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पारसियों की नई उम्मीद "जियो पारसी"

पारसियों की नई उम्मीद
, शुक्रवार, 10 नवंबर 2017 (11:37 IST)
सरकारी फंड से शुरू किया गया आईवीएफ कार्यक्रम भारत में पारसी समुदाय की सिमटती आबादी के लिए खुशी का पैगाम लेकर आया है। चार सालों में 120 बच्चे पैदा हुए हैं। तो फिर इसकी आलोचना क्यों हो रही है?
 
मुंबई में हर रोज दो पारसी मरते हैं और चार पारसियों के मरने पर एक बच्चे का जन्म होता है। "जियो पारसी" नाम से ये पहल इसलिए शुरू की गयी ताकि भारत के पारसी समुदाय की लगातार घट रही आबादी को किसी तरह रोका जा सके। इस कार्यक्रम में पारसी जोड़ों को मुफ्त में कृत्रिम गर्भाधान की सुविधा मुहैया करायी जाती है और इसे समुदाय के प्रभावशाली लोगों ने भी सफल माना है। हालांकि बहुत से लोग इस कार्यक्रम की आलोचना भी करते हैं। उन्हें लगता है कि जिस तरह इस अभियान का प्रचार किया गया उससे यह संदेश जाता है कि पारसी समुदाय बच्चे नहीं पैदा कर पा रहा है। यह पारसियों की उस कट्टर धारणा को भी मजबूत करता है कि समुदाय के लोगों को सिर्फ आपस में संसर्ग के जरिए ही बच्चे पैदा करने चाहिए।
 
मुंबई के अस्पी और पर्सिस कामखान के लिए यह एक अनोखा मौका था बच्चा पाने का क्योंकि पिछले 12 साल से यह मुमकिन नहीं हो पाया था। अब 3 साल की बच्ची की मां हो चुकीं 38 साल की पर्सिस कहती हैं, "हमने सारी उम्मीदें छोड़ दी थीं लेकिन जियो पारसी एक बड़ा वरदान था जिसने हमारी जिंदगी पूरी तरह से बदल दी।"
 
पारसी लोग करीब एक हजार साल पहले ईरान में प्रताड़ना झेलने के बाद भाग कर भारत आये। पारसी समुदाय पैगंबर जोरो के उपदेशों पर चलता है और उनके मंदिरों में अग्नि की आराधना होती है। यह समुदाय ब्रिटिश राज में काफी फला फूला और भारत के सबसे अमीर और ताकतवर समुदाय के रूप में उभरा। टाटा, वाडिया और गोदरेज घराने सभी पारसी समुदाय के ही हैं। हालांकि बीते दशकों में उनकी आबादी लगातार घटती गयी। दुनिया में पारसी समुदाय की सबसे बड़ी आबादी भारत में है लेकिन 1940 के बाद उनकी तादाद घटते घटते आधी रह गयी। 2011 की जनगणना के मुताबिक भारत में कुल पारसियों की संख्या 57,264 है।
लगातार घटती आबादी के कारण समुदाय के अस्तित्व पर मंडराते खतरे की चेतावनी दी जाने लगी। साल 2013 में भारत सरकार ने "जियो पारसी" अभियान शुरू किया। इस अभियान के तहत मां बाप बनने वालों को सलाह देने वाली केटी गांदेविया कहती हैं, "जियो पारसी के दो बुनियादी मकसद थे, पहला पारसियों की घटती संख्या को रोकना और दूसरा उनकी आबादी बढ़ाना।"
 
इस कार्यक्रम के तहत आर्थिक मदद दी जाती है। कृत्रिम गर्भाधान यानी आईवीएफ पर आने वाले खर्च का 50 से 100 फीसदी तक सरकार उठाती है। कितनी मदद मिलेगी, इसका फैसला दंपतियों की आर्थिक स्थिति देख कर होता है। जो लोग बच्चा चाहते हैं और उनके पास पैसे की कमी है उनके लिए ये योजना वरदान की तरह है। पारसी समुदाय में ज्यादातर लोग पढ़े लिखे और आर्थिक रूप से ठीक स्थिति में है लेकिन ये लोग फिर जल्दी शादी नहीं करते और दूसरे भारतीय समुदायों की तुलना में इनका परिवार छोटा होता है। यही वजह है कि इस समुदाय में जन्मदर कम है।
 
रुढ़िवादी लोग पारसी लोगों पर अपने समुदाय में शादी करने के लिए दबाव डालते हैं। ऐसे में, जोड़ा बनाने के लिए साथी की संख्या और घट जाती है। समुदाय के सुधारवादी लोग हालांकि इस भावना को भी पारसियों की घटती आबादी का सबब मानते हैं। समुदाय से बाहर शादी करने वाली लड़की के बच्चों को पारसी अपने प्रार्थना स्थलों में जाने से रोक देते हैं। हालांकि अगर कोई पुरुष समुदाय से बाहर किसी लड़की से शादी करता है तो भी उसके बच्चों पर यह रोक लागू नहीं होती।
 
इस कार्यक्रम की आलोचना करने वाली सिमिन पटेल भी पारसी हैं। उनका कहना है, "इन बच्चों का समुदाय में स्वागत किया जाना समुदाय की संख्या को बढ़ाने का स्वाभाविक तरीका होता, उसकी जगह उन बच्चों और उनके मां बाप का त्याग कर दिया गया है।" बॉम्बेवाला के नाम से ऑनलाइन ब्लॉग लिखने वाली सिमिन का यह भी कहना है कि सरकार "चुनिंदा नस्ली प्रजनन" को बढ़ावा दे रही है।
 
समुदाय के कुछ लोगों ने हाल ही में इस कार्यक्रम के प्रचार के लिए चलाये गये पोस्टर अभियान का विरोध किया है। उनका कहना है कि यह पितृसत्तात्मक, उच्चवर्गवादी है और बेऔलाद मांओं को कलंकित करती है। एक पोस्टर में दिखता है कि एक आदमी कुर्सी पर बैठा है और कैप्शन है, "आपके मां बाप के बाद आपको आपका पारिवारिक घर मिलेगा, आपके बाद आपके नौकर को।" इसी तरह एक और पोस्टर है, "जिम्मेदार बनो, आज रात कॉन्डोम इस्तेमाल मत करना।"
 
हालांकि "जियो पारसी" के कॉर्डिनेटर पर्ल मिस्त्री बताते हैं, "जोड़े कहते हैं कि जियो पारसी लंबी गहरी सुरंग के सिरे पर एक उम्मीद की एक किरण है और हम उसकी ओर जा रहे हैं।"
 
एएफपी/एके (एएफपी)
 

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