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सिलाई कढ़ाई करते करते बनारस से यूरोप

सिलाई कढ़ाई करते करते बनारस से यूरोप
, सोमवार, 5 फ़रवरी 2018 (12:05 IST)
उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में रहने वाली 6 महिलाएं नीलम, निर्मला, यास्मीन, हसीना, उमा और सरोज में कई समानताएं हैं। सब गरीब हैं, कम पढ़ी लिखी है, घरेलू हैं लेकिन इन सबके पासपोर्ट बन चुके हैं और जल्द ही यूरोप जा रही हैं।
 
 
सुनने में अजीब लगे लेकिन इन गरीब महिलाओं को विदेश घूमने और सीखने का मौका मिला। असल में ये और इन जैसी पूर्वांचल की तमाम महिलाएं एक हुनर रखती हैं और वो है सिलाई-कढ़ाई। इसी हुनर ने इनको पहचान दिलाई है। इनकी जैसी लगभग पांच सौ औरतें अपने हुनर से अपनी पहचान बना रही हैं। इनके बनाए हुए सामान अब दुनिया की मशहूर कंपनी आईकेया को पसंद आए हैं और वो इनसे सामान खरीद रही है।
 
अगली बार जब आप विदेश में किसी बड़े शॉपिंग मॉल से कोई कुशन कवर या बेड पॉकेट खरीदें तो हो सकता है कि वो पूर्वांचल की किसी गरीब महिला का बनाया हुआ हो। फिलहाल इनको पैसे मिल रहे हैं, जिंदगी भी बदल गई है और गांव की ये लड़कियां अब अपने पैरों पर खड़ी हैं।
 
 
विदेशी खरीदार कंपनी इनके काम से खुश है और इन महिलाओं को यूरोप आने का न्योता भी दिया। पिछले साल इनके पासपोर्ट नहीं थे इस बार छह लोगो के पासपोर्ट तैयार हैं और वो विदेश जाने, पहली बार हवाई जहाज पर बैठने और दुनिया देखने को तैयार हैं। नए देश के सफर से ज्यादा उन्हें एक और बात की उत्सुकता है।
 
निर्मला ने बताया, "हम देखना चाहते हैं कि जो चीज हम बनाते हैं वो कहां जाती है, बताते हैं कि विदेश में बिकती हैं। हम उसको देखना चाहते हैं कि कैसे वो दुकान पर पहुचती है और कैसे विदेशी उसको खरीदते हैं।" नीलम के अनुसार, "ये देखना सुखद होगा कि हमारा बनाया सामान वहां लोग हमारे सामने खरीदेंगे, हम उनसे मिलना भी चाहते हैं।"
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सिर्फ घूमना ही नहीं, इस काम ने इन महिलाओं की किस्मत भी बदल दी है। पूनम अब अपने पैसे से अपने छोटे भाई और बहन को पढ़ने भेज रही हैं, चंदा मौर्या भी यही कर रही हैं। उनका मानना है कि भले वो ज्यादा नहीं पढ़ीं लेकिन वो अपने भाई बहन को पढ़ाएंगी। नीलम गुप्ता ने सिलाई कढ़ाई की चीजों के बदले मिले पैसे से अपने पति की मदद की है। उनके पति मजदूरी के लिए रोज भटकते थे लेकिन उसने अब गांव में ही उनकी एक दुकान खुलवा दी है। दोनों खुश हैं।
 
 
इन्द्रावती शादी के बाद जब ससुराल आई तो वहां पैसे की तंगी थी लेकिन अब वो अपनी ससुराल वालों को खर्च के लिए पैसा देती हैं और उनकी इज्जत बढ़ गई है। श्रद्धा के माता पिता उनकी शादी के लिए परेशान रहते थे, शादी में खर्च का इन्तजाम नहीं हो पा रहा था। अब श्रद्धा ने खुद ही इतना पैसा जमा कर लिया कि उनकी शादी के लिए अब कोई दिक्कत नहीं होगी। नीलम के पति भी दर्जी हैं। पहले काम करने का कोई जरिया नहीं था तो नीलम ने उनके लिए दुकान खुलवा दी। हर महिला ने अपने घर की तस्वीर बदल दी है।
 
 
शुरू में इनकी हालत भी किसी आम भारतीय ग्रामीण महिलाओ की तरह थी। गांव में रहना, गरीबी, परिवार की परेशानियां और घर पर कभी न खत्म न होने वाली जिम्मेदारियां, लेकिन अब हालात बदल चुके हैं। स्कॉटलैंड से एम एस सी इन सोशल डेवलपमेंट एंड हेल्थ की पढ़ाई कर के अपने शहर वाराणसी लौटीं डॉ दीप्ति ने इन महिलाओ के लिए काम शुरू किया। दीप्ति ने कम्युनिटी बेस्ड क्राफ्ट कंपनी रंगसूत्र के साथ जुड़ कर काम शुरू किया।
 
वो बताती हैं, "महिलाओ के पास हुनर था, सिलाई-कढ़ाई का और इनको बाजार देना काम था रंगसूत्र का। ये इतना आसान नहीं था क्योंकि बहुत समय लगा इन महिलाओं को समझाने में कि उनके हालात भी बदल सकते हैं।"
 
धीरे धीरे आस-पास की महिलाएं जुडती गईं। आज लगभग 450 महिलाएं रंगसूत्र से जुड़ी हैं और इनके प्रोडक्ट्स हैं: कुशन कवर, वैनिटी बैग, चादर, स्टोल, बैग, दुपट्टा, नैपकिन, बेड पैकेट जैसी चीजें। काम में भारतीय हुनर की झलक थी और उसको आधुनिक बाजार के लायक बना दिया दीप्ति ने। आज इनके पास मशहूर फर्नीचर और फर्निशिंग कंपनी आईकिया से आर्डर हैं। ये प्रोडक्ट अब दुनिया के 40 देशों में उपलब्ध हैं, पसंद किये जा रहे हैं और धड़ाधड़ बिक रहे हैं।
 
 
काम में अब महिलाओ का दिल लग गया हैं। अब विदेशी डिज़ाइनर आते हैं और इन महिलाओ के साथ बैठ कर आइडिया डिस्कस करते हैं और नयी लेटेस्ट डिजाइन तय होती है। दीप्ति के अनुसार हमारी महिलाएं परम्परागत क्राफ्ट को उनके लेटेस्ट डिजाइन में ढाल देती हैं जिसमें रंग, कपडे, डिजाइन सब समाहित होता हैं।
 
अब इन महिलाओ को पैसा मिलने लगा हैं। किसी भी महिला को महीने में चार हज़ार से पन्द्रह हज़ार रुपये तक आसानी से मिल जाते हैं। काम भी अपने सुविधानुसार चार से आठ घंटे मात्र। अब इनके सेंटर पास के जिले भदोही और मिर्जापुर में भी पहुंच गए हैं।
 
 
दीप्ति कहती हैं, "इन महिलाओ के हुनर को बस सही प्लेटफार्म मिलने की देर थी और आज वो खुद उड़ने को तैयार हैं।"
 
रिपोर्ट फैसल फरीद

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