समर सीजन पर कविता : भाप सी निकलती है...
हालत बेहाल हुई,
आता है अब मन में।
चड्डी-बनियान पहन,
दौड़ पड़े आंगन में।
गर्मी है तेज बहुत,
शाम का धुंधलका है।
हवा चुप्प सोई है,
सुस्त पात तिनका है।
चिलकता पसीना है,
आलस छाया तन में।
पंखों की घर्र-घर्र,
कूलर की सर्राहट।
एसी न दे पाया,
भीतर कुछ भी राहत।
मुआं उमस ने डाला,
घरभर को उलझन में।
आंखें बेचैन हुईं,
सांसें अलसाई हैं।
चैन नहीं माथे को,
नींदें घबराई हैं।
भाप सी निकलती है,
संझा के कण-कण में।
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