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इन चुनावों में क्यों बढ़े 'नोटा' के समर्थन में वोट?

इन चुनावों में क्यों बढ़े 'नोटा' के समर्थन में वोट?
, मंगलवार, 28 मई 2019 (19:26 IST)
नोटा अर्थात इनमें से कोई नहीं (NONE OF THE ABOVE)। 17वीं लोकसभा के लिए कुल मतदान में नोटा की हिस्सेदारी यूं तो एक प्रतिशत से कुछ ज्यादा की ही रही लेकिन ऐसी कई सीटें थीं जहां जीत और हार के अंतर से कई गुना ज्यादा वोट नोटा के पक्ष में पड़े और कई सीटें ऐसी रहीं जहां प्रमुख पार्टियों के दो या तीन उम्मीदवारों के बाद नोटा का ही स्थान था।
 
 
लोकसभा चुनाव के दौरान नोटा का विकल्प दिग्गजों की सीट पर भी खूब इस्तेमाल हुआ है। कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी के निर्वाचन क्षेत्र रायबरेली में दूसरे स्थान पर भाजपा के दिनेश प्रताप सिंह रहे जबकि तीसरे स्थान पर नोटा रहा। यहां नोटा को कुल 10,252 वोट पड़े। बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह के निर्वाचन क्षेत्र गांधीनगर में नोटा 14,214 वोटों के साथ तीसरे स्थान पर रहा। जबकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सीट वाराणसी में नोटा 4 हजार से ज्यादा वोट हासिल कर पांचवें स्थान पर रहा।
 
 
गृहमंत्री राजनाथ सिंह की सीट लखनऊ पर नोटा सात हजार वोटों के साथ चौथे स्थान पर रहा जबकि आजमगढ़ में जिस सीट पर सपा प्रमुख अखिलेश यादव जीते वहां भी नोटा को चौथा स्थान हासिल हुआ। ऐसी कई सीटें रहीं जहां अन्य निर्दलीय उम्मीदवारों की तुलना में सबसे ज्यादा वोट नोटा को ही मिले।
 
 
2019 के लोकसभा चुनावों में सबसे ज्यादा नोटा का बटन दबाने का रिकॉर्ड असम और बिहार की जनता ने बनाया। बिहार के 8।17 लाख मतदाताओं ने नोटा का इस्तेमाल किया जबकि राजस्थान में 3.27 लाख मतदाताओं ने नोटा का विकल्प चुना। राजस्थान में तो नोटा का बटन इतना दबा कि उसका आंकड़ा भाकपा, माकपा और बसपा के उम्मीदवारों को मिले कुल वोटों से भी ज्यादा रहा।
 
 
चुनाव आयोग के आंकड़ों के मुताबिक बिहार में 40 लोकसभा सीटों पर हुए कुल मतदान में 2 प्रतिशत लोगों ने नोटा का चयन किया। दमन और दीव में 1.7 फीसदी, आंध्र प्रदेश में 1.49 फीसदी, छत्तीसगढ़ में 1.44 फीसदी मतदाताओं ने नोटा को चुना। पंजाब में 1.12 प्रतिशत लोगों ने नोटा का विकल्प चुना है जबकि राजधानी दिल्ली में 45 हजार से ज्यादा लोगों ने नोटा का बटन दबाया।
 
 
छत्तीसगढ़ में दो लाख से ज्यादा मतदाताओं ने नोटा का प्रयोग किया और सबसे ज्यादा यह प्रयोग बस्तर समेत कुछ आदिवासी इलाकों में हुआ। उत्तर में जम्मू-कश्मीर से लेकर दक्षिण में तमिलनाडु तक और पूर्व में बंगाल बिहार से लेकर पश्चिम में गुजरात तक हर जगह मतदाताओं ने कोई भी उम्मीदवार न पसंद आने की स्थिति में नोटा का बटन दबाया। सीटों के हिसाब से देखें तो सबसे ज्यादा नोटा का इस्तेमाल बिहार के गोपालगंज में हुआ है जहां पचास हजार से ज्यादा लोगों ने नोटा का विकल्प चुना।
 
