केरल के बाद उत्तराखंड और नेपाल में भी मूसलाधार बारिश ने 100 से ज्यादा लोगों की जान ली है। ये जलवायु परिवर्तन और इंसानी बेवकूफी के मिश्रण के शुरुआती नतीजे हैं।
गर्मियों में किनारों पर सूख जाने वाली नैनीताल की झील 19 अक्टूबर 2021 को कई फीट ऊपर चढ़ गई। नैनी झील ने ब्रिटिश काल की मॉल रोड को डुबो दिया। झील का पानी ताकतवर धारा बनकर सड़क पर बहने लगा। सड़क किनारे दुकानों में फंसे लोगों को सेना की मदद से सुरक्षित जगह पर पहुंचा गया। नैनीताल में 60-70 साल से रह रहे बुजुर्गों ने भी ऐसा मंजर पहली बार देखा। लेकिन वे अकेले नहीं हैं। उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल में ज्यादातर लोगों ने अपने जीवन में पहली बार एक दिन में इतनी ज्यादा बारिश देखी है।
मूसलाधार बारिश के कारण पहाड़ी इलाकों में तमाम छोटे बड़े नदी-नाले उफान पर आ गए। चार जिलों में भूस्लखन की दर्जनों घटनाएं हुई हैं। सड़कें बंद हैं और अहम पुल बह गए हैं।
एक दिन में नौ महीने जितनी बारिश
उत्तराखंड में सिंतबर से मई तक नौ महीने में औसतन कुल 23.8 इंच बारिश होती है। लेकिन इस बार राज्य में 22 घंटे के भीतर 22.8 इंच बारिश दर्ज की गई। देहरादून स्थित मौसम केंद्र के डायरेक्टर बिक्रम सिंह कहते हैं कि जलवायु परिवर्तन ने बारिश के क्रम के साथ साथ उसकी ताकत को भी बढ़ा दिया है।
बारिश ने सबसे ज्यादा नुकसान नैनीताल जिले को पहुंचाया। कोठियों और विलाओं से पटे मुक्तेश्वर में अब तक की सबसे ज्यादा बारिश दर्ज की गई, प्रति वर्गमीटर 340 लीटर बरसात। उत्तराखंड में बारिश और भूस्लखलन के कारण कम से 46 लोगों की मौत हो गई। राज्य से सटे नेपाल के पर्वतीय इलाकों में 31 लोगों की जान गई। नेपाल के आपदा प्रबंधन अधिकारी हुमकाला पाण्डेय के मुताबिक 43 लोग अब भी लापता है। मृतकों में कई बच्चे और महिलाएं भी शामिल हैं।
जलवायु परिवर्तन के सबूत
उत्तराखंड से 2,700 किलोमीटर दूर केरल में भी अतिवृष्टि और बाढ़ ने अब तक 39 लोगों की जान ली है। 2018 से अब तक केरल में हर साल एक बार घनघोर बारिश हो रही है। उत्तराखंड में यह रफ्तार केरल के मुकाबले कहीं ज्यादा तेज है। राज्य में 2015 से अब तक अतिवृष्टि और बादल फटने के 7,750 मामले सामने आ चुके हैं। बीते तीन साल में इनमें और ज्यादा तेजी आई है।
जानकारों का कहना है कि बड़ी पनबिजली परियोजनाओं और अंधाधुंध निर्माण ने हिमालयी राज्यों को खतरे में डाल दिया है। कम दबाव का क्षेत्र बनने से बारिश का होना भारतीय उपमहाद्वीप के पर्वतीय इलाकों में आम बात है। केरल-महाराष्ट्र में घाट इलाकों और हिमालय में ऐसा आए दिन होता है। लेकिन बारिश की ताकत और उसका क्रम हैरान कर रहा है।
जलवायु परिवर्तन और गरीबी
केरल और उत्तराखंड राजस्व के लिए पर्यटन पर काफी हद तक निर्भर हैं। केरल की जीडीपी में टूरिज्म की हिस्सेदारी करीब 10 फीसदी है। पर्यटन राज्य में 23.5 फीसदी नौकरियां पैदा करता है। वहीं उत्तराखंड की जीडीपी में टूरिज्म का हिस्सा 25 से 30 फीसदी रह चुका है। लेकिन 2013 की केदारनाथ आपदा के बाद से राज्य में पर्यटन उद्योग कमजोर पड़ रहा है।
गर्मियों में उत्तराखंड के पर्वतीय इलाकों में भयानक जल संकट खड़ा होता है और जैसे ही बारिश होती है वैसे ही बादल फटने का डर सताने लगता है। लंबे सूखे और बीच बीच में मूसलाधार बारिश के कारण कृषि और पशुपालन बुरी तरह प्रभावित हो चुके हैं।
ये तो बस शुरुआत है
हिमालय की गोद में बसे सारे पर्वतीय इलाके उत्तर भारत की सभी नदियों के लिए कैचमेंट जोन का काम करते हैं। यहां होने वाली बारिश गंगा के विशाल बेसिन को समृद्ध करती है। बाढ़ के दौरान पहाड़ों में तेज रफ्तार से बहने वाली नदियां मैदानी इलाकों में फैलती हैं और वर्षा के साथ मिलकर भूजल को रिचार्ज करती हैं। लेकिन अंधाधुंध निर्माण के कारण बाढ़ के पानी को अब फैलने के लिए प्राकृतिक जगह भी नहीं मिल रही है और इसका असर भूजल और वेटलैंड्स पर भी दिख रहा है।
बीते दो दशकों से कश्मीर से लेकर तमिलनाडु तक भारत का भूभाग सूखे और अतिवृष्टि से जूझ रहा है। यूएन की "क्लाइमेट चेंज 2021 द फिजिकल साइंस बेसिस" रिपोर्ट साफ कहती है कि जलवायु परिवर्तन के कारण भारत और भी ज्यादा मौसमी अतियों का सामना करेगा। आईपीसी की रिपोर्ट के मुताबिक अगर ग्लोबल वॉर्मिंग इसी तरह बढ़ती रही तो भारत में गर्मियों में बहुत ज्यादा लू चलेगी और मानसून में बहुत ही ज्यादा बारिश होगी। दुनिया का कोई भी देश फिलहाल इन मौसमी अतियों के लिए तैयार नहीं है।