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भारतीय समाज पर मंडराता फेक न्यूज का साया

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शुक्रवार, 3 फ़रवरी 2017 (10:40 IST)
भारत में फेक न्यूज यानी फर्जी खबरों का घटाटोप खासकर 2016 में तो इंतहाई तौर पर देखा गया. ऐसी खबरें न सिर्फ बड़े पैमाने पर सर्कुलेट हुईं बल्कि उन पर यकीन भी हो चला. लोग उन खबरों के झांसे में भी आते देखे गए।
पहले भौतिक कानाफूसी और फिर टीवी मीडिया से लेकर व्हॉट्सऐप, फेसबुक और ट्विटर तक फेक न्यूज इतनी शातिरी से फैलाई गई कि आधिकारिक संस्थाओं को आगे आकर बयान जारी करने पड़े और खंडन करना पड़ा। लेकिन सोशल मीडिया से निकली फेक न्यूज ऐसी बला बन गई जिससे एकमुश्त तौर पर और हमेशा के लिए छुटकारा पाना मुमकिन न रहा।
 
ऑनलाइन समाचार की दुनिया में फेक न्यूज के लिए भारत से बेहतर भला कौन सी जगह होगी जो इंटरनेट और न्यू मीडिया के सबसे ज्यादा उपभोक्ताओं के लिहाज से अमेरिका और चीन के साथ पहले तीन देशों में शामिल हैं। लेकिन जितनी असमान यहां की अर्थव्यवस्था और उससे होने वाले लाभ हैं कमोबेश यही असमानता वैचारिक तौर पर ऑनलाइन के इस्तेमाल को लेकर भी है। कुछ लोग फेक न्यूज की शिनाख्त कर सकने में बेशक सक्षम हैं लेकिन अधिकतर संख्या ऐसे लोगों की है जो इस तरह की कथित खबरों को न सिर्फ सच मान लेते हैं बल्कि उसके हिसाब से अमल भी शुरू कर देते हैं। हाल के दिनों में सबसे सटीक उदाहरण दस रुपये के सिक्के का इस्तेमाल है। फुटकर सामान के विक्रेताओं, पनवाड़ियों, फल सब्जी की रेहड़ी लगाने वालों ने दो तरह के सिक्कों की बात की, एक को नकली माना और उसे लेने से साफ इंकार किया। सही तथ्य को समझाने वाला कोई नहीं था।
 
नजरअंदाज समस्या
हैरानी ये है कि पूरी दुनिया में फेक न्यूज 'कारोबार' पर चिंताएं हैं, वहीं भारत सरकार, शक्तिशाली मीडिया इंडस्ट्री और सूचना प्रौद्योगिकी के सरताज संस्थान लगभग खामोश ही बैठे दिखते हैं। भारत में एक बहुत विशाल इंटरनेट आबादी का उदय हो रहा है। ऐसे में मुनाफे और वोट के अंतहीन गणित को दरकिनार कर संस्थाओं को एक वैश्विक जवाबदेही में शामिल होना चाहिए। आज इन्हें फायदा हो रहा है, लेकिन कल इस तरह की क्षुद्रताएं तो इन्हें भी ग्रस सकती हैं। जेएनयू की घटना का एक टीवी समाचार चैनल पर प्रसारित वो कथित डॉक्टर्ड वीडियो क्या कहता है? 2000 रुपये के नए नोट में इलेक्ट्रॉनिक चिप लगे होने का झूठ क्या कहता है?
 
समाचार चैनलों में आस्था को भुनाते कार्यक्रमों को देखें तो लगता है कि टीवी समाचार और विज्ञापन प्रसारण की सरकारी और कंपनी गाइडलाइन्स कहीं धूल फांक रही हैं। टीवी चैनलों की अपनी गाइडलाइनें कहां हैं? अगर नहीं हैं तो क्यों नहीं हैं और क्या इस बारे में उन्हे लाइसेंस देते हुए सरकार जवाबतलब करती है? इस तरह के बहुत से सवाल हैं। सवाल सोशल मीडिया इस्तेमाल की शर्तों में बदलाव की जरूरतों का भी है। एक और बात। अगर आप फेक न्यूज की बात कर रहे हैं तो फेक विज्ञापन को क्यों बाहर रख रहे हैं? आम ऑडियंस में वे भी तो एक इम्पैक्ट बना रहे हैं। चाहे वह गोरेपन की क्रीम का विज्ञापन हो या किसी बाबा के तिलिस्म का विज्ञापन। फेक न्यूज तो लगता है कि भारत में बड़े पैमाने पर फैले हुए वासना, कपट, उत्तेजना और स्वार्थ के सामाजिक विस्तार का एक सहज उपकरण सरीखा बन गया है।
 
सामाजिक जिम्मेदारी
टीवी चैनलों को भी अपने भीतर झांकना होगा। ये बात महज एथिक्स की नहीं ये एक वृहद राष्ट्रीय और नागरिक गरिमा का भी सवाल है जिसका यूं आए दिन इतना ढोल बजाया जाता है। समाचार की निगरानी और गेटकीपिंग या फिल्टरिंग के पुराने पैमानों को फिर से परखने का भी समय आ गया है। ये सही है कि व्हाट्सऐप जैसे माध्यमों पर ये रोक कठिन है लेकिन प्रौद्योगिकी जगत अगर कड़ा इनक्रिप्टेड पर्यावरण अपने संवादों के लिए बना सकता है तो ऐसी फेक न्यूज की पहचान और छंटाई या रोक के लिए भी कोई व्यवस्था तो बना ही सकता है। कानाफूसी या अफवाह को समाज में किसी भी दौर में रोका नहीं जा सका है। सोशल मीडिया से काफी पहले के दौर में गणेश के दूध पीने की "खबर" भला कोई कैसे भूलेगा! लेकिन यही कानाफूसी सोशल मीडिया जैसे नये मीडिया प्लेटफॉर्मों पर त्वरित प्रसार हासिल कर त्वरित नुकसान का बायस बन जाती है। कानून कड़े करना एक उपाय हो सकता है लेकिन कानून में इतने छेद हैं कि अपराधी बेखौफ हैं।
 
फेक न्यूज के इस भूमंडलीय संकट के साए में नागरिक बिरादरी को और सजग, चौकन्ना और सतर्क रहना होगा। विवेक के कड़े इम्तहान का भी ये समय है क्योंकि अपनी मौलिक वस्तुनिष्ठता के बावजूद उसका एक सबजेक्टिव कार्रवाई बन कर रह जाने का जोखिम है। पॉलिटिक्ल सिस्टम, कानून व्यवस्था, सरकार की प्रशासनिक और वित्तीय मशीनरी, प्रौद्योगिकीय और व्यापार जगत को भी अपने अपने खोल से बाहर निकलना होगा। कहने का मतलब ये है कि फेक न्यूज से निपटने की डगर कठिन है और सूचना प्रौद्योगिकी का ये एक ऐसा अदृश्य भस्मासुर हमने पैदा कर दिया है जो हमारी तरफ ही दौड़ता आता है। फिलहाल हमारे पास इससे बचने के कोई ठोस, स्थायी और प्रामाणिक उपाय नहीं हैं लेकिन इंसानी जद्दोजहद बनी रहे, यही चाहिए।
 
रिपोर्ट:- शिवप्रसाद जोशी
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