lohri ki kahani - कौन था दुल्ला भट्टी और सुंदरी-मुंदरी, जानें क्या है लोहड़ी की कहानी और परंपरा
• यहां प्रस्तुत हैं लोहड़ी की ऐतिहासिक कहानी।
• दुल्ला भट्टी की लोककथा।
• ब्राह्मण परिवार की 2 लड़कियां सुंदरी और मुंदरी की कथा।
Lohri festival history: पंजाबी दुनिया में जहां अपनी अलग पहचान रखते हैं, वहीं पंजाब के त्योहारों की भी अपनी एक अलग जगह है। वैसाखी त्योहार की तरह लोहड़ी का संबंध भी पंजाब के गांव, फसल और मौसम से है। पंजाब एक ऐसा राज्य है, जहां हर दिन कोई न कोई त्योहार मनाया जाता है।
वर्ष की सभी ऋतुओं पतझड़, सावन और बसंत में कई तरह के छोटे-बड़े त्योहार मनाए जाते हैं जिनमें से एक प्रमुख त्योहार लोहड़ी है, जो बसंत के आगमन के साथ 13 या 14 जनवरी, पौष महीने की आखिरी रात को मनाया जाता है। इसके अगले दिन माघ महीने की संक्रांति को माघी के रूप में मनाया जाता है।
लोहड़ी की महत्ता आज भी बरकरार है। 'लोहड़ी' शब्द 'तिल+रोड़ी' शब्दों के मेल से बना है, जो समय के साथ बदलकर 'तिलोड़ी' और बाद में 'लोहड़ी' हो गया। पंजाब के कई इलाकों में इसे लोही या लोई भी कहा जाता है। उम्मीद है कि पवित्र अग्नि का यह त्योहार मानवता को सीधा रास्ता दिखाने और रूठों को मनाने का जरिया बनता रहेगा। लोहड़ी की रात हमें परिवार और सगे-सबंधियों के साथ मिल-बैठकर हंसी-मजाक, नाच-गाना कर रिश्तों में मिठास भरने, सद्भावना से रहने का संदेश देती है।
पौष की कड़ाके की सर्दी से बचने के लिए भाईचारे की सांझ और अग्नि का सुकून लेने के लिए यह त्योहार मनाया जाता है। बाकी त्योहारों जैसे दिवाली, बैसाखी की तरह इस त्योहार के साथ कोई धार्मिक घटना नहीं जुड़ी हुई है, इसी कारण यह त्योहार पंजाब की सभ्यता का प्रतीक बन गया है।
कहानी : लोहड़ी का सबंध कई ऐतिहासिक कहानियों के साथ जोड़ा जाता है, पर इससे जुड़ी प्रमुख लोककथा दुल्ला भट्टी की है, जो मुगलों के समय का एक बहादुर योद्धा था जिसने मुगलों के बढ़ते जुल्म के खिलाफ कदम उठाया।
कहा जाता है कि एक ब्राह्मण की 2 लड़कियों सुंदरी और मुंदरी के साथ इलाके का मुगल शासक जबरन शादी करना चाहता था, पर उन दोनों की सगाई कहीं और हुई थी और उस मुगल शासक के डर से उनके भावी ससुराल वाले शादी के लिए तैयार नहीं थे।
इस मुसीबत की घडी में दुल्ला भट्टी ने ब्राह्मण की मदद की और लड़के वालों को मना कर एक जंगल में आग जलाकर सुंदरी और मुंदरी का ब्याह करवाया। दूल्ले ने खुद ही उन दोनों का कन्यादान किया। कहते हैं दूल्ले ने शगुन के रूप में उनको शकर दी थी।
इसी कथा की हिमायत करता लोहड़ी का यह गीत है जिसे लोहड़ी के दिन गाया जाता है-
सुंदर, मुंदरिये हो,
तेरा कौन विचारा हो,
दुल्ला भट्टी वाला हो,
दूल्ले धी (लड़की) व्याही हो,
सेर शक्कर पाई हो।
दुल्ला भट्टी की जुल्म के खिलाफ मानवता की सेवा को आज भी लोग याद करते हैं और उस रात को लोहड़ी के रूप में सत्य और साहस की जुल्म पर जीत के तौर पर मनाते हैं। इस त्योहार का सबंध फसल से भी है। इस समय गेहूं और सरसों की फसलें अपने यौवन पर होती हैं। खेतों में गेहूं, छोले और सरसों जैसी फसलें लहलहाती हैं।
लोहड़ी के दिन गांव के लड़के-लड़कियां अपनी-अपनी टोलियां बनाकर घर-घर जाकर लोहड़ी के गाने गाते हुए लोहड़ी मांगते हैं। इन गीतों में दुल्ला भट्टी का गीत 'सुंदर, मुंदरिये हो, तेरा कौन विचारा हो...', 'दे माई लोहड़ी, तेरी जीवे जोड़ी', 'दे माई पाथी तेरा पुत्त चड़ेगा हाथी' आदि प्रमुख हैं। लोग उन्हें लोहड़ी के रूप में गुड़, रेवड़ी, मूंगफली, तिल या फिर पैसे भी देते हैं।
ये टोलियां रात को अग्नि जलाने के लिए घरों से लकड़ियां, उपलें आदि भी इकट्ठा करती हैं और रात को गांव के लोग अपने मोहल्ले में आग जलाकर गीत गाते, भांगड़ा-गिद्दा करते, गुड़, मूंगफली, रेवड़ी, धानी खाते हुए लोहड़ी मनाते हैं।
अग्नि में तिल डालते हुए 'ईशर आए दलिदर जाए, दलिदर दी जड चूल्हे पाए' बोलते हुए अच्छे स्वास्थ्य की कामना करते हैं। लोहड़ी का संबंध नए जन्मे बच्चों के साथ ज्यादा है। पुराने समय से ही यह रीत चली आ रही है कि जिस घर में लड़का जन्म लेता है, उस घर में लोहड़ी मनाई जाती है। लोहड़ी के कुछ दिन पहले पूरे गांव में गुड़ बांटा जाता है और लोहड़ी की रात सभी गांव वाले लड़के के घर आते हैं और लकड़ियां, उपलें आदि से अग्नि जलाई जाती है। सभी को गुड़, मूंगफली, रेवड़ी, धानी आदि बांटे जाते हैं।
आजकल कुछ लोग कन्या भ्रूण हत्या को रोकने के लिए लड़कियों के जन्म पर भी लोहड़ी मनाने लगे हैं ताकि रूढ़िवादी लोगों में लड़का-लड़की के अंतर को खत्म किया जा सके। कई इलाकों में विवाहित जोड़ी की पहली लोहड़ी मनाई जाती है जिसमें लोहड़ी की पवित्र आग में तिल डालने के बाद जोड़ी बड़े-बुजुर्गों से आशीर्वाद लेती है।
लोहड़ी की रात गन्ने के रस की खीर बनाई जाती है और उसे अगले दिन माघी के दिन खाया जाता है जिसके लिए 'पोह रिद्धी माघ खाधी' जैसी कहावत जुड़ी हुई है मतलब कि पौष में बनाई खीर माघ में खाई गई। ऐसा करना शुभ माना जाता है।
समय के बदलते रंग के साथ कई पुरानी रस्में और त्योहारों का आधुनिकीकरण हो गया है, लोहड़ी पर भी इसका प्रभाव पड़ा है। अब गांव में लड़के-लड़कियां लोहड़ी मांगते हुए 'दे माई पाथी तेरा पुत्त चड़ेगा हाथी' या 'दुल्ला भट्टी वाला हो, दूल्ले धी व्याही हो' जैसे गीत गाते दिखाई नहीं देते, शायद कुछ लोगों को तो इन गीतों और लोहड़ी के इतिहास के बारे में पता भी नहीं होगा। लोहड़ी के गीतों का स्थान 'डीजे' ने ले लिया है।
भले कुछ भी हो, लेकिन लोहड़ी रिश्तों की मधुरता, सुकून और प्रेम का प्रतीक है। दुखों का नाश, प्यार और भाईचारे से मिल-जुलकर नफरत के बीज का नाश करने का नाम है 'लोहड़ी'।
लोहड़ी उत्सव की शुभकामनाएं...!
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