 
लेकिन सबसे दिलचस्प उदाहरण तो आंध्र प्रदेश में दिखा जहां नोटा देश की राष्ट्रीय पार्टियों के मुकाबले आगे निकल गया। राज्य में लोकसभा चुनाव में 1.5 फीसदी वोटरों ने जहां नोटा का बटन दबाया, वहीं बीजेपी को सिर्फ 0.96 फीसदी वोट मिले जबकि एक समय प्रदेश की सत्ता पर एकछत्र राज करने वाली कांग्रेस पार्टी भी जगनरेड्डी की आंधी में उड़ गई। कांग्रेस को यहां सिर्फ 1.29 फीसदी वोट ही मिल सके। जगनमोहन रेड्डी की पार्टी वाएसआर कांग्रेस को आंध्र प्रदेश में बीस सीटें हासिल हुई हैं।
 
 
नोटा एक ऐसा विकल्प है जिसे गिना जरूर जाता है लेकिन इससे चुनाव के नतीजों पर कोई असर नहीं पड़ता है। निर्वाचन आयोग ने दिसंबर 2013 के विधानसभा चुनावों में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन में पहली बार नोटा का विकल्प उपलब्ध कराने के निर्देश दिए थे। 2014 के लोकसभा चुनाव में देश भर में साठ लाख से ज्यादा लोगों ने नोटा का इस्तेमाल किया और इस बार भी ये आंकड़ा उससे कहीं ज्यादा ही हैं।
 
 
यूं तो नोटा को लेकर राजनीतिक रूप से पार्टियां मतदाताओं को हतोत्साहित करने का ही प्रयास करती हैं और नोटा पर वोट न डालने की अपील करती हैं लेकिन पिछले साल कुछ राज्यों में हुए चुनावों के बाद नोटा को लेकर सोशल मीडिया पर कुछ समूहों ने जमकर अभियान चलाया था। उसका नतीजा था कि पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में और फिर 2019 के लोकसभा चुनाव में नोटा का जमकर इस्तेमाल हुआ।
 
 
वरिष्ठ पत्रकार अरविंद कुमार सिंह कहते हैं, "नोटा का इस्तेमाल भले ही कम लोग कर रहे हों लेकिन जो भी कर रहे हैं, उनकी मन:स्थिति को समझना चाहिए। नोटा पर कोई भी व्यक्ति तभी बटन दबा रहा होता है जब उसकी निगाह में कोई भी उम्मीदवार वोट लेने के काबिल नहीं दिखता। यह राजनीतिक पार्टियों के ऊपर कितना बड़ा सवालिया निशान है। ऐसे लोग निश्चित तौर पर राजनीतिक दलों के प्रति न सिर्फ नाराजगी दिखाते हैं बल्कि अपनी विवशता और खीज का भी इजहार करते हैं। लेकिन नोटा को वोट देकर ये भी बताते हैं कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया में उनका भरोसा कायम है क्योंकि प्रतिरोध की ताकत का अहसास वे करा रहे हैं।"
 
 
बिना किसी चुनाव प्रचार और जानकारी के इतनी बड़ी संख्या में नोटा को मिलने वाले और लगातार बढ़ रहे मतों की संख्या एक नई राजनीतिक विमर्श को जन्म दे रही है। इस बार कई जगहों पर हार-जीत का अंतर पांच-छह हजार मतों का रहा जबकि उन्हीं सीटों पर नोटा को 25 हजार तक वोट भी मिले हैं। इससे अब नोटा का महत्व राजनीतिक दलों के उम्मीदवार भी समझ रहे हैं।
 
 
पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त टीएस कृष्णमूर्ति ने पिछले साल ही कहा था कि उन निर्वाचन क्षेत्रों में फिर से चुनाव कराए जाने चाहिए जहां जीत का अंतर नोटा मत संख्या की तुलना में कम हो और विजयी उम्मीदवार एक तिहाई मत जुटाने में भी नाकाम रहे हों। दरअसल नोटा मतदाता को यह अधिकार देता है कि वह किसी खास सीट से चुनाव लड़ रहे किसी भी उम्मीदवार के लिए मतदान न करे।
 
 
गुजरात में पिछले साल हुए विधानसभा चुनावों में 5.5 लाख से अधिक और करीब दो प्रतिशत मतदाताओं ने नोटा बटन दबाया था जबकि कई विधानसभा क्षेत्रों में जीत का अंतर नोटा मतों की संख्या से कम था। गुजरात विधानसभा चुनावों में नोटा मतों की संख्या कांग्रेस और भाजपा को छोड़कर किसी भी अन्य पार्टी के मतों की संख्या से अधिक थी।
 
 
रिपोर्ट समीरात्मज मिश्र
 

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