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मस्तिष्क का उद्भव : क्या मस्तिष्क की अपनी मृत्यु में रुचि है?

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मंगलवार, 6 जुलाई 2021 (13:46 IST)
यह सही नहीं है कि पृथ्‍वी पर केवल मानव ही एकमात्र जीव है जिसे भगवान द्वारा प्रदत्त एवं स्वजागरूक होने के उपहार प्राप्त हैं। बल्कि उसने एक बहुत ही आश्चर्यजनक उपकरण 'मस्तिष्क' विकसित किया है जिससे वह सोचता है, याद करता है एवं कल्पना करने की एक अद्भुत समझ है एवं गहन स्मृति की दिव्य दृष्टि है। इस मस्तिष्क की सहायता से मनुष्य ने अपने आनंद के लिए, सुख-सुविधा से रहने के लिए, शिक्षा के लिए बहुत सी खोजें की हैं। यह अद्भुत मस्तिष्क मानव को प्रकृति द्वारा प्रदत्त एक बहुमूल्य उपहार है।
 
 
बिना मस्तिष्क की सहायता से मनुष्य केवल पृथ्वी की सतह पर प्रारंभिक मानव उत्पत्ति के दौर में जीवित नहीं रह सकता था, क्योंकि प्रकृति बहुत ही निर्मम, हिंसक एवं आक्रामक थी। यहां रहने वाले प्रत्येक प्राणी को जीवित रहने के लिए संघर्ष करना होता था। स्वयं को सुरक्षित रखने की चुनौतियां थीं।
 
दूसरे जीवों के मुकाबले मानव एक प्रजाति के रूप में अपने को जीवित रख पाने में अधिक सफल रहा, क्योंकि मानव के पास कल्पना शक्ति वाला मस्तिष्क था। ऐसा नहीं है कि मस्तिष्क दूसरे जीवों के पास नहीं था, परंतु उतना विकसित नहीं, जितना मान‍व मस्तिष्क, क्योंकि लाखों-करोड़ों वर्षों से हम देख रहे हैं कि पशु-पक्षियों, जीव-जंतुओं का मस्तिष्क अभी तक वैसा ही है, जैसा पहले था।
 
आज मानव मस्तिष्क एवं कल्पना शक्ति के बल पर कहां से कहां पहुंच गया एवं कठिन परिस्थितियों से निपटने में सफल रहा है। जीवित रहने व स्वयं को सुरक्षित रखने की भयंकर चुनौतियां थीं। वर्षा, तूफान, अग्नि, जंगली जानवरों, भूकंप जैसी और भी बहुत सी चुनौतियों से मानव मस्तिष्क सजग, चतुर, बहुमुखी एवं मजबूत हो गया।
 
मस्तिष्क में मानव ने एक विश्वसनीय वस्तु प्राप्त की। वह है स्वयं को जानना। जिनमें स्मृति एक अद्भुत उपहार है, जो कि अनुभवों को याद रखने एवं स्वयं को परिष्कृत करने में मददगार रही। स्मृति न केवल विषम परिस्थितियों में जीवन के लिए सहायक रही, अपितु मनुष्य की प्रगति में भी उसने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बहुत से प्राणी स्वयं को जीवित रख पाने में सक्षम नहीं हैं, क्योंकि वे सोच नहीं सकते, याद नहीं रख पाते हैं। वे मानव की तरह परिस्थितियों से समझौता करने में समर्थ नहीं हैं इसलिए बहुत सी प्रजातियां विलुप्त हो गईं।
 
अपने सोचने, याद रखने एवं पहचानने की क्षमता से मानव एक प्रजाति के रूप में जीवित रह पाया। वह सफल रहा। मस्तिष्क स्मृति एवं बुद्धिमत्ता से एवं आपदा के समय न केवल स्वयं को जीवित रख पाया, बल्कि अपनी विवेकपूर्ण सोच से विश्व का निर्माण भी किया।
 
मानव अब बहुत ही चतुर होने के करीब पहुंच चुका है, क्योंकि उसने प्रकृति की ताकतों एवं तत्वों का बहुत सा ज्ञान हासिल कर लिया है। इस चतुरता से उसके ऐसे मस्तिष्क का विकास हुआ, जो चतुर है। हिसाब-किताब में माहिर, कल्पना शक्तिपूर्ण अन्वेषक है।
 
लेकिन अभी मानव मस्तिष्क यह प्रयत्न कर रहा है कि मैं प्रकृति पर शासन करूं, उसे निर्देश दूं। उस पर अपना प्रभुत्व कायम कर लूं। जीवित रहने के लिए इस निरंतर संघर्ष द्वारा हम उस बिंदु पर पहुंच गए हैं कि जहां मस्तिष्क बहुत शक्तिशाली हो गया है। बल्कि मानव प्रजाति को अब डरने की जरूरत नहीं रह गई। वैसे भी बुनियादी जीवन के लिए ऐसी कोई चुनौतियां नहीं रही हैं। हां, विध्वंस एवं मृत्यु का डर आज भी मनुष्य के साथ है और यही डर व्यक्ति को आगे बढ़ने को प्रेरित करता है एवं व्यक्ति आत्मकेंद्रित होने लगता है और ऐसी आत्मकेंद्रितता जीवन ऊर्जा का संकुचन है एवं मनु्ष्य द्वारा काम में ली जा रही वे रक्षात्मक युक्तियां हैं, जो आसपास के खतरों से उसे बचाती हैं।
 
स्मृति की गहन परतों में एवं अस्थिमज्जा में मानव के स्वाभाविक रूप से स्वयं रक्षात्मक होने की भावना छिपी है, क्योंकि अन्य आक्रामक मनुष्यों, क्रूर जंगली जानवरों एवं निर्मम प्रकृति के साथ उसके बढ़ते प्रभावों के अनुभव अभी तक भावनाओं के गहन पटल में कायम है। हां, एक प्रजाति के रूप में हमारे जीने में कोई शंका नहीं है।
 
आज ऐसे मस्तिष्क की प्रक्रिया एवं उद्देश्य क्या हैं? हम देखते हैं कि दिमाग अभी भी पूरी मानव प्रजाति की आनुवांशिकता को आगे बढ़ा रहा है। हमारे पूर्व अनुभव की निष्क्रियता सतत रूप से बनी हुई है एवं हमारे मस्तिष्क की आदतन क्रिया पद्धति बहुत ही मजबूत है। उसकी संरचना को बदलना एवं स्वाभाविक प्रवृत्ति से मुक्त होना बहुत ही कठिन है एवं समय के साथ पूर्ण विकसित हुआ है। यह क्रिस्टलीकृत संरचना है एवं स्वभाव से जैविक जीवाश्म की तरह है इसलिए अभी मस्तिष्क में संघर्ष चल रहा है। भूतकाल की निष्क्रियता एवं बदलाव की इच्छा के बीच। अधिक शांति की इच्छा सृजनता एवं आराम की इच्छा। अभी प्राचीन एवं नई दृष्टि के बीच टकराव पैदा हो गया। समस्या यह है कि गुणवत्ता की खोज कैसे की जाए जिसे हम शांति कहते हैं। प्रेम एवं सृजनता कहते हैं।
 
व्यक्ति अभी बहुत अधिक सुरक्षित एवं चिंतामुक्त हो गया है। वह प्राकृतिक रूप से उसकी कलात्मक सामर्थ्य को खोजने में रुचि रखता है। क्या मस्तिष्क इस तरह की इन कलात्मक सामर्थ्य का सृजन या अनुभव कर सकता है? इनको पाने के लिए मस्तिष्क को बहुत संघर्ष करना पड़ा। उनके बाद विभाजन, संघर्ष, टकराव एवं नई समस्याएं उत्पन्न हुईं। स्वयं टकराव ने शांति के अनुभव में बाधा उत्पन्न की। यह एक अद्भुहो। त उलझन थी मस्तिष्क की, जो कि पुराने मस्तिष्क का ही सतत क्रम है।
 
क्या अभी तक क्या नया, क्या मौलिक है, खोज पाया? यह सदा से बदल रहा है। मस्तिष्क हमारे अतीत का परिणाम है एवं वर्तमान में शांति एवं प्रेम के रूप में ऊर्जा का प्रस्फुटीकरण है। वह भी तब, जब ऊर्जा वर्तमान में पूर्ण हो।
 
क्या कोई प्यार एवं सृजनता का अनुभव कर सकता है? वर्तमान में अतीत एवं मस्तिष्क मिल नहीं सकते। क्या यह संभव है कि मस्तिष्क को स्वयं उसके जड़त्व से मुक्त कर दें।
 
क्या मस्तिष्क स्वयं उसकी संरचना से मुक्त हो सकता है? मस्तिष्क की असहमति ही वास्तविकता है। क्या मस्तिष्क स्वयं उसके अवसान हेतु तैयार है?
 
क्या मस्तिष्क की अपनी मृत्यु में रुचि है? आप प्रेम, स्वतंत्रता एवं अनंतकाल के अनुभव चाहते हैं तो इसके लिए आपको कीमत चुकानी पड़ेगी। क्या आप सही कीमत चुकाने को तैयार हैं? सिर्फ यह इच्छा रखने से कि 'मुझे यह चाहिए' नहीं मिलता। अगर आपको तोता चाहिए तो तोते की कीमत अदा करनी होगी।
 
लेकिन आपको घोड़ा चाहिए तो घोड़े की कीमत चुकानी होगी। आप तोते की कीमत में घोड़ा नहीं खरीद सकते हो। आपको सही कीमत चुकानी होगी।
 
अगर आप जीवन में उच्च स्तर के कलात्मक लक्ष्य प्राप्त करना चाहते हैं तो क्या आप उतना मूल्य चुकाने के लिए तैयार हैं। उसे स्वीकारने को तैयार हैं। विचार-प्रक्रिया से छुटकारा पाना चाहते हैं? क्या आप स्वयं के अहंकार यानी कि 'मैं' मृत्यु को स्वीकारने के लिए तैयार हैं? वास्तव में आप‍ कितने लोग इसके लिए तैयार हैं? आत्मनिरीक्षण करो एवं ढूंढो। सावधानीपूर्वक देखो कि मन आपको धोखा दे सकता है। आप टकराव, संघर्ष में ही समाप्त हो जाएंगे। इसलिए किसी को भी इस बारे में स्पष्ट होना चाहिए कि मन क्या कर रहा है?
 
अगर आप वास्तव में प्रेम, शांति व आनंद का अनुभव चाहते हैं तो आपके पास ये सब विचार-प्रक्रिया के साथ नहीं हो सकता है। इनमें से किसी एक को चुनना होगा जिसमें आप गलती नहीं करेंगे। आप किसी के बारे में कम या ज्यादा का अनुमान नहीं लगा पाओगे। आप समझ एवं एक स्पष्ट दृष्टि के साथ यात्रा के लिए तैयार होंगे। तब ही आप अंतरमन में प्रवेश करोगे, जहां प्रेम, शांति, विवेक जैसे गुण निहित हैं।
 
सत्य एवं प्रेम को ढूंढना एक रोमांचक यात्रा है। ये वैसा ही है, जैसे स्थापित सामाजिक मान्यताओं, सिद्धांतों, परंपराओं एवं मन के इच्छित स्वप्नों की धाराओं के विपरीत दिशा में तैरना। आप इसे सरलता जैसे इच्‍छा करने, पूजा या जप, प्रार्थना करने से प्राप्त नहीं कर सकते हो।
 
जीवन के इस महासागर में आपको स्वयं अपना मार्ग निर्मित करना होगा। आपको स्वयं इस अज्ञात यात्रा के लिए तैयार रहना होगा। जहां न तो मार्ग संकेतक हैं, न ही कोई मार्गदर्शक। आपको यह यात्रा स्वयं ही शुरू करनी होगी। स्वयं के एकांत मार्ग को चुनना होगा, जहां आपका पदचिह्न ही आपका रास्ता होगा।
 
जीवन एक यात्रा है। तीर्थयात्रा अनंतकाल के इस अज्ञात महासागर पर। आपको हर समय तैयार रहना है। किसी भी समय, कहीं से भी आने वाली चुनौती के लिए। बिना शिकायत, बिना प्रतिरोध के आपको इस यात्रा के दौरान होने वाले कष्टों को स्वीकारना ही होगा। कोई शिकायत सुनने वाला भी नहीं होगा।
 
आपको जिंदगी जैसी है, उसे वैसा ही स्वीकारना ही जीवन का प्रारंभ है। अंत का सोचे बिना आपको शुरुआत करनी होगी। आपको यह भी पता नहीं है कि यह यात्रा आपको कहां तक लेकर जाएगी।
 
इस यात्रा का न ही उद्देश्य है, न ही गंतव्य। आप शुरुआत करो एवं इसके साथ बने रहो, जुड़े रहो। यही सत्य है, पूर्ण है, यथार्थ है, शाश्वत है।
 
प्रारंभ में ही अंत निहित है एवं प्रत्येक अंत में एक नई शुरुआत के अवसर मौजूद होते हैं। विचारहीन जीवन ही पूर्ण रहस्य है। शाश्वत अस्तित्व के उद्भभव की शुरुआत।
 
लेखक : मनोज शर्मा (पूर्व संयुक्त निदेशक- परमाणु उर्जा विभाग, अनुवादक, स्वतंत्र लेखक और योग शिक्षक।)

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