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जातीय हिंसा की सबसे बड़ी शिकार हैं मणिपुरी महिलाएं

जातीय हिंसा की सबसे बड़ी शिकार हैं मणिपुरी महिलाएं

DW

, शुक्रवार, 21 जुलाई 2023 (08:23 IST)
Manipur Violence : मणिपुर से दो निर्वस्त्र महिलाओं के वायरल वीडियो ने कई चीजें बदल दी हैं। पहली बार प्रधानमंत्री ने इस पर टिप्पणी की, पहली बार मणिपुर मीडिया की मुख्यधारा में आया और सुप्रीम कोर्ट ने भी पहली बार इस घटना का संज्ञान लिया है।
 
4 मई का यह वीडियो अब पहली बार सामने आया है। जानकारों का कहना है कि यह वीडियो को महज एक झांकी है। इंटरनेट पर पाबंदी हटने के बाद ऐसी सैकड़ों तस्वीरें और वीडियो सामने आ सकते हैं। इस वीडियो ने यह भी साबित कर दिया है कि बीते 79 दिनों से राज्य में जारी जातीय हिंसा की सबसे बड़ी मार देश के दूसरे राज्यों के मुकाबले ज्यादा सामाजिक रुतबा रखने के बावजूद यहां की महिलाओं पर ही पड़ी है।
 
महिलाओं से दुर्व्यवहार के कई मामले
मणिपुर में मैतेई और कुकी तबके के बीच बड़े पैमाने पर जातीय हिंसा, आगजनी और एक-दूसरे के प्रति अविश्वास की खाई बढ़ने की खबरें तो अशांति के पहले दिन से ही सामने आने लगी थीं। हालांकि यह पहला मौका है जब महिलाओं के साथ ऐसे अमानवीय अत्याचार का कोई वीडियो सामने आया है। इस वायरल वीडियो में पीड़ित महिलाएं कुकी तबके की हैं। इससे साफ है कि हमलावरों में मैतेई तबके के लोग ही शामिल हैं।
 
कुकी आदिवासियों के सबसे बड़े संगठन कुकी इंपी मणिपुर (केआईएम) के महासचिव के। गांग्टे इस घटना की मिसाल देते हुए कहते हैं, "हम बहुत पहले से ही मैतेई लोगों के अत्याचारों की बात कहते आ रहे थे। लेकिन कोई हमारा भरोसा नहीं कर रहा था। सरकार और पुलिस मैतेई तबके के साथ थी। अब इस वीडियो ने हमारे आरोपों को साबित कर दिया है। आप ही बताएं कि आखिर मौजूदा परिस्थिति में हम अब मैतेई लोगों के साथ कैसे रह सकते हैं?"
 
कुकी नेता का दावा है कि राज्य में इंटरनेट बंद होने के कारण ऐसी तस्वीरें और वीडियो सामने नहीं आ पा रहे हैं। इंटरनेट से पाबंदी खत्म होते ही ऐसे फोटो और वीडियो की बाढ़ आ जाएगी। उनका कहना है कि यह पहला या अंतिम मामला नहीं है। मानवता को शर्मसार करने वाली ऐसी कई कहानियां पर्वतीय इलाकों के लगभग हर गांव में सुनने को मिल जाएंगी। यहां उन लोगों ने शरण ली है जो हिंसा शुरू होने के बाद किसी तरह जान बचा कर अपने गांव लौटने में कामयाब रहे थे।
 
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दोनों तरफ हैं पीड़ित महिलाएं
कुकी समुदाय के एक युवक टी हाओकिप का आरोप है कि राज्य सरकार में मैतेई तबके के लोगों का बोलबाला है और सरकार और प्रशासन भी खुल कर उसके साथ हैं। ऐसे में उनसे समस्या के समाधान की उम्मीद करना बेमानी है। अपनी दलीलों के समर्थन में वे चार मई के ताजा वीडियो की मिसाल देते हैं। उनका कहना है कि अभी तो राज्य में इंटरनेट पर पाबंदी है। एक बार इसके खत्म होने के बाद यहां से ऐसी-ऐसी तस्वीरें और वीडियो सामने आएंगे जो मानवता को शर्मसार कर देंगे।
 
कुकी समुदाय का दावा है कि ऐसे तमाम अत्याचार मैतेई तबके के लोगों ने ही किए हैं। लेकिन मैतेई तबके में भी ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो कुकी लोगों के अत्याचारों की कहानियां सुनाते मिल जाएंगे। करीब ढाई महीने से राजधानी इंफाल के एक राहत शिविर में रहने वाले एम। जॉय सिंह (बदला हुआ नाम) अपने परिवार के साथ कुकी बहुल कांग्पोक्पी जिले में रहते थे। हिंसा शुरू होने के बाद वे परिवार के सात सदस्यों के साथ किसी तरह जान बचा कर इस राहत शिविर तक पहुंचे थे।
 
सिंह बताते हैं कि कुकी उग्रवादियों ने परिवार की दो महिलाओं के साथ घर के पुरुषों के सामने ही बलात्कार किया और किसी को इस बारे में बताने पर जान से मारने की धमकी दी। सिंह बताते हैं, "यहां करीब ढाई महीने कैसे गुजारे हैं, यह शब्दों में बयान करना मुश्किल है। बरसों से आपसी सद्भाव से साथ रहने वाले पड़ोसी एक पल में इज्जत और जान के दुश्मन बन जाएंगे, इसकी मैंने कभी कल्पना तक नहीं की थी।"
 
महिलाओं को ज्यादा अधिकार
मणिपुर में महिलाओं को सामाजिक तौर पर पुरुषों के मुकाबले ज्यादा अधिकार मिले हैं। राजनीति के इतर बाकी तमाम क्षेत्रों में उनकी भूमिका बेहद अहम है। एशिया का सबसे बड़ा महिला बाजार एमा मार्केट भी राजधानी इंफाल में ही है। यहां की महिलाओं का अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन का लंबा इतिहास रहा है। इसके अलावा राज्य में लागू शराबबंदी में भी इनकी भूमिका काफी महत्वपूर्ण रही थी। यह कहना ज्यादा सही होगा कि इनके आंदोलन के कारण ही सरकार को शराबबंदी लागू करनी पड़ी थी। राज्य में उग्रवाद चरम पर होने के दौरान भी कभी महिलाओं के साथ अत्याचार की कोई घटना सामने नहीं आई थी। अब हिंसा शुरू होने के बाद भी महिलाएं अलग-अलग समूहों में अपने-अपने गांव की सुरक्षा में जुटी थी।
 
हालांकि इस जातीय हिंसा ने महिलाओं के प्रति सम्मान की सदियों पुरानी परंपरा को लगभग खत्म कर दिया है। बीते सप्ताह राजधानी इंफाल में एक नागा महिला की बाजार में गोली मार कर हत्या कर दी गई थी। इस घटना के खिलाफ नागा संगठनो ने 12 घंटे का बंद भी रखा था। उसके पहले एक और महिला की भी हत्या हो गई थी। अब कुकी महिलाओं के साथ बलात्कार और उनको निर्वस्त्र परेड कराने के वीडियो ने बाकी तमाम घटनाओं को बहुत पीछे छोड़ दिया है।
 
यह घटना मौजूदा जातीय हिंसा और मैतेई-कुकी संघर्ष के सबसे स्याह पहलू के तौर पर सामने आई है। इतिहास गवाह है कि युद्ध या किसी मानवीय या प्राकृतिक त्रासदी का सबसे प्रतिकूल असर महिलाओं पर ही पड़ता है। इस घटना से भी यह स्पष्ट है कि मणिपुर की जातीय हिंसा की सबसे बड़ी शिकार भी महिलाएं ही हैं चाहे वे मैतेई हों या फिर कुकी।
 
इस वीडियो ने करीब 19 साल पहले की उन तस्वीरों की यादें ताजा कर दी हैं कि जब राज्य की मैतेई महिलाओं ने मनोरमा नाम की युवती के साथ सामूहिक बलात्कार और हत्या के विरोध में असम राइफल्स के खिलाफ निर्वस्त्र होकर प्रदर्शन किया था।  दोनों मामले एकदम अलग हैं। पहली घटना ने जहां अत्याचार के खिलाफ खड़े होने की मिसाल पेश की थी, जबकि यह घटना महिलाओं के खिलाफ अत्याचार और दो समुदायों के बीच बढ़ी अविश्वास की खाई का सबसे बड़ा सबूत है।
 
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मीडिया की अनदेखी
मणिपुर हाल के वर्षों की ऐसी सबसे बड़ी स्टोरी है जिसे मुख्यधारा की मीडिया में उचित जगह नहीं मिल सकी है। एकाध अपवादों को छोड़ दें तो तमाम बड़े चैनलों में अब तक इस समस्या का जिक्र सरसरी तौर पर ही किया जाता रहा है। केंद्र और मुख्यधारा की मीडिया की इस कथित उपेक्षा के कारण ही देश की आजादी के बाद से ही पूर्वोत्तर राज्य खुद को अलग-थलग महसूस करते रहे हैं।
 
मणिपुर के वरिष्ठ पत्रकार के. नाओबा कहते हैं, "इस अंधेरी सुरंग से बाहर निकलने का फिलहाल कोई रास्ता नहीं नजर आ रहा है। बाहर से जितना नजर आता है, जमीनी हालत उससे कहीं बहुत ज्यादा खराब है।” उनके मुताबिक, इस समस्या का समाधान केंद्र सरकार के ही हाथों में है। लेकिन वह कोई पहल करने या सलाह देने की बजाय सिर्फ सुरक्षा बल ही भेज रही है।
 
राजनीतिक विश्लेषक के. संजय सिंह कहते हैं, "कुकी और मैतेई तबके के बीच बढ़ी संदेह की खाई को ध्यान में रखते हुए इस समस्या की समाधान की दिशा में किसी ठोस पहल से पहले सरकार को दोनों पक्षों का भरोसा जीतना होगा। लेकिन मौजूदा स्थिति में न तो इसकी कोई इच्छाशक्ति दिखाई देती है और न ही इस दिशा में कोई प्रयास किए जा रहे हैं। सबने मणिपुर को उसके हाल पर छोड़ दिया है।” बुद्धिजीवी कहते हैं कि अगर मुख्यधारा की मीडिया ने शुरू से ही इस समस्या को ढंग से उठाया होता तो केंद्र पर इसके समाधान की पहल करने का दबाव बढ़ता और शायद आज स्थिति कुछ अलग होती।

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