दाढ़ी पर हाथ फिराते हुए कहा,' क्या इससे ज्यादा खूबसूरती है कहीं दुनिया में।' युवक संत की भुवन मोहिनी मुस्कान के आगे नत था।
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सिन्दूर की शुरुआत
नई शादी हुई थी वीरजी भील की। धीरा उसकी पत्नी का नाम था। अत्यंत सुंदर और बहादुर औरत। तीर-कामठी (धनुष-बाण) लेकर वीर जी शिकार के लिए जंगल गया था, दिनभर घूमता रहा। शिकार न मिला। थककर चूर वह एक पत्थर पर सो गया।
गहरी सांस, रात घिर आई थी। आज की खुराक नसीब न हुई। वीरजी की तंद्रा टूटी, कंधे पर तीर-कामठी डाली, वह भारी पगों से घर की ओर चल पड़ा।
तभी क्षेत्र के एक दुर्दान्त डाकू कालू ने उसे ललकारा - कूंण है? कां जाई रयो है? (कौन है, कहां जा रहा है?)
वीर जी ने मुठभेड़ टालनी चाही, लेकिन अपने क्षेत्र में बेरोकटोक घूमने वाले को दस्यु राज कैसे बर्दाश्त करता?
डाकू ने भरपूर वार किया अपने हथियार से। वीरजी धराशायी लुढ़क गया जमीन पर... संज्ञाहीन।
काफी रात बीत गई थी। अपने पति को खोजती धीरा उधर से गुजरी। वीरजी जमीन पर पड़ा था... खून की धार माथे से बह रही थी, दस्यु कालू वहीं खड़ा था अट्टाहस करता हुआ।
धीरा की रगों में बहादुर बाप का खून था। वह शेरनी की तरह झपटी और अपने दराते से उसने कालू के सिर पर भरपूर वार किया। डाकू कराहता हुआ जमीन पर पड़ा था।
पति को तब तक होश आ गया था। उसने पहले सामने खड़ी पत्नी को, फिर घायल डाकू को देखा। वीरजी उठा और अपने खून से अपनी पत्नी धीरा की माँग भर दी। अंचल में इस शौर्य कथा को लेकर एक किंवदंती अब भी प्रचलित है। बुजुर्गों के अनुसार 'सिंदूर की शुरुआत' उसी दिन से हुई थी।