पिछले सप्ताह अमेरिका के शक्तिशाली खुफिया विभाग सीआईए ने रूस के राष्ट्रपति पुतिन पर अमेरिका के राष्ट्रपति चुनावों में खुले हस्तक्षेप का आरोप लगाया। यह बहुत गंभीर आरोप है, किंतु सीआईए के इस आरोप पर चर्चा करने से पहले हम सीआईए के स्वयं के कारनामों पर एक नज़र डालते हैं।
अमेरिका का यह खुफिया तंत्र दूसरे देशों की राजनीति एवं चुनाव प्रक्रिया में अपने खुले हस्तक्षेप के लिए कुख्यात है। अमेरिका के एक राजनीतिक पंडित डोव लेविन की शोध के अनुसार सन् 1946 से 2000 तक इस एजेंसी ने लगभग 81 बार अन्य देशों के राष्ट्रपति चुनावों में अपनी टांग डाली थी।
इन आंकड़ों में तख्तापलट की कोशिशों में साथ देने की हरकतें शामिल नहीं हैं। ऐसा नहीं है कि इस ख़ुफ़िया तंत्र ने प्रजातंत्र को सुदृढ़ बनाने के लिए ही ऐसा किया हो, इसने अनेक बार तानशाहों का भी साथ दिया है। आपको यह बता दें कि अमेरिकी प्रशासन को जो दल या उम्मीदवार पसंद नहीं आता है और उसे लगता है कि उस उम्मीदवार के चुने जाने से अमेरिकी हितों पर कुठाराघात होगा तो उसे चुनावों के नतीजों का रुख अपने पसंदीदा उम्मीदवार की ओर मोड़ने के लिए पैसा बहाने से कोई एतराज नहीं है।
अपने पसंद के दल को धन देना या विरोधी उम्मीदवार के विरुद्ध झूठा प्रोपोगंडा करना इनका मुख्य हथियार है। धन की सहायता किस देश को देना और किससे वापस ले लेना भी इनकी रणनीतियों में शामिल हैं। मुख्यतः कम्युनिस्ट धारा को रोकने के लिए अमेरिका ने इटली सहित कई देशों में पैसा बहाया।
सन् 1996 के रूसी चुनावों में बोरिस येल्तसिन को जिताने के लिए राष्ट्रपति क्लिंटन ने दस बिलियन डॉलर से अधिक का ऋण इंटरनेशनल मॉनीटरी फंड से स्वीकृत करवाया था। मध्यपूर्व के देशों के कई चुनावों में सीआईए ने अपनी पसंद के उम्मीदवारों के साथ सहयोग किया था, लेकिन इस वर्ष हद तो तब हो गई जब वह अपने ही देश के चुनावों में वह खुद एक पार्टी बन गया। सीआईए पर आरोप है कि उसने राष्ट्रपति चुनावों में हिलेरी का साथ दिया।
चुनावों में ट्रम्प की जीत हुई जिससे व्यथित होकर सीआईए ने हिलेरी की पराजय का सेहरा रूस के राष्ट्रपति पुतिन के सिर पर बांध दिया है। वर्षों तक अन्य देशों के चुनावों में हस्तक्षेप करने वाली सीआईए को जब खुद उसकी दवा का स्वाद मिला तो उसे कड़वा लग रहा है। पुतिन पर सीआईए आरोप लगा रही है कि उन्होंने व्यक्तिगत रूप से हिलेरी के कम्प्यूटर में से सूचनाएं चोरी करके उसे सार्वजानिक कर दिया जिसकी वजह से हिलेरी के विरुद्ध चुनावी माहौल बना। अब प्रश्न यह है कि कुछ गोपनीय पत्राचार को सार्वजानिक कर देने मात्र से हिलेरी हार गई तो सीआईए जैसी संस्था के इस निष्कर्ष पर आप तरस ही खा सकते हैं।
अब सिक्के का दूसरा पहलू देखते हैं। इन चुनावों में कई देशों पर हिलेरी के समर्थन का भी आरोप है। खाड़ी के कई देशों पर आरोप है कि उन्होंने क्लिंटन फाउंडेशन को बड़ी सहायता राशि देकर चुनाव में परोक्ष रूप से हिलेरी का लाभ पहुंचाया। ये देश ट्रम्प को अमेरिका के राष्ट्रपति के रूप में नहीं देखना चाहते थे। औरों की बात तो छोड़िए, पाकिस्तान ने भी हिलेरी पर अपना दांव खेला था। क्षमता से अधिक उसने इन चुनावों में अपनी शक्ति विसर्जित की थी। अब हिलेरी के हारने के बाद पाकिस्तान, ट्रम्प को मुंह दिखाने लायक नहीं रहा। मीडिया में सन्नाटा छा गया। नवाज़ शरीफ को बधाई का टेलीफोन करने के लिए लगभग एक महीने का समय लग गया। किस मुंह से बधाई देते? ट्रम्प से औपचारिक वार्तालाप हुआ। ट्रम्प ने कथित तौर पर पाकिस्तान और नवाज़ के लिए कुछ अच्छे शब्द कहे जिसे सारी राजनयिक मर्यादाओं को ताक में रखकर पाकिस्तान सरकार ने अतिउत्साह में तुरत-फुरत सार्वजानिक कर दिया। इसे लेकर अमेरिकी मीडिया में पाकिस्तान की बहुत भद पिटी और तो और पाकिस्तान के मीडिया ने भी सरकार को उसके इस बचकानी हरकत के लिए बहुत कोसा।
इस तरह अमेरिकी चुनाव क्या हुए, रेस के मैदान की तरह घोड़ों पर दांव लग गए। कम्युनिस्ट देशों के बारे में कहा जाता था कि इन्होंने अपनी विचारधारा का फ़ैलाने के लिए अनेक देशों में अपने संगठन पैदा किये और उन्हें चुनावों में सहयोग दिया। किंतु आधुनिक युग में किसी विचारधारा का प्रश्न नहीं है। प्रजातंत्र का भी प्रश्न नहीं है और न ही किसी दल से कोई लेना-देना। यहां तो उम्मीदवार को देखकर तय किया जाने लगा है कि किसके लिए मैदान में कूदना है। अब सोचिए यदि इस प्रथा को बल मिला तो क्या होगा? प्रत्येक देश के चुनावों में बाहरी ताकतें लग जाएंगी विशेषकर शक्तिशाली देशों जैसे इंग्लैंड, जर्मनी, फ्रांस जापान इत्यादि में अपनी पसंद का उम्मीदवार बैठाने के लिए। इसमें संदेह नहीं कि यह एक खतरनाक प्रथा की शुरुआत है। अंततः जाकर यह स्वच्छ राजनीति के जलाशय को कितना दूषित करेगी कहना कठिन है। ईश्वर इसके सूत्रधारकों को सदबुद्धि दे, अभी तो यही कहा जा सकता है।