राहुल मिश्र
अगर चीन ने ये सोचा था कि डोनाल्ड ट्रंप के जाने के बाद अमेरिका से रिश्ते सुधरेंगे, तो ये उसकी भूल थी। चीन हर क्षेत्र में पश्चिमी देशों को टक्कर दे रहा है और चीन और अमेरिका के बीच प्रतिस्पर्धा एक तल्खी भरा मोड़ ले चुकी है।
अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने जी-7 के कॉर्नवेल शिखर सम्मेलन में साथी देशों से चीन से साफ दूरी बनाने की अपील की। बाइडन चाहते हैं कि अमेरिका के साथी चीन के आर्थिक वर्चस्व के प्रयासों के खिलाफ साझा रवैया तय करें। चीन के इस प्रयासों में तकनीकी विकास के साथ अल्पसंख्यकों से जबरी मजदूरी करा कर आर्थिक लाभ प्राप्त करना शामिल है। अमेरिका की नीति शिनजियांग में उइगुर मुसलमानों और अन्य अल्पसंख्यकों से जबरी मजूरी करवाने पर साफ रही है और जो बाइडन इस पर साथियों का पूरा समर्थन चाहते हैं। यूरोप के लिए ये आसान स्थिति नहीं है, क्योंकि वह चीन को व्यवस्था-प्रतिद्वंद्वी और प्रतिस्पर्धी मानता है। जर्मन चांसलर अंगेला मैर्केल की सीडीयू पार्टी के चांसलर उम्मीदवार आर्मिन लाशेट ने पिछले दिनों यही बात दुहराई है। चीन के साथ यूरोपीय देशों के आर्थिक संबंध निर्भरता की हद तक प्रगाढ़ हैं।
अमेरिका और चीन के बीच टकराव पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के कार्यकाल में ही शुरू हो गया था, जिसका चरम अमेरिका और चीन के बीच व्यापारिक संघर्ष और ट्रंप की इंडो-पैसिफिक नीति के रूप में देखने को मिला। जो बाइडन की सरकार आने पर परिस्थितियां सुधरने की उम्मीद की जा रही थी, लेकिन धीरे-धीरे यह साफ होता जा रहा है कि बाइडन सरकार का चीन के प्रति रवैया भी वैसा ही रहेगा। आर्थिक मामलों में बाइडन की सख्ती ट्रंप सरकार के मुकाबले भारी ही पड़ती दिख रही है। मानवाधिकारों और पर्यावरण संबंधी मुद्दों पर भी बाइडन सरकार की मार चीनी कंपनियों पर ज्यादा पड़ने की संभावना है। इसकी एक झलक हाल में तब देखने को मिली जब पिछले हफ्ते बाइडन सरकार ने अमेरिकी कंपनियों के चीन में निवेश पर प्रतिबंध लगा दिया है। बाइडन प्रशासन का यह नया प्रतिबंध 2 अगस्त, 2021 से लागू होगा।
इस तरह का ऐसा पहला कानून ट्रंप प्रशासन ने ही बनाया था। बाइडन ने न सिर्फ इसे जारी रखा है बल्कि 59 कंपनियों की एक नई सूची भी जारी की है जिनमें चीन की विवादित बहुराष्ट्रीय कंपनी हुआवे टेक्नोलॉजीज भी है। यूरोपीय संघ और भारत ने हुआवे पर पहले ही प्रतिबंध लगा रखा है। आइटी सेक्टर, 5-G तकनीक, और रक्षा क्षेत्र से जुड़ी कंपनियों पर बाइडन प्रशासन की नजर पैनी रही है। प्रतिबंधित कंपनियों की सूची से यह बात बहुत साफ हो जाती है। प्रतिबंधित कंपनियों की फेहरिस्त में चीन की सबसे बड़ी टेलिकॉम कंपनियां, चाइना मोबाइल कम्युनिकेशंस कॉर्पोरेशन, चाइना टेलीकम्युनिकेशंस कॉर्पोरेशन और चाइना यूनीकॉम लिमिटेड के अलावा सेमिकंडक्टर बनाने वाली बहुचर्चित कंपनी इंस्पर भी है।
चीन के बाहर विकल्पों की तलाश
सेमिकंडक्टर का इस्तेमाल आइटी सेक्टर में व्यापक पैमाने पर होता है और चीन से निवेश हटाने के चक्कर में ही अमेरिका ताइवान, थाईलैंड, और भारत जैसे देशों में विकल्पों की तलाश में जुटा है। सुरक्षा और सरवेलांस से जुड़ी अन्य कंपनियां भी इस मार की शिकार होंगी जिसमें कुख्यात सर्वेलांस और फेसियल रिकॉग्निशन कंपनी हांगझाऊ डिजिटल टेक्नोलॉजी कंपनी भी है जिसने चीन की सरकार को शिनजियांग में मानव चेहरों की पहचान संबंधी अभूतपूर्व डाटाबेस उपलब्ध कराया। अमेरिका को यह आशंका रही है कि कहीं यह कंपनी अमेरिकी नागरिकों के डाटाबेस को चीनी सरकार से साझा न कर दे।
ट्रंप की प्रतिबंधित कंपनियों की सूची से बाइडन की सूची निस्संदेह एक कदम आगे है और व्यापक और गहन शोध और सुरक्षा चिंताओं के गहन आकलन पर आधारित है। इस नई सूची की और प्रतिबंध से जुड़े प्रावधानों की वजह यह भी रही है कि प्रतिबंधित कंपनियों ने अमेरिकी न्यायालयों में सरकार के निर्णय के खिलाफ अपील की और कुछ सफलता भी पाई। जाहिर है, सरकार को यह बात नागवार गुजरी और लिहाजा नए चाक-चौबन्द कानूनों की व्यवस्था की गई। चीन ने भी अपनी तरफ से प्रतिबंधों का मुकाबला करने की तैयारी शुरू कर दी है। उसने इसी हफ्ते एक नया कानून पास किया है जिसमें विदेशी प्रतिबंधों के खिलाफ की जाने वाली कार्रवाई तय की गई है। इसमें वीजा की मनाही से लेकर एकल व्यक्तियों और उद्यमों के खिलाफ प्रतिबंध और उनकी संपत्ति को जब्त करने का प्रावधान है। इसमें प्रतिबंधित व्यक्तियों के परिवार के सदस्यों को भी शामिल किया जा सकता है।
अमेरिका और चीन के जटिल रिश्ते
अमेरिका और चीन के रिश्ते कितने जटिल हैं, इसका पता इस बात से चलता है कि अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकेन ने चीनी विदेश मंत्री यांग जीची से बातचीत की है। इस बातचीत में विवाद के कई मुद्दों पर चर्चा हुई। ब्लिंकेन ने शिनजियांग में उइगुर मुसलमानों के कत्लेआम का आरोप लगाया और हांगकांग में लोकतांत्रिक नियमों को कमजोर किए जाने पर चिंता जताई और चीन से ताइवान पर दबाव नहीं डालने को कहा। तो यांग ने कहा कि अमेरिका को ताइवान सवाल पर संभलकर और सोची समझी कार्रवाई करनी चाहिए।
अमेरिका चीन विवाद का असर तीसरे देशों पर भी पड़ेगा, यह तय है। बहुत से गरीब देश कर्ज में डूबे और कोरोना महामारी ने उनकी अर्थव्यवस्था की हालत और खराब कर दी है। पश्चिमी देश समय समय पर कर्ज माफी की चर्चा करते रहते हैं, लेकिन इस समय अमेरिकी वित्त मंत्री जनेट येलेन की चिंता ये है कि गरीब देशों के कर्ज माफ करने की पहलकदमी का चीन को फायदा पहुंचेगा। अगर इन देशों को वित्तीय मदद दी जाती है तो उसका इस्तेमाल चीन के कर्ज की वापसी के लिए हो सकता है। जी-20 के देश गरीब देशों की ब्याज अदायगी को कुछ समय के लिए रोकने पर सहमत हुए हैं लेकिन अमेरिका चाहता है कि इन रियायतों का लाभ चीन बैंकों को नहीं मिले।
बाइडन प्रशासन अपने नए पैंतरे से चीन में अमेरिकी कंपनियों के लिए समान और निर्बाध अवसर की तलाश में है। और अब जब तकनीकी कंपनियों का मामला राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ गया है तो अमेरिकी कदमों की गंभीरता और बढ़ जाती है। लेकिन इन तमाम बातों के बावजूद सच यही है कि यह इन दोनों महाशक्तियों के बीच दिनोदिन बढ़ती दूरियां दुनिया और इन दोनों ही देशों के लिए एक बुरी खबर से ज्यादा कुछ नहीं हैं।
(राहुल मिश्र मलाया विश्वविद्यालय के एशिया-यूरोप संस्थान में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के वरिष्ठ प्राध्यापक हैं।)