इस साल भारत में आया प्रत्यक्ष विदेशी निवेश 81.7 बिलियन डॉलर यानी 60 खरब रुपए से ज्यादा रहा है। पिछले साल के मुकाबले इस साल FDI में 10 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। और यह एक वित्तीय वर्ष में आया अब तक का सबसे ज्यादा FDI है।
भारत को मिले रिकॉर्ड विदेशी निवेश पर भारत सरकार का कहना है कि एफडीआई पॉलिसी में सुधार, निवेश के लिए सुविधाएं देने और ईज ऑफ डूइंग बिजनेस के मोर्चों पर सरकार की ओर से उठाए गए कदमों ने देश में आने वाले एफडीआई को बढ़ाया है। जानकारों के मुताबिक भारत जैसे विकासशील देशों में उद्योग-धंधे बढ़ाने और नौकरियां पैदा करने में एफडीआई का अहम रोल होता है। इससे देश के बुनियादी ढांचे का विकास भी होता है। हालांकि अब तक एफडीआई और नौकरियों के बीच सीधा संबंध नहीं बिठाया जा सका है।
कलिंग इंस्टीट्यूट ऑफ इंडस्ट्रियल टेक्नोलॉजी में इकोनॉमिक्स की प्रोफेसर स्वप्नमयी पी पाटिल कहती हैं कि एफडीआई और नौकरियों के बीच संबंध जानने के लिए की गई रिसर्च में पाया गया है कि इनके बीच कोई सीधा संबंध नहीं होता। यानी ऐसा नहीं कहा जा सकता कि इतना एफडीआई आने पर इतनी नौकरियां पैदा होंगी। लेकिन इससे प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तौर पर नौकरियां जरूर पैदा होती हैं। प्रोफेसर पाटिल कहती हैं कि नौकरियों की संख्या देश के आकार और इस तथ्य पर निर्भर करती हैं कि इंवेस्टमेंट किस क्षेत्र में आ रहा है।
रिकॉर्ड एफडीआई से क्यों नहीं बने रोजगार
रिकॉर्ड एफडीआई आने के बावजूद भारत में नौकरियों के अवसर नहीं बने। जानकारों के मुताबिक दरअसल भारत सरकार की अपनी पीठ थपथपाने वाली प्रेस रिलीज से एफडीआई की असल स्थिति स्पष्ट नहीं होती। इसमें सिर्फ बिजनेस सेगमेंट और राज्यों को मिले एफडीआई की लिस्ट दे दी गई है। विदेशी निवेश पर ढंग से रोशनी डालने वाला डॉक्यूमेंट रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया का बुलेटिन है। जिसमें ज्यादा स्पष्ट जानकारियां हैं। इसके मुताबिक 60 खरब रुपए के जिस कुल प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की बात सरकार की ओर से कही गई है, उसके दो हिस्से हैं। पहला, सीधे भारत में हुआ निवेश और दूसरा, विदेशी निवेशकों द्वारा भारत से निकाला गया पैसा।
इन आंकड़ों से पता चलता है कि भारत में हुए सीधे निवेश में इस साल 2.4 प्रतिशत की गिरावट आई है। और विदेशी निवेशकों ने इस साल, पिछले साल के मुकाबले 47 प्रतिशत ज्यादा पैसा भारत से निकाला है। रिजर्व बैंक मानता है कि भारत में हुए सीधे निवेश और कुल एफडीआई आंकड़ों में भारी अंतर है। जानकारों के मुताबिक कुल विदेशी निवेश में 10 फीसदी की बढ़ोतरी का दावा करने के लिए आंकड़ों में नेट पोर्टफोलियो इंवेस्टमेंट को भी शामिल कर लिया गया है।
पोर्टफोलियो इंवेस्टमेंट के आंकड़ों से हुआ खेल
यह वह पैसा है जिसे कंपनियां भारत में लंबे समय के लिए लगाने के बजाए कुछ महीनों या सालों के लिए लगाती हैं और फायदा होने के बाद निकाल लेती हैं। ऐसे निवेश से न ही किसी देश के लोगों को नौकरियां मिलती हैं और न ही वहां बुनियादी ढांचे का विकास होता है। साल 2020-21 में विदेशी निवेशकों ने ऐसा ही किया। इन्होंने भारत में निवेश करने के बजाए भारतीय कंपनियों के कुछ शेयर खरीद लिए। इस तरह ऐसी कंपनियों का निवेश जो साल 2019-20 में मात्र 1 खरब रुपए था, वह साल 2020-21 के आंकड़ों में बढ़कर 25 गुना से ज्यादा हो गया।
साल 2020-21 के आंकड़ों के मुताबिक इन नेट पोर्टफोलियो इंवेस्टर्स ने 27 खरब रुपए से ज्यादा का निवेश किया और भारतीय कंपनियों के शेयर खरीदे। इससे नौकरियां तो नहीं आई लेकिन भारतीय शेयर बाजार में सकारात्मक माहौल जरूर बना और भारत का सबसे प्रमुख सूचकांक सेंसेक्स 50 हजार के पार चला गया जबकि कोरोना के दौर में देशव्यापी लॉकडाउन की घोषणा के दौरान यह मात्र 27 हजार के स्तर पर था। इससे गरीबों का जीवन स्तर तो नहीं सुधरा लेकिन अमीर लोगों के पास पैसा और बढ़ गया।
सेंटर फॉर डेवलपमेंट स्टडीज त्रिवेंद्रम के प्रो। आर नागराज के शब्दों में कहें तो कम समय के लिए भारतीय कंपनियों में लगाया जाने वाला पैसा एफडीआई में इस उछाल के लिए पूरी तरह से जिम्मेदार है। वे कहते हैं कि आधिकारिक दस्तावेज में इन अलग-अलग तरहों के निवेश के अंतर को मिटा दिया गया है। जिससे भारत में एफडीआई की बढ़ोतरी बहुत ज्यादा और इसका आंकड़ा बहुत बड़ा दिख रहा है।
बंपर कमाई करके रिलायंस ने दी कितनी नौकरियां
अब तक विदेशी निवेश के लिए साल 2020-21 की पहली 3तिमाहियों का ही विस्तृत डाटा मौजूद है। जिससे कंपनियों की इक्विटी में हुए निवेश का पता चलता है। इन 3तिमाही में कुल निवेश का 86 प्रतिशत हो चुका था। जिन कंपनियों के पास एफडीआई का सबसे बड़ा हिस्सा आया, उनमें से पहली 3सिर्फ रिलायंस ग्रुप की कंपनियां हैं। जियो प्लेटफॉर्म्स, रिलायंस रीटेल वेंचर्स और रिलायंस बीपी मोबिलिटी नाम की इन कंपनियों में भारत के कुल इक्विटी निवेश का 54 फीसदी से ज्यादा यानी करीब 20 खरब रुपए निवेश किया गया है।
यह निवेश ज्यादातर बड़ी अमेरिकी कंपनियों ने किया है। सोशल मीडिया कंपनी फेसबुक, सर्च इंजन गूगल, इक्विटी निवेशक केकेआर एंड को। और सेमीकंडक्टर कंपनी क्वॉलकॉम सहित 14 कंपनियों ने मिलकर यह निवेश किया है। निवेश करके ये कंपनियां रिलायंस में शेयरधारक बन गई हैं। कुछ दिनों पहले रिलायंस इंडस्ट्रीज के चेयरमैन मुकेश अंबानी ने बताया था रिलायंस ने साल 2020-21 में 75 हजार नौकरियों के अवसर पैदा किए और 50 हजार फ्रेशर्स की भर्ती की है।
विदेशी निवेश से हुई कमाई के सही उपयोग पर भी सवाल उठाए जाते रहे हैं। बिजनेस जर्नलिस्ट ऑनिंद्यो चक्रवर्ती कहते हैं कि मुझे नहीं लगता कि यह 20 खरब रुपए का उचित उपयोग है। यह इतनी बड़ी रकम है कि इसे 50 हजार छोटे उद्योगों में निवेश किया जाता तो वे लाखों नौकरियां पैदा करते। दरअसल बड़ी कंपनियां सिर्फ अपने अच्छे रिटर्न के लिए निवेश करती हैं। भारत में उन्हें निवेश बाजार में मांग ही नहीं दिख रही। इसलिए वे केवल बड़े उद्योगपतियों की कंपनी में सारा निवेश कर रही हैं।
फायदे के बजाए नुकसान पहुंचा सकता है FDI
आरबीआई ने भी अपनी रिपोर्ट में एफडीआई के बंटवारे पर चिंता जताई है। अगर पांच सबसे बड़ी एफडीआई डील छोड़ दें तो 2020-21 में पिछले साल के मुकाबले एफडीआई में एक-तिहाई की गिरावट दर्ज की गई है। जेएनयू में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर डॉ। बिस्वजीत धर के शब्दों में कि ऐसा निवेश जिससे देश में उत्पादक संपत्ति की बढ़ोतरी नहीं हुई, वह इस उम्मीद पर भी पानी फेर रहा है कि अर्थव्यवस्था को उबारने में एफडीआई का रोल हो सकता है। सरकार की उम्मीदों से उलट कुल एफडीआई का सिर्फ 17 फीसदी मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में आना भी इस बात को बल देता है।
जानकारों के मुताबिक सरकार देश से बाहर जाते निवेश, निवेश में आई कमी और बढ़ती बेरोजगारी दर की कटु आलोचना से बचने के लिए एफडीआई के आंकड़ों का सहारा लेती रही है। लेकिन घरेलू उत्पादन में बढोतरी और भारत में होने वाले निवेश में एफडीआई का रोल मामूली ही है। यह प्रक्रिया जारी रही तो बढ़ता एफडीआई न सिर्फ विकास लाने और रोजगार पैदा करने में पूरी तरह अप्रभावी हो जाएगा बल्कि अपने आदर्श रूप से उलट वह भारत में अमीरी और गरीबी के अंतर को और बढ़ाने वाला साबित होगा।