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नन्ही कविता : बागड़

कृष्ण वल्लभ पौराणिक
बागड़ खेत किनारे लगती
औ' फसलों की रक्षा करती
 

 
 
खेजड़ की डाली-डाली से
खेत-खेत को घेरे रखती ...1
 
पशु अंदर जाने ना पाते
मानव की अवरोधक बनती
वर्षा के जल की मिट्टी को
रोक-रोक अपने में रखती ...2
 
बाग-बगीचों की बागड़ भी
कांटों के तारों में अटती
माली की कैंची चलने पर
एक हरी दीवार पनपती ...3
 
कोई अंदर आ ना पाते
सबको बाहर दूर भगाती
और बगीचे की सुंदरता
को यह अपने आप बढ़ाती ...4
 
बागड़ दीवारों की होती
भव्य भवन को घेरे रखती
जहां कटी होती दरवाजा
औ' सेवक से सजी दिखती ...5
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