याद आ गईं संजलि काकी,
याद आ गए कक्का।
इक दिन उनके घर पहुंचे,
तो बड़ा मज़ा था आया।
कक्का को चक्के के ऊपर,
घड़ा बनाते पाया।
कक्का घड़ा संभाल रहे थे,
घूम रहा था चक्का।
काकी मिट्टी सान रहीं थीं,
शीतल नीर मिलातीं
बना-बना मिट्टी के लौंदे,
कक्का तक पहुंचातीं।
घड़ा पकेगा तब ही होगा,
पूरा लाल गुलक्का।
इसी चके पर बनते दीपक,
बनती सुगढ़ सुराही।
रंग बिरंगी एक सुराही
घर लाते मन चाही।
इसका ठंडा जल होता था,
मीठा मधुर मुनक्का।
गरमी में मेहमानों का जब,
घर में लगता तांता।
हर कोई अपना ताप मिटाने,
ठंडा तोय मंगाता
चढ़ता जल पीने वाले पर,
रंग ख़ुशी का पक्का।
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