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आर्थिक सुधारों के साथ बढ़ता खतरों का दायरा

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बुधवार, 9 नवंबर 2016 (12:10 IST)
पच्चीस वर्ष पूर्व मनमोहन सिंह सरकार द्वारा लागू किए गए आर्थिक सुधारों से आम आदमी को तीन लाभ हुए हैं। आयात के सरल होने से सस्ता विदेशी माल उपलब्ध हुआ। देश में उत्पादित माल की गुणवत्ता में अप्रत्याशित सुधार आया है। दूसरा लाभ सरकारी कल्याणकारी कार्यक्रमों से मिला है। बड़ी कंपनियों के लाभ में वृद्धि हुई है और इनके द्वारा भारी मात्रा में टैक्स अदा किया गया है। इस राजस्व के एक अंश का उपयोग आम आदमी के लिए कल्याणकारी योजनाओं को चलाने के लिए किया गया।
आम आदमी के जीवन-स्तर में पिछले 25 वर्षों में सुधार अवश्य हुआ है, लेकिन यह अपेक्षा से बहुत कम है। छात्रों को पढ़ाई के बावजूद रोजगार नहीं मिलता है। मूल समस्या अच्छे वेतन के रोजगारों की कमी की है। यदि मिडिल क्लास का तेजी से विकास हुआ, तो ट्रिकल की धारा कुछ मोटी हो जाएगी और आम आदमी को भी विकास का लाभ मिलेगा। यदि मिडिल क्लास का विस्तार वर्तमान गति से हुआ तो अमेरिका की तरह हमारा आम आदमी भी बेचैन हो जाएगा। क्या मोदी सरकार अर्थ व्यवस्था को रातोंरात बदल सकती है? 
 
व‍िभिन्न कारणों से यह बात सैद्धांतिक रूप से यह बात सही लगती है कि पुराने नोट हटाकर आप नए नोट चलन में लाएं तो अर्थव्यवस्था से कालाधन निकाल सकते हैं लेकिन भारत की एक जटिल अर्थव्यवस्था है जहां छोटे कारोबारी हैं, गांव में किसान लोग हैं, उनका क्या होगा? आप अस्पताल जाएं तो कैश लेकर जाते हैं और छोटे स्तर पर नकदी अर्थव्यवस्था ही चलती है। ऐसी हालत में आम आदमी, जिसके लिए यह सुधार किए जा रहे हैं,  उसे बड़ी मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा। सबसे बड़ी मुश्किल उनको ही होगी जिसके लिए यह सब किया जा रहा है।
 
बड़े उद्योगों के पास तो सारी सुविधाएं होती हैं और वे इस तरह की समस्याएं से इससे निपटने के लिए रास्ता निकाल लेते हैं। उन्हें जो भी हेरा-फेरी करनी होती है,  वह इस तरह के सभी उपायों के बाद भी करेंगे। अगले दो-तीन महीने में हर तरफ अफरा-तफरी का माहौल होगा। जब अर्थव्यवस्था सुस्त है, लोग कम खर्च करेंगे तो उपभोग पर भी असर पड़ेगा। इस कारण से इस तरह के फैसलों को अमल में लाना इतना आसान नहीं है, जितना कि मोदी सरकार समझ रही है।  
 
जो नोट बैंकों, डाकघरों द्वारा वापस लिए जाने हैं और लोगों को इसके लिए जो समय-सीमा दी गई है, क्या इसे लागू करने के लिए समुचित तैयारी की गई है? अगर किसी के पास एक करोड़ नकदी कालाधन है तो वह हजार लड़कों को इकट्ठा करके कहेगा आप बैंक जाकर इसे बदल लाओ। छोटी-छोटी रकम के जरिए यह किया जा सकता है। आपका यह तरीका एक तरह से बिना टैक्स लिए पिछले दरवाजे से छूट देने का रास्ता भी हो सकता है। हमारे देश में लोग ऐसे पैंतरे अपनाना भलीभांति जानते हैं।
 
इस तरह के उपायों से भी ब्लैक मनी की समस्या खत्म हो पाएगी और सरकार को टैक्स मिल जाएगा। लगता है कि सरकार की कोशिश लोगों को बैंकों से जुड़ने के लिए प्रोत्साहित करने की है। भारत में बहुत से लोग नकदी का लेन-देन करते हैं।
 
ग्रामीण भारत का बड़ा तबका बैंकिंग व्यवस्था से अभी भी दूर है। सरकार ने जन-धन योजना में करोड़ों लोगों को बैंकिंग व्यवस्था से जोड़ा है लेकिन इन खातों का लगभग 20 फीसदी ही ऑपरेशनल है। इससे लोगों को बैंकिंग व्यवस्था से जुड़ने का रुझान बढ़ेगा। लोग अपनी नकदी बैंकों में जमा करेंगे। ऐसा लगता है और विशेषज्ञों का मानना है कि सरकार ने नए आर्थिक सुधारों को बिना पूर्व  तैयारी के लागू किया जा रहा है।
 
यह फैसला लोगों के लिए चौंकाने-डराने वाला है। इस निर्णय के समय को लेकर भी सवाल उठाए जा रहे हैं क्योंकि यह शादियों का सीजन है। गांवों में सीमित आमदनी वाले लोग भी इस सीजन में 8-10 लाख रुपए खर्च कर देते हैं। ये रकम नकद खर्च की जाती है और ऐसा करने वाले किसान लोग हैं। उनके लिए बैंक तक भाग-दौड़ बढ़ जाएगी। ग्रामीँण भारत में लोग अस्पताल भी कैश लेकर ही जाते हैं लेकिन बैंक से उनकी जमा राशि मिलने में भी दिक्कत होगी। यह कहना गलत न होगा कि 
छोटे स्तरों पर लोगों के लिए बड़ी मुसीबत होने वाली है। 
 
विश्लेषक कह रहे हैं कि सरकार ने यह फैसला बिना किसी तैयारी के लिया है। जिस काले धन को निकालने की कवायद की जा रही है, उसके पीछे भी बड़े और सम्पन्न लोगों का खेल है। जिनके साथ साथ छोटे-मोटे कारोबार में लगे लोग परेशान होंगे जिनका सारा बिजनेस नकद में होता है, उन्हें बहुत दिक्कत होने वाली है। ग्रामीण भारत के लोगों को बैंक जाने की आदत नहीं है और यह आदत डालने में समय लगेगा। ऐसे लोगों को शिक्षित किए जाने की जरूरत है लेकिन यह सब रातोंरात नहीं होने वाला है। इसमें समय लगता है लेकिन सरकार सब कुछ रातोंरात बदलना चाहती है।  इस कदम के पीछे जो निशाने पर हैं, उनका तो परेशान होगा तय है लेकिन गेहूं के साथ घुन के भी पिसने की संभावना ज्यादा है जोकि इस व्यवस्था का नकारात्मक पहलू है। 
 
वर्तमान सरकार भी मोदी-जेटली के उदारवादी रास्ते चलकर सार्वजनिक उपक्रमों के निजीकरण की ओर तेज कदम बढ़ा रही है। हाल ही में नीति आयोग का प्रयास स्वास्थ्य क्षेत्र में निजी क्षेत्र के निवेशकों तथा बीमा कंपनियों को मुख्य भूमिका में लाने का रहा है। यह जानते हुए कि विकसित देशों में निजीकरण के प्रयास असफल रहे हैं, केंद्र सरकार रेलवे, बैंकिंग व अन्य सार्वजनिक क्षेत्रों में निजीकरण पर जोर दे रही है। सरकार को 25 वर्ष की उदारवादी अर्थव्यवस्था का आकलन करने के साथ-साथ अर्थव्यवस्था में समावेशी नीतियों को शामिल करने की जरूरत है। चूंकि पुरानी नीतियां अब ज्यादा फलदायी नहीं रह गई हैं इसलिए वक्त की जरूरत है कि नए तरीके से इन नीतियों का मूल्यांकन कर सामूहिक विकास की पहल शुरू की जाए।

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