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पश्चिम में अब भक्ति-योग की भी धूम

राम यादव
भारत के स्वघोषित धर्मनिरपेक्षी जिस स्वदेशी ज्ञान-ध्यान को 'हिंदुत्व' बताकर ठुकराते हैं, पश्चिम में उसे ही बड़े शौक से आत्मिक सुख-शांति के लिए अपनाया जा रहा है।   
 
जॉर्जिया वीस स्पेन से अलग होने के लिए मचल रहे कतालोनिया की राजधानी बार्सेलोना में रहती हैं। पर, देश-दुनिया में प्रायः घूमती-फिरती ही मिलती हैं। भारत-भ्रमण भी कर चुकी हैं। छह वर्ष न्यूयॉर्क में भी रहीं। वहां देश-विदेश की नामी कंपनियों द्वरा अपनस विज्ञापन के लिए के लिए बनाई गई फ़िल्मों की 'एडिटिंग' (काट-छांट) की। जब मन भर गया, तो 2001 में स्वदेश लौट आईं। अब अपनी डॉक्यूमेंट्री फ़िल्में बनाने लगीं हैं। नवीनतम फ़िल्म है 'मंत्रा – साउन्ड्स इनटू साइलेंस' (मंत्र – नीरव शांति की ओर ले जाती ध्वनियां)। 
 
डेढ़ घंटे की यह अंग्रेज़ी फ़िल्म मार्च 2018 से अमेरिकी सिनेमाघरों में चल रही थी। अब यूरोप में भी दिखाई जा रही है। 7 जून 2018 से जर्मन 'सबटाइटल' के साथ जर्मनी के भी कई सिनेमाघरों में चल रही है। फ़िल्म में कोई वर्णनकर्ता (नैरेटर) नहीं है। संगीत में पिरोये मंत्र और कीर्तन हैं। उनके सामूहिक गान से अपार सुख मिलने का वर्णन करते लोग हैं। तब भी बिना किसी कथा-कहानी वाली यह फ़िल्म आदि से अंत तक दर्शक को बांधे रखती है। यही कहती लगती है कि भारत अब तक अपने हठयोