राहुल गांधी का व्हाट्सऐप पर आपने एक नाम रॉल विंची पढ़ा होगा। उनकी एक गर्लफ्रेंड के बारे में भी पढ़ा होगा। इस सभी की असलियत आपको गलत बताई गई है। प्रधानमंत्री के घर पैदा होने से कांग्रेस अध्यक्ष बनने की कहानी दिलचस्प है।
22 मई, 1991 अमेरिका से भारत आ रही एक फ्लाइट में एक 21 साल का लड़का बैठा हुआ था। वो एक ऐसी यात्रा पर था जिस पर कोई भी कभी नहीं जाना चाहेगा। वो अपने पिता का अंतिम संस्कार करने जा रहा था जिनकी एक दिन पहले बम धमाका कर हत्या कर दी गई थी। बेटे को बस इतना पता था कि उसके पिता राजीव के शरीर के कुछ टुकड़े जुटाए गए हैं। शव की पहचान जूतों से हो सकी। इस लड़के का नाम राहुल गांधी था जो अमेरिका के रॉलिंस कॉलेज में एक दूसरे नाम से पढ़ाई कर रहा था। राहुल इस पूरी यात्रा में बस यही सोच रहे थे कि दो महीने पहले जब वो भारत छुट्टियां मनाने आए थे तब अपनी मां से कहा था कि पापा की सुरक्षा व्यवस्था सही नहीं है। अगर ऐसा ही चलता रहा तो जल्द ही उन्हें पापा के अंतिम संस्कार के लिए आना पड़ेगा। और वही हुआ भी।
राहुल गांधी जब पैदा हुए तब उनकी दादी इंदिरा देश की प्रधानमंत्री थीं। राहुल घर के बड़े पोते थे इसलिए दादी के ज्यादा करीबी थे। राहुल ने दिल्ली के मॉर्डन स्कूल से शुरुआती पढ़ाई की। 1982 में आगे की पढ़ाई करने के लिए राहुल दून स्कूल चले गए। राहुल के पिता राजीव हमेशा इस बात का ख्याल रखते थे कि राहुल सादगी से जीना सीखें। लेकिन एक प्रधानमंत्री के घर और भारत के सबसे बड़े राजनीतिक परिवार में पैदा होने के अपने फायदे और नुकसान थे। राहुल को सुरक्षा कारणों के चलते 1983 में वापस दिल्ली बुला लिया गया। राहुल और उनकी बहन प्रियंका को भी सुरक्षा घेरे में रखा गया। राहुल बचपन में घर से बाहर ना जा सकते थे और ना ही दूसरे बच्चे उनके घर में अंदर आ सकते थे। सुरक्षाकर्मियों के साथ ही राहुल खेला करते थे। 31 अक्टूबर, 1984 को उनकी दादी इंदिरा गांधी की उन्हीं सुरक्षाकर्मियों ने हत्या कर दी थी।
राहुल अपनी दादी के बहुत करीब थे और जिन सुरक्षाकर्मियों ने गोली मारी वो उनके दोस्त थे। इस घटना का राहुल पर मनोवैज्ञानिक रूप से बहुत असर पड़ा। इस घटना के बाद सुरक्षा एजेंसियों ने राहुल और प्रियंका के घर से बाहर निकलने पर रोक लगा दी। पांच साल तक की पढ़ाई घर में ही हुई। ऐसे में किशोरावस्था में राहुल वो सब चीजें नहीं सीख पाए जो युवा अपने दोस्तों के साथ अल्लहड़बाजी करते हुए और बाहरी दुनिया से सीखते हैं।
राहुल इस चारदीवारी से बाहर निकले 1989 में। जब उन्हें दिल्ली के सेंट स्टीफंस कॉलेज में दाखिला मिला। हालांकि स्टीफंस कॉलेज में राहुल के साथ सुरक्षाकर्मियों का एक भारी दस्ता रहता था। राहुल को घर से कॉलेज और कॉलेज से घर जाने की ही अनुमति थी। ऐसे में राहुल ने इस सुरक्षाघेरे से पीछा छुड़ाने के लिए देश से बाहर जाने का फैसला लिया। 1990 में राहुल ने अमेरिका के रोलिंस कॉलेज में दाखिला ले लिया। सुरक्षा कारणों के चलते वहां उनकी पहचान गुप्त रखी गई। वहां उनका एक छद्म नाम रॉल विंसी रखा गया। भारत सरकार के अलावा फ्लोरिडा पुलिस के बड़े अधिकारियों को ही राहुल के अमेरिका में होने की जानकारी थी। लेकिन इसके बाद अगला ही साल राहुल के लिए एक और त्रासदी लेकर आया।
21 मई 1991 को राहुल के पिता राजीव की एक बम धमाका कर हत्या कर दी गई। इसके बाद कुछ साल गांधी परिवार राजनीति से दूर हो गया। 1994 में अमेरिका से बैचलर की डिग्री लेने के बाद राहुल लंदन आ गए और कैंब्रिज में एमफिल के लिए दाखिला ले लिया। राहुल ने 1996 से 1999 तक लंदन में एक मैनेजमेंट कंसल्टेंसी फर्म मॉनिटर में काम किया। 2002 में राहुल ने भारत में बैंकॉप्स नाम की एक इंजीनियरिंग डिजायन आउटसोर्सिंग फर्म खोली। इस कंपनी पर आरोप लगे कि राहुल के राजनीतिक प्रभाव के चलते फर्म को बड़े प्रोजेक्ट आसानी से मिले। 2004 में राहुल के राजनीति में आने के बाद भी यह कंपनी चलती रही। 2011 में यह कंपनी बंद हो गई।
राजनीति में आने से पहले राहुल की एक गर्लफ्रेंड को लेकर बहुत चर्चाएं होती थीं। राहुल ने एक इंटरव्यू में उनके बारे में जिक्र किया। उन्होंने बताया कि इस महिला मित्र का नाम वेरोनिका है जो स्पेन की रहने वाली हैं और आर्किटेक्ट का काम करती हैं। वह कई बार राहुल के साथ छुट्टियां मनाते देखी गईं थी। लेकिन राजनीति में आने के बाद ये नहीं दिखाई दीं। गांधी परिवार के करीबी बताते हैं कि 2004 तक सोनिया गांधी के विदेश मूल का मुद्दा चर्चाओं में रहा था। ऐसे में वो नहीं चाहती थीं कि राहुल के साथ विदेशी गर्लफ्रेंड या पत्नी की वजह से ऐसा विवाद जुड़े। इसी वजह से उन्होंने राहुल को इस संबंध को खत्म करने की सलाह दी। इसके बाद अब तक राहुल ने शादी नहीं की।
2004 में राहुल ने राजनीति में एंट्री ले ली। उन्होंने पारिवारिक सीट अमेठी से चुनाव लड़ा और आसानी से जीते भी। इस चुनाव में कांग्रेस केंद्र की सरकार में आ गई। राहुल ने मनमोहन सिंह की सरकार में मंत्रीपद नहीं लिया। राहुल देश भर में घूमकर भारत के बारे में ज्यादा जानकारी इकट्ठा करने की कोशिश करने लगे। दलितों के घर रात गुजारना, नरेगा मजदूरों के साथ मिट्टी डालना, मुंबई की लोकल ट्रेन में सफर करना और स्कूल, कॉलेज के बच्चों से बातचीत करना शामिल थे। 2007 में उन्हें कांग्रेस का महासचिव बनाया गया। उन्हें यूथ कांग्रेस और एनएसयूआई का प्रभार दिया गया। राहुल ने यूथ कांग्रेस में बड़े बदलाव किए। पूरे देशभर में यूथ कांग्रेस संगठन के चुनाव हुए। एक करोड़ नए कार्यकर्ताओं को जोड़ा गया। कई कार्यकर्ताओं को आरटीआई की ट्रेनिंग दी गई। ये कार्यकर्ता आरटीआई से केंद्र सरकार की योजनाओं की मॉनिटरिंग करते थे। इसी मॉनिटरिंग से उत्तर प्रदेश में जननी सुरक्षा योजना में 9,000 करोड़ का घोटाला पकड़ा गया। हालांकि जहां कांग्रेस की सरकारें थीं वहां इन आरटीआई कार्यकर्ताओं की वजह से सरकार और यूथ कांग्रेस में कई जगह टकराव हुआ। इस प्रयोग को बंद करने के साथ ही यह टकराव भी बंद हुआ।
2009 में हुए लोकसभा चुनावों में राहुल ने कांग्रेस में सबसे ज्यादा रैलियां कीं। कांग्रेस 206 सीटें जीतने में सफल रही। इसके बाद तो मीडिया ने राहुल को पलकों पर बिठा लिया। उन्हें युवराज की उपाधि दे दी। इस चुनाव में कांग्रेस ने यूपी में अच्छी वापसी की। 80 में से 22 सीटें मिलीं। मनमोहन सिंह की अगुवाई में जब लगातार दूसरी बार यूपीए की सरकार बनीं तो उम्मीदें लगाई जाने लगीं कि राहुल कोई अहम मंत्रालय लेंगे और तजुर्बा बटोरेंगे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। "गांधी परिवार का सदस्य मंत्री बनने के लिए राजनीति में नहीं आता है" यह कहावत बरकरार रही।
लोकसभा चुनावों के बाद राहुल को लगा कि यह उत्तर प्रदेश विधानसभा में वापसी का अच्छा मौका है। विधानसभा चुनाव 2012 में होने थे। लेकिन इससे पहले राहुल को बहुत सी चुनौतियां पार करनी थीं। 2010 के बिहार विधानसभा चुनाव में राहुल ने जमकर प्रचार किया। लेकिन उसका कोई फायदा नहीं हुआ। कांग्रेस बस चार सीटों पर सिमट गई। इसके बाद राहुल की डगर मानो कठिन होती चली गई।
2011 में अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के समय राहुल ने लोकसभा में एक भाषण देने के अलावा कोई सक्रिय भूमिका नहीं दिखाई। राहुल इस पूरे आंदोलन के दौरान टीवी और सार्वजनिक रूप से कहीं नजर नहीं आए। 2जी और कॉमनवेल्थ घोटाले जैसे आरोप जब कांग्रेस पर लगे तो राहुल ने चुप्पी साधे रखी। राहुल ने यूपी चुनाव से पहले नोएडा के पास भट्टा परसौल गांव में किसान और पुलिस के बीच हुए टकराव को मुद्दा बनाया। धारा 144 के बावजूद वो वहां पहुंच गए। इसके बाद नोएडा से अलीगढ़ तक एक किसान पदयात्रा निकाल दी। लेकिन यह यात्रा ज्यादा सफल न हो सकी। 2012 में यूपी चुनाव में राहुल ने जमकर प्रचार किया लेकिन उनकी पार्टी महज 28 सीटें जीत सकीं जो पिछले बार से बस छह सीटें ज्यादा थीं।
इसी समय बीजेपी में नरेंद्र मोदी का उभार शुरू हुआ। नरेंद्र मोदी के प्रचार तंत्र में बड़ी भूमिका निभाने वाले आईटी सेल के निशाने पर राहुल आ गए। उनके ऊपर जोक बनाए जाने लगे। अफवाहें फैलाई जाने लगीं। उनके भाषणों की क्लिप काटकर शेयर की जाने लगीं। सोशल मीडिया और यूट्यूब पर पप्पू सर्च करने में राहुल नजर आने लगे। 2013 में केदारनाथ में आई आपदा के दौरान भी राहुल कहीं नहीं दिखाई दिए। इससे उनकी छवि छुट्टी पर रहने वाले राजनेता की बन गई।
2013 में जब उन्हें पार्टी का उपाध्यक्ष बनाया गया तब दिए गए भाषण में उन्होंने सत्ता को जहर बताया। कांग्रेस इस अवसर को राहुल की बड़ी लॉन्चिंग के लिए तैयार कर रही थी लेकिन यह फ्लॉप हो गया। दागी नेताओं को बचाने के लिए लाए गए अपनी ही सरकार के अध्यादेश को उन्होंने बकवास और फाड़कर फेंक देने लायक बताया। इसके बाद पार्टी के सीनियर नेता राहुल से नाराज हो गए। 2013 के आखिर में हुए पांच राज्यों के चुनावों में कांग्रेस चार जगह पर बुरी तरह से हारी। इसका कारण मोदी लहर ही थी। लेकिन राहुल का कम सक्रिय होना भी इसका कारण बना।
2014 के चुनाव में राहुल और उनकी पार्टी बिल्कुल आक्रामक न हो सके। इसका नतीजा ये हुआ कि कांग्रेस महज 44 सीटों पर सिमट गई। राहुल ने इस हार की जिम्मेदारी ली और इससे सबक लेने की बात कही। हालांकि कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेताओं का मानना था कि ये राहुल की नहीं बल्कि संगठन की हार है। राहुल ने लोकसभा में पार्टी का नेता बनने की जिम्मेदारी नहीं ली। 2015 में वो 55 दिन के लिए कहीं चले गए। इसके बाद मीडिया के अलावा कांग्रेस पार्टी भी उनके नेतृत्व को लेकर आशंकित हो गई। 2014 में हरियाणा, महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव से शुरू हुआ हार का सिलसिला लगातार चलता रहा। असम, पश्चिम बंगाल, केरल, तमिलनाडु, झारखंड, जम्मू कश्मीर, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में कांग्रेस हारी। इसके बाद राहुल के ऊपर लूजर का ठप्पा लग गया। राष्ट्रीय पार्टी सिर्फ चार राज्यों में सिमट चुकी थी। कांग्रेसियों को लगने लगा कि राहुल के अंदर नेतृत्व की क्षमता नहीं है। साथ ही राहुल की सलाहकार टीम को भी दोष दिया जाने लगा।
लेकिन अभी राहुल की राजनीति का एक उदय होना बाकी था। 2017 के दिसंबर में गुजरात में विधानसभा चुनाव होने थे। गुजरात चुनाव में जाने से पहले राहुल ने अमेरिका की बर्कले यूनिवर्सिटी में छात्रों से बात की। यहां राहुल का एक अलग ही अंदाज देखने को मिला। राहुल ने बहुत आत्मविश्वास से सबके सवालों का जवाब दिया और मोदी सरकार पर निशाना भी साधा। इसके बाद राहुल ने मीडिया और सोशल मीडिया में अपना प्रजेंस बढ़ा दिया। राहुल ने वरिष्ठ कांग्रेस नेता अशोक गहलोत को गुजरात कांग्रेस का प्रभारी बनाकर वहां भेजा। गुजरात प्रधानमंत्री मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह का गृह राज्य है। ऐसे में चुनौती और भी बड़ी थी। गुजरात में राहुल ने लगातार यात्राएं की। गुजरात में अलग-अलग आंदोलनों से उभर कर आए हार्दिक पटेल, जिग्नेश मेवानी और अल्पेश ठाकोर जैसे बड़े युवा नेताओं को अपने साथ लिया। राहुल के प्रचार और अशोक गहलोत की रणनीति ने गुजरात में भाजपा को मुश्किल में डाल दिया। 180 सीटों की विधानसभा में 150 प्लस का नारा लेकर चली भाजपा इस चुनाव में 99 पर सिमट गई। चुनाव से पहले 41 विधायकों वाली कांग्रेस 80 का आंकड़ा पार कर गई। कांग्रेस भले ही हार गई लेकिन 2014 से निराश कार्यकर्ताओं को गुजरात चुनाव ने जोश से भर दिया।
दिसंबर, 2017 में राहुल कांग्रेस के अध्यक्ष बन गए। राहुल ने संगठन में बड़े बदलाव किए। अशोक गहलोत को प्रभारी महासचिव बनाया। कई राज्यों के अध्यक्ष बदले गए। कहा गया राहुल ने अब अपनी टीम काम पर लगाई। अगला पड़ाव मई, 2016 में हुए कर्नाटक चुनाव थे। कर्नाटक में कांग्रेस को सत्ता बचानी थी। लेकिन वहां बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। बीजेपी बहुमत से थोड़ी दूर थी। लेकिन यहां कांग्रेस ने बीजेपी को उसी के खेल में हराया। 2017 में कांग्रेस से कम सीटों के बावजूद बीजेपी ने गोवा और मणिपुर में सरकार बनाई थी। कर्नाटक में यही बीजेपी के साथ हो गया। कांग्रेस ने जेडीएस के साथ गठबंधन कर लिया। राज्यपाल ने मुख्यमंत्री के रूप में येदियुरप्पा को शपथ दिला दी लेकिन उन्हें बहुमत साबित न कर पाने पर इस्तीफा देना पड़ा। ये कांग्रेस की बीजेपी पर बड़ी जीत थी। कांग्रेस ने जेडीएस के साथ कर्नाटक में सरकार बनाई और इसका श्रेय राहुल को दिया गया।
इसके बाद से राहुल सीधे प्रधानमंत्री मोदी पर हमलावर हो गए। उन्होंने नरेंद्र मोदी पर राफाल डील में अनिल अंबानी को फायदा पहुंचाने का आरोप लगाया। राहुल ने चौकीदार चोर है का नारा दिया। ये नारा कांग्रेस कार्यकर्ताओं की जुबान पर चढ़ गया।
राहुल के कद को मजबूत किया दिसंबर, 2018 में हुए तीन हिंदी पट्टी के राज्यों के चुनाव ने। इन तीनों राज्यों राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा की सरकार थी। कांग्रेस बिना कोई चेहरा घोषित किए राहुल गांधी के नाम पर तीनों राज्यों में चुनाव लड़ी। 2014 के बाद कांग्रेस ने किसी विधानसभा चुनाव में अकेले भाजपा को नहीं हराया था। इन तीनों राज्यों को बीजेपी का गढ़ और काऊ बेल्ट का इलाका माना जाता है। लेकिन यहां राहुल की कांग्रेस ने बीजेपी को पटखनी दे दी। तीनों राज्यों में कांग्रेस ने बीजेपी को हराकर सत्ता हासिल की। संगठन ने इसका पूरा श्रेय राहुल गांधी के सिर बांधा।
तीन राज्यों में जीत के बाद से कांग्रेस के हौसले बुलंद हैं। राहुल अब राफाल के मुद्दे पर नरेंद्र मोदी को बहस की चुनौती देते हैं। वो लगातार प्रेस कॉन्फ्रेंस कर रहे हैं। देशभर में अलग-अलग तबकों के लोगों से बात कर रहे हैं। न्यूनतम आय की योजना (न्याय) का खाका लेकर आए हैं। और पूरा भरोसा जता रहे हैं कि देश की जनता उन पर विश्वास जताएगी।
2014 की तुलना में इस बार राजनीति को लेकर कुछ अहसास बदले से है। राहुल गांधी अब पप्पू की छवि में कैद नहीं हैं, नरेंद्र मोदी का पुराना करिश्मा नदारद है। सुशासन और कांग्रेस मुक्त भारत का नारा बासी हो चुका है। राहुल गांधी के लिए मुफीद मौका है। वह "न्याय" का वादा कर रहे हैं। उनके सामने मोदी और महागठबंधन है। इस त्रिकोणीय मुकाबले में पता चल जाएगा कि 2004 से भारतीय राजनीति में छाने की कोशिश कर रहे राहुल गांधी सफलता या असफलता के किस स्तर पर ठहरेंगे। 23 मई की शाम बता देगी कि क्या राहुल ही कांग्रेस का भविष्य होंगे या सत्ता से लंबी होती दूरी प्रियंका गांधी को पार्टी का नया चेहरा बना देगी।