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महंगी होती उच्च शिक्षा और कर्ज में घिरते छात्र

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गुरुवार, 4 जुलाई 2019 (11:24 IST)
विपक्ष ने उठाया सवाल कि आर्थिक रूप से कमजोर छात्रों को पेशेवर या तकनीकी कोर्सों में पढ़ाई करने के रास्ते में बाधाएं क्यों डाली जा रही हैं।
 
 
भारत में राष्ट्रीय मूल्यांकन एवं प्रत्यायन परिषद, नैक (NAAC) से मान्यता प्राप्त विश्वविद्यालयों और कॉलेजों, राष्ट्रीय महत्त्व के संस्थानों और केंद्र पोषित तकनीकी संस्थानों में दाखिला लेने के इच्छुक छात्रों को ही बैंक, एजुकेशन लोन देंगे। मीडिया में आई इस आशय की खबरों के हवाले से कांग्रेस ने सरकार पर निशाना साधा और आरोप लगाया कि आर्थिक रूप से कमजोर लाखों बच्चों को, पेशेवर या तकनीकी कोर्सों में पढ़ाई के लिए कर्ज लेने की पात्रता के मापदंडों में "अवरोध” खड़े कर, "दंडित” किया जा रहा है।
 
 
सरकार की ओर से इन आरोपों पर कोई आधिकारिक जवाब अभी नहीं आया है लेकिन कुछ अखबारी वेबसाइटों में मानव संसाधन विकास मंत्रालय के सूत्रों के हवाले से ऐसी आशंकाओं को खारिज करते हुए कहा गया है कि संस्थानों की संख्या में कोई कटौती नहीं होगी और छात्र सिर्फ इस वजह से प्रभावित नहीं होंगे और जिस गाइडलाइन का जिक्र किया जा रहा है वो हाल की नहीं बल्कि पिछले साल की है।
 
 
वैसे मीडिया रिपोर्टों में मानव संसाधन विकास मंत्रालय की गाइडलाइन्स के हवाले से बताया गया है कि इंडियन बैंक्स एसोसिएशन की आदर्श शैक्षिक ऋण योजना के लिए सांस्थानिक पात्रता सीमित कर दी गई है और अब उन्हें ही कर्ज मिलेगा जो नैक वाले संस्थानों में आवेदन करेंगे। ऐसे संस्थानों की संख्या 1056 बताई गई है (59 विश्वविद्यालय और 997 कॉलेज।)
 
 
नेशनल बोर्ड ऑफ एक्रीडिटेशन (एनबीए) से मान्यता प्राप्त प्रोग्रामों मे दाखिले के लिए भी लोन लिया जा सकता है। इस दायरे के बाहर किसी भी प्रोफेश्नल और टेक्निकल कोर्स में पढ़ाई के लिए कर्ज देने पर विचार, संबद्ध नियामक संस्थाओं की मंजूरी के बाद ही किया जाएगा। जैसे नर्सिंग कोर्स में दाखिले के कर्ज के लिए नर्सिंग काउंसिल ऑफ इंडिया और मेडिकल कोर्स के लिए मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया की मंजूरी चाहिए होगी।
 
 
उच्च शिक्षा पर ऑल इंडिया सर्वे की रिपोर्ट के मुताबिक देश में 799 विश्वविद्यालय, 39701 महाविद्यालय और 11,923 स्वतंत्र संस्थान हैं। नैक की वेबसाइट में दर्ज मई 2019 की सूची के मुताबिक देश में 351 यूनिवर्सिटी और 7903 कॉलेजों को नैक की मान्यता मिल चुकी है। इनमें से 207 विवि और 1679 कॉलेजों को नैक का ‘ए' ग्रेड मिला है। ये संख्या, मीडिया में आई 1059 की संख्या से अधिक है, तो फिर वो संख्या कहां से और किस प्रकार निकाली गई, ये स्पष्ट नहीं है। क्योंकि नैक की मान्यता के लिहाज से साफ दिखता है कि संस्थानों की संख्या कम नहीं है जैसा कि आरोप है। बल्कि ये जरूर चिंता का विषय है कि बड़े पैमाने पर आवेदन खारिज हुए हैं जिन्हें लेकर बैंको के अपने दावे और दलीले हैं। कांग्रेस की शिकायत है कि पिछले चार साल में बैंकों ने कर्ज के एक करोड़ 44 लाख आवेदनों में से सिर्फ करीब 43 हजार ही मंजूर किए थे।
 
 
ये आंकड़ा थोड़ा चौंकाता तो है लेकिन बैंकों के रवैये पर भी सवाल लगाता है। जबकि ऋण देने की नियमावली कहती है कि छात्र 15 साल में कर्ज वापस कर सकते हैं। बेरोजगार रहने या अपने स्तर से कम रोजगार में लगने की स्थिति में उनका कर्ज स्थगित हो सकता है। एक तरफ ये नियम हैं तो दूसरी तरफ आवेदनों की बड़े पैमाने पर निरस्त होने की सूचनाएं हैं। ऋण मंजूर करने में इतनी बड़ी कंजूसी- ऐसी कौनसी मजबूरी है? क्या बैंकों को यही लगता है कि अगर कर्ज, ऐसे संस्थानों में दाखिले के लिए लिया जाता है जो नैक या एनबीए से मान्यता प्राप्त हों, अच्छा रसूख हो, कैंपस प्लेसमेंट बेहतर हो या आगे नौकरी मिलने की संभावना अधिकतम हों- तो लोन वापसी की संभावना अधिकतम रहती है?
 
 
इस सवाल का जवाब लेने निकलें तो फिर बात बैंकों तक सीमित न होकर पूरी अर्थव्यवस्था, आरबीआई के दिशा निर्देशों, बैंक घोटालों, वित्त मंत्रालय, सरकार की वित्त रणनीति, प्लैनिंग और पूरी पॉलिटिक्ल इकोनमी तक चली जाती है। ये पूरी आर्थिकी की गड़बड़ी है जिसके एक छोर पर कर्ज की राह तकता उपभोक्ता है तो दूसरे छोर पर तंत्र है। इसी तंत्र का एक हिस्सा हैं बैंक जो अपने नॉन पर्फ़ॉर्मिग एसेट्स यानी बट्टा खातों से परेशान हैं। एक अनुमान के मुताबिक पिछले तीन साल में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के एनपीए पिछले तीन साल में 17 प्रतिशत से बढ़कर 22 प्रतिशत हो गए हैं।
 
 
अंग्रेजी दैनिक 'द हिंदू' में इस साल जनवरी में प्रकाशित इंडियन बैंक्स एसोसिएशन के एक डाटा के अनुसार कुल शैक्षिक कर्ज का नौ प्रतिशत हिस्सा एनपीए में तब्दील हो जाता है। डिफॉल्टरों के सबसे ज्यादा 21 प्रतिशत मामले नर्सिग और  करीब 10 प्रतिशत इंजीनियरिंग कोर्सों के कर्जदारों के हैं। माना जाता है कि नर्स की नौकरी में कम वेतन औऱ शोचनीय पारिवारिक स्थिति, एनपीए की एक वजह हो सकती है।
 
 
इंजीनियरिंग क्षेत्र में भी रोजगार के अवसर कम हुए हैं। 2016-17 में सरकारी और निजी इंजीनियरिंग कॉलेजों से डिग्री लेकर निकलने वाले छात्रों में सिर्फ 46 प्रतिशत ही नौकरी पा सके। सबसे ज्यादा एनपीए के मामले तमिलनाडु से हैं। 2017 के एक आंकड़े के मुताबिक देश भर में एजुकेशन लोन की 6,356 करोड़ रुपए की रकम 3,45,340 बट्टा खातों (एनपीए) में जा चुकी हैं। लेकिन ये भी देखना चाहिए कि बैंको की कमर किस कर्ज के न लौटाने से टूटती है- चार लाख रुपए न लौटा सकने वालों से या करोड़ों अरबों रुपए न लौटा कर विलफुल डिफॉल्टर बनने वालों या देश छोड़कर भाग जाने वालों से।
 
 
दरअसल लोन से ज्यादा छात्रों को रोजगार के अधिकतम और बेहतरीन अवसरों की जरूरत भी है। काश कि उच्च शिक्षा के लिए लोन जैसी नौबत आती ही नहीं। और भारत में ऐसा सार्वभौम उच्च शिक्षा पर्यावरण निर्मित हो पाता जहां शिक्षा महंगी न होकर मुक्त होती।
 
 
रिपोर्ट शिवप्रसाद जोशी
 
 

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