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क्यों केंद्र के नए कृषि विधेयकों का हो रहा है विरोध

DW
गुरुवार, 17 सितम्बर 2020 (10:04 IST)
रिपोर्ट चारु कार्तिकेय
 
केंद्र सरकार के 3 नए कृषि विधेयकों का किसान और विपक्षी राजनीतिक दल तो विरोध कर ही रहे थे, अब इन विधेयकों की वजह से सत्तारूढ़ गठबंधन में ही दरार पड़ने की नौबत आ गई है।
 
केंद्र ने सोमवार को लोकसभा में कृषि क्षेत्र से संबंधित 3 विधेयक प्रस्तुत किए थे- आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक, कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) विधेयक और कृषक (सशक्तीकरण और संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर करार विधेयक। ये तीनों विधेयक पहले अध्यादेश की शक्ल में जून में लागू कर दिए गए थे। सरकार संसद के मानसून सत्र में अध्यादेशों को विधेयकों के रूप में ले आई है और इन्हें पारित करना चाहती है। इनमें से आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक मंगलवार को लोकसभा से पारित भी हो गया। विशेष रूप से पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों के किसान इन तीनों अध्यादेशों का जून से ही विरोध कर रहे हैं।
 आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक का उद्देश्य है- अनाज, दालों, तिलहन, आलू और प्याज जैसी सब्जियों के दामों को तय करने की प्रक्रिया को बाजार के हवाले करना। बिल के आलोचकों का मानना है कि इससे सिर्फ बिचौलियों और बड़े उद्योगपतियों का फायदा होगा और छोटे और मझौले किसानों को अपने उत्पाद के सही दाम नहीं मिल पाएंगे।
 
सत्तारूढ़ बीजेपी के पंजाब में जनाधार वाले घटक दल अकाली दल ने पिछले सप्ताह ही सरकार से तीनों विधेयकों पर पुनर्विचार करने की अपील की थी, लेकिन इसके बावजूद आवश्यक वस्तु (संशोधन) बिल वैसे का वैसा पारित हो गया। अकाली दल ने लोकसभा में भी सरकारी पक्ष में होने के बावजूद बिल का विरोध किया। पार्टी के नेता सुखबीर सिंह बादल ने बताया कि उनके दल की नेता और कैबिनेट मंत्री हरसिमरत कौर बादल ने कैबिनेट में भी बिल का विरोध किया लेकिन उनके विरोध को नजरअंदाज करते हुए सरकार बिल पर आगे बढ़ गई।
 
कुल मिलाकर किसान, उनके प्रतिनिधि और विपक्ष के राजनीतिक दल इन तीनों विधेयकों का ही विरोध कर रहे हैं। उनका कहना है कि सबसे पहले तो कोविड-19 महामारी के बीच में सरकार का कृषि क्षेत्र में इतने बड़े बदलावों को अध्यादेश के रूप में लाना सरकार की मंशा दिखाता है। उनका यह भी आरोप है कि इतने विरोध के बावजूद सरकार अध्यादेशों को कानून में बदलने से पहले भी किसानों से और उनके प्रतिनिधियों से चर्चा नहीं कर रही है।
 
वरिष्ठ पत्रकार और 'हिन्द किसान' के प्रधान संपादक हरवीर सिंह ने डीडब्ल्यू को बताया कि आवश्यक वस्तु कानून की परिधि से अधिकतर वस्तुओं को निकालकर और सिर्फ दामों के 100 गुना बढ़ने पर सरकार द्वारा हस्तक्षेप का प्रावधान लाकर इस कानून को कमजोर किया जा रहा है जिसके नतीजे देश के लिए विनाशकारी हो सकते हैं। वे कहते हैं कि बाकी विधेयकों को लाने के पीछे सरकार की कथित मंशा किसान को और आजादी देने की है जबकि अभी तक जहां भी इस तरह के प्रयोग किए गए हैं वहां किसानों का नुकसान ही हुआ है।
 
हरवीर सिंह बिहार का उदाहरण देकर बताते हैं कि वह एकलौता ऐसा राज्य है, जहां एपीएमसी कानून नहीं है और किसानों के उत्पाद बिना सरकारी मंडी व्यवस्था के सीधे बाजार के हवाले हैं। उसका नतीजा यह हो रहा है कि मक्के के 1,765 रुपए प्रति क्विंटल न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के मुकाबले बिहार के किसानों को अपनी मक्के की फसल 900 रुपए प्रति क्विंटल में बेचनी पड़ी।
 
हरवीर सिंह कहते हैं कि अगर मुक्त बाजार व्यवस्था ही आदर्श व्यवस्था होती तो बिहार के किसान हर साल बर्बाद न होते। किसानों से बात न करने की वजह से सरकार और किसानों के बीच भरोसे की कमी हो गई है और इसी वजह से विधेयकों का इतना विरोध हो रहा है।
 
जानकारों का कहना है कि तीनों विधेयकों में न्यूनतम समर्थन मूल्य का एक बार भी उल्लेख नहीं है और इसी वजह से उन्हें यह डर है कि सरकार कहीं इनके जरिए एमएसपी व्यवस्था ही खत्म तो नहीं कर देना चाह रही है। सरकार ने तो कहा है कि एमएसपी को खत्म करने की कोई योजना नहीं है, लेकिन किसानों से बात न करने की वजह से सरकार और किसानों के बीच भरोसे की कमी हो गई है और इसी वजह से विधेयकों का इतना विरोध हो रहा है।
 
देखना होगा कि इतने विरोध के बावजूद क्या सरकार एक के बाद एक करके तीनों विधेयक ले आएगी और संसद से पारित करा लेगी?

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