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क्यों कतर के साथ खड़ा है तुर्की?

क्यों कतर के साथ खड़ा है तुर्की?
, शुक्रवार, 16 जून 2017 (12:09 IST)
सऊदी अरब और अन्य खाड़ी देशों ने कतर के साथ अपने संबंध तोड़ लिये हैं लेकिन तुर्की अब भी कतर के साथ बना हुआ है। तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैयप एर्दोवान ने सऊदी खेमे के रुख को इस्लामी मूल्यों का उल्लंघन कहा है। कतर विवाद ने मध्यपूर्व में नये समीकरणों को जन्म दिया है। इसने मुस्लिम देशों को तटस्थ रहने को मुश्किल बना दिया है।

सऊदी अरब और ईरान ने अब मध्यस्थता की कोशिश कर रहे पाकिस्तान से भी अपनी स्थिति स्पष्ट करने को कहा है। इस पूरे मसले पर तुर्की के शिक्षाविद सेरहत एर्कमेन से बातचीत के मुख्य अंश।
 
डीडब्ल्यू : मध्य पूर्व विशेषज्ञ सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) और मिस्र जैसे देशों को यथास्थितिवादी शक्ति मानते हैं वहीं ईरान और कुछ हद तक तुर्की और कतर को संशोधनवादी मानते हैं। क्या आपको लगता है कि खाड़ी में पैदा हुआ मौजूदा संकट यथास्थितिवादी और संशोधनवादी शक्तियों के बीच का संघर्ष है।
 
एर्कमेन : अरब क्रांति के बाद से ही मध्यपूर्व में शक्ति संतुलन बिगड़ा हुआ है। इस क्षेत्र के कई हिस्सों में गृहयुद्ध जारी है। यहां तक कि ये गृहयुद्ध भी स्थानीय शक्तियों के मुताबिक समाप्त नहीं हो सके हैं। सऊदी अरब और ईरान को वह नहीं मिल रहा है जो वे चाहते थे। सीरिया की स्थिति से तो सभी वाकिफ है और यदि आप इस क्षेत्र की मुख्य शक्तियों को देखते हैं तो उनमें से कोई ऐसा नहीं है जो इन गृहयुद्धों में जीत की घोषणा कर सके।
 
अगर संघर्ष और शक्ति का असंतुलन बना रहता है तो इस पूरे क्षेत्र पर आर्थिक और राजनीतिक दबाव बढ़ जाता है और कहीं न कहीं इसका चरम बिंदु आता है। ये देश एक-दूसरे के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर सकते हैं या आपस में सामंजस्य स्थापित कर सकते हैं लेकिन वास्तविकता यह है कि मध्यपूर्व की शक्तियों में से फिलहाल कोई भी मौजूदा समस्याओं का सामना करने में सक्षम नहीं है। यही कारण है कि उन्हें अमेरिका, रूस और कुछ यूरोपीय देशों से मदद मिल रही है। इसलिये दोनों ही क्षेत्रीय और बाहरी शक्तियां मध्य-पूर्व में सत्ता संघर्ष में लगी हुई हैं और मुझे लगता है कि हमें इस पूरे मसले को कतर के चश्मे से नहीं देखना चाहिए क्योंकि समस्या कतर तक ही सीमित नहीं है।
 
डीडब्ल्यू : पिछले एक दशक के दौरान कतर और तुर्की के रिश्ते सकारात्मक रहे हैं। दोनों देशों ने साझा निवेश किये हैं साथ ही सैन्य प्रशिक्षण के लिये भी हामी भरी है। मौजूदा परिस्थितियों में कतर को तुर्की का सहयोग प्राप्त हो रहा है, क्या वह इनके सौहार्दपूर्ण रिश्तों का नतीजा है या तुर्की की इसके पीछे कोई सोची-समझी नीति है।
 
एर्कमेन : बेशक तुर्की और कतर के दोस्ताना संबंध है, विदेशी निवेश के मसले पर तुर्की के लिए कतर बेहद ही अहम है। इस पूरे क्षेत्र में संयुक्त अरब अमीरात की निवेश हिस्सेदारी सबसे अधिक है लेकिन तुर्की और संयुक्त अरब अमीरात एक दूसरे के खिलाफ रहे हैं।

मौजूदा परिस्थितियों में भी संयुक्त अरब अमीरात कतर विरोधी खेमे में है। यह भी सच है कि कतर, तुर्की में भारी निवेश कर रहा है और भविष्य में इसकी संभावनाएं भी अधिक हैं लेकिन इस पूरे मसले को महज आर्थिक पक्ष के बल पर ही नहीं समझा जा सकता। यदि आप तुर्की और कतर की सीरिया नीति और युद्धग्रस्त देश में उनके सहयोग को देखते हैं या आप 2013 में तख्तापलट के बाद मिस्र में स्थिति पर विचार करते हैं, तो एक दूसरे के लिए इनके समर्थन का मूल्यांकन आर्थिक रिश्तों से इतर क्षेत्रीय राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में भी किया जाना चाहिए। अगर क्षेत्रीय मसलों की बात करें तो कतर का इस तस्वीर से बाहर होना, तुर्की को अकेला कर सकता है और इसलिये तुर्की, कतर को नहीं खोना चाहता।
 
डीडब्ल्यू : कतर और सऊदी खेमे में चल रही इस राजनीतिक उठापटक को स्पष्ट करना तुर्की के किसी जानकार के लिये आसान नहीं है। आपके विचार में तुर्की पर इस खाड़ी संकट का क्या प्रभाव पड़ सकता है।
 
एर्कमेन : पारंपरिक रूप से तुर्की में खाड़ी क्षेत्र की अवधारणा अखंड है। लेकिन हालिया घटनाक्रम के बाद मुझे नहीं लगता कि इस सरल दृष्टिकोण को अपनाया जा सकता है। क्योंकि अगर आप सोशल मीडिया पोस्ट देखें और खाड़ी देशों पर नेताओं की टिप्पणियों पर ध्यान दें तो यह समझना आसान होगा कि अब इस क्षेत्र में इन विभिन्न देशों के बीच मौजूद नीतिगत प्राथमिकताओं की बारीकियों पर अधिक जोर दिया जा रहा है।
 
इंटरव्यू: चागरी ओएज्देमिर

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