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जियोथर्मल एनर्जी: क्या हम स्वर्ण युग में प्रवेश कर रहे हैं?

जियोथर्मल एनर्जी: क्या हम स्वर्ण युग में प्रवेश कर रहे हैं?

DW

, शुक्रवार, 1 सितम्बर 2023 (08:53 IST)
गेरो रुइटर
पृथ्वी के कोर यानी केंद्र का तापमान करीब 6,000 डिग्री सेल्सियस (11,000 डिग्री फारेनहाइट) है और इस तापमान पर पृथ्वी का केंद्र उतना ही गर्म है जितना कि सूर्य। हालांकि यह तुलना ठीक नहीं है क्योंकि पृथ्वी की सतह से 2,000 से 5,000 मीटर नीचे भी, तापमान 60 से 200 डिग्री सेल्सियस तक होता है जो झुलसा देने वाला होता है। यहां तक कि ज्वालामुखीय क्षेत्रों में तो सतह का तापमान भी 400 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच सकता है।
 
इस तापमान से ऊष्मा-आधारित ऊर्जा प्राप्त करने संभावना होती है। हमारे पूर्वज जियोथर्मल एनर्जी की शक्ति से अपरिचित नहीं थे। पहली शताब्दी ईस्वी में, पश्चिमी जर्मनी के शहरों में रहने वाले रोमन, जिन्हें अब आखन और वीसबाडेन के नाम से जाना जाता है, वे अपने घरों को गर्म करते थे और गर्म पानी के झरने से नहाते थे।
 
न्यूजीलैंड में, माओरी लोग पृथ्वी की गर्मी से निकली ऊष्मा का इस्तेमाल करते हुए अपना भोजन पकाते थे और 1904 में, मध्य इटली के एक क्षेत्र लार्डेरेलो में तो बिजली पैदा करने के लिए जियोथर्मल एनर्जी का इस्तेमाल किया गया था।
 
ज्वालामुखीय क्षेत्र जियोथर्मल एनर्जी को बिजली में बदल देते हैं
इन दिनों, 30 देशों में करीब 400 बिजली संयंत्र पृथ्वी की सतह के नीचे पैदा होने वाली भाप का इस्तेमाल करके बिजली पैदा कर रहे हैं, जिसमें कुल 16 गीगावॉट (जीडब्ल्यू) की क्षमता होती है।
 
बिजली पैदा करने की यह विधि संयुक्त राज्य अमेरिका, मेक्सिको, अल साल्वाडोर, आइसलैंड, तुर्की, केन्या, इंडोनेशिया, फिलीपींस और न्यूजीलैंड सहित पैसिफिक रिंग ऑफ फायर के साथ ज्वालामुखीय क्षेत्रों में विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। लेकिन वैश्विक स्तर पर, भू-तापीय ऊर्जा का हिस्सा बिजली के कुल उत्पादन का सिर्फ 0.5 फीसद ही है।
 
गहरी जियोथर्मल एनर्जी से मिलने वाली ऊष्मा हर जगह उपलब्ध है
दुनिया भर में, जियोथर्मल एनर्जी का उपयोग मुख्य रूप से स्विमिंग पूल्स, इमारतों, ग्रीनहाउसेज और शहरी हीटिंग सिस्टम्स को गर्म करने के लिए किया जाता है। इसके लिए 200 डिग्री सेल्सियस तक का पानी 5,000 मीटर गहरे बोरहोल से पंप किया जाता है। फिर गर्मी निकाली जाती है और ठंडा पानी दूसरे बोर के माध्यम से वापस पंप किया जाता है।
 
ऊष्मा को पकड़ने यानी कैप्चर करने का यह तरीका दुनिया भर में संभव है, सस्ता है और उन देशों में तेजी से लोकप्रिय है जहां ज्वालामुखीय गतिविधियां कम होती हैं। रीन्यूएबल्स ग्लोबल स्टेटस रिपोर्ट के आकलन के मुताबिक, दुनिया भर में जियोथर्मल प्लांट्स की स्थापित क्षमता करीब 38 गीगावॉट है, जो बिजली पैदा करने वाले जियोथर्मल पॉवर प्लांट्स की क्षमता के दोगुने से भी ज्यादा है।
 
फिलहाल, चीन (14 गीगावॉट), तुर्की (3 गीगावॉट), आइसलैंड (2 गीगावॉट) और जापान (2 गीगावॉट) गहरी जियोथर्मल एनर्जी विकसित करने में अग्रणी हैं और ज्यादा से ज्यादा शहर, जिलों और ग्रीनहाउस को गर्मी पहुंचा रहे हैं। जर्मनी में, म्यूनिख शहर में सस्ती जियोथर्मल हीटिंग उपलब्ध है और उसने 2035 तक इस क्षेत्र को जलवायु तटस्थ बनाने के लिए प्रौद्योगिकी का उपयोग करने पर अपना ध्यान केंद्रित किया है।
 
जर्मनी की सरकार 2045 तक राष्ट्रव्यापी जलवायु-तटस्थ ताप आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए गहरी यानी डीप जियोथर्मल एनर्जी विकसित करने पर भी विचार कर रही है। रिपोर्ट्स के मुताबिक, गहरी जियोथर्मल एनर्जी 70 गीगावॉट की स्थापित क्षमता से सालाना करीब 300 टेरावॉट घंटे ऊष्मा (गर्मी) पैदा कर सकती है। यह ऊष्मा इतनी ज्यादा है कि भविष्य में सभी इमारतों की हीटिंग के लिए जितनी ऊष्मा की डिमांड है, यह उसे पूरा कर सकती है।
 
पृथ्वी की सतह से गर्मी निकालने के लिए हीट पम्प्स का इस्तेमाल
हालांकि, जियोथर्मल एनर्जी का इस्तेमाल हीट पंप्स की मदद से पृथ्वी की सतह के निकट के स्रोतों से भी किया जा रहा है। केवल 50 से 400 मीटर गहरे बोरहोल में, पाइप्स के जरिए पानी को सतह से जमीन के अंदर तक ले जाया जाता है और फिर वापस भी लाया जाता है। इस दौरान पाइप के भीतर का पानी 10 से 20 डिग्री सेल्सियस तक गर्म हो जाता है। फिर हीट पम्प के जरिए इस ऊर्जा का उपयोग पानी के तापमान को 30 से 70 डिग्री तक पहुंचाने के लिए होता है, और फिर इसी तापमान पर पानी का इस्तेमाल इमारतों को गर्म करने में होता है।
 
शोधकर्ताओं का मानना है कि जर्मनी में इस छिछली जियोथर्मल एनर्जी के इस्तेमाल से करीब उतनी ही क्षमता वाली ऊर्जा प्राप्त की जा सकती है जितनी डीप जियोथर्मल एनर्जी से मिलती है। जर्मनी में सिर्फ इन्हीं दो टेक्नोलॉजीज के जरिए इमारतों के लिए भविष्य की संपूर्ण हीटिंग मांग को पूरा किया जा सकता है।
 
डीप जियोथर्मल एनर्जी से मिलने वाली ऊष्मा की लागत कितनी है?
जर्मनी के छह रिसर्च इंस्टीट्यूट्स के विश्लेषण के मुताबिक, गहरी भू-तापीय ऊर्जा के साथ ऊष्मा प्राप्त करने की लागत तीन यूरो सेंट प्रति किलोवॉट ऑवर से कम है।
 
अब तक जिस प्रकार की जियोथर्मल एनर्जी तकनीक का उपयोग किया जाता है, वह भूमिगत जलाशयों और पानी वाले क्षेत्रों से गर्म पानी को सतह पर पंप करती है और इस ऊष्मा का उपयोग घरों को गर्म करने के लिए करती है। लेकिन अब जर्मनी के बावेरिया राज्य के गेरेट्स्ट्राइड शहर में दुनिया का ऐसा पहला व्यावसायिक जियोथर्मल प्लांट बनाया जा रहा है जो जलाशयों से निकाले गए पानी पर निर्भर नहीं है।
 
फ्राउनहोफर रिसर्च इंस्टीट्यूशन फॉर एनर्जी इंफ्रास्ट्रक्चर एंड जियोथर्मल सिस्टम्स के प्रमुख प्रोफेसर रॉल्फ ब्रैके कहते हैं कि नई तकनीक की मदद से ऐसे तमाम देश भी उन स्थानों पर जियोथर्मल एनर्जी का दोहन कर सकते हैं जहां पहले ऐसा करना संभव नहीं था।
 
यूक्रेन पर रूस के हमले से पहले, यूरोप में कई नगरपालिकाओं में अपनी जरूरतों के लिए प्राकृतिक गैस से इससे भी सस्ती ऊष्मा पैदा की जा सकती थी। इससे गहरे जियोथर्मल एनर्जी प्लांट्स के निर्माण में निवेश करने को लेकर दिलचस्पी कम हो गई। हालांकि, रूस के आक्रमण के बाद जब गैस की कीमतों में तेजी से बढ़ोत्तरी होने लगी तो इस पर आने वाली लागत भी बढ़कर 12 सेंट प्रतिकिलोवॉट से ज्यादा हो गई। इसलिए अब नगरपालिकाएं ऊष्मा की आपूर्ति के लिए गहरी भू-तापीय ऊर्जा में ज्यादा दिलचस्पी दिखा रही हैं।
 
क्या भूतापीय ऊर्जा ऊष्मा की मांग को पूरा करने में सक्षम है?
नहीं, लेकिन दुनिया की इमारतों की हीटिंग डिमान्ड्स को डीप जियोथर्मल एनर्जी और सतह के नजदीक वाली जियोथर्मल एनर्जी की लगभग असीमित क्षमता के दोहन से जरूर पूरा किया जा सकता है।
 
लेकिन औद्योगिक जरूरतों के लिए कभी-कभी 200 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा तापमान की आवश्यकता होती है, जिसे तकनीक की मौजूदा स्थिति में अकेले भूतापीय ऊर्जा पूरा करने में सक्षम नहीं है। ऐसे उच्च तापमान के लिए, बिजली, बायोगैस, बायोमास और ग्रीन हाइड्रोजन जैसे जलवायु-अनुकूल विकल्प कहीं बेहतर हैं।
 
गहरी भू-तापीय ऊर्जा कितनी जल्दी ऊष्मा की आपूर्ति शुरू कर सकती है?
पिछली शताब्दी में, खासतौर पर तेल और गैस उद्योगों ने पृथ्वी की उपसतह, ड्रिल तकनीक, कर्मचारियों को प्रशिक्षित करने के तरीके जैसे क्षेत्रों में काफी ज्ञान अर्जित किया है और परिष्कृत तकनीक विकसित की है। फ्राउनहोफर इंस्टीट्यूट फॉर एनर्जी इंफ्रास्ट्रक्चर एंड जियोथर्मल एनर्जी (आईईजी) के प्रमुख प्रोफेसर रॉल्फ ब्राके ने डीडब्ल्यू को बताया कि उन्हें विश्वास है कि "यदि तेल और गैस उद्योग अपना ध्यान जियोथर्मल ऊर्जा पर केंद्रित करते हैं तो जियोथर्मल ऊर्जा का तेजी से विस्तार किया जा सकता है।"
 
लेकिन उनका यह भी कहना है कि ज्यादा पैसा कमाने के चक्कर में यदि ये कंपनियां तेल और गैस उत्पादन पर ध्यान केंद्रित करना जारी रखती हैं तो भू-तापीय ऊर्जा का तेजी से विस्तार करने के लिए प्रशिक्षित कर्मचारियों और ड्रिलिंग तकनीक कम पड़ जाएंगी। ब्राके के मुताबिक, यदि मंजूरी जल्दी मिल जाती है तो भू-तापीय ऊष्मा स्रोतों को विकसित करने में दो से तीन साल लगते हैं लेकिन अन्य जगहों पर नौकरशाही की वजह से होने वाली देरी के कारण जर्मनी की तुलना में लगभग तीन गुना ज्यादा समय लगता है। जर्मन सरकार अब इस प्रक्रिया को और तेज करना चाहती है और 2030 तक ताप ऊर्जा उत्पादन को मौजूदा 1 टेरावॉट की तुलना में दस गुना बढ़ाना चाहती है।
 
क्या डीप जियोथर्मल एनर्जी भूकंप का कारण बन सकती है?
जी हां। भूकंपीय गतिविधि वाले क्षेत्रों में, भूतापीय ऊर्जा छोटे भूकंपों को ट्रिगर कर सकती है। क्योंकि जब पानी को बहुत अधिक दबाव के साथ पृथ्वी की ऊपरी सतह में इंजेक्ट किया जाता है तो वहां तनाव पैदा होता है। कुछ मामलों में, भूकंप के झटकों के कारण इमारतों में दरारें पड़ गईं और इस तकनीक का सार्वजनिक विरोध भी हुआ।
 
ब्राके कहते हैं कि ऐसे क्षेत्रों में भूकंप की कोई रिपोर्ट नहीं आई जहां किसी तरह का बाहरी तनाव नहीं था। इस बीच, भू-तापीय तकनीकों में भी सुधार किया गया है। अब कम भूमिगत जल दबाव और अधिक बेहतर मॉनीटिरिंग तरीकों से भूकंपी झटकों से बचा जा सकता है।
 
लेकिन तेल, गैस और कोयला निष्कर्षण की तुलना में, जियोथर्मल तकनीक में बहुत कम जोखिम है। ब्राके कहते हैं, "यह हमारी पृथ्वी से ऊर्जा का अब तक का सबसे सुरक्षित स्रोत है।

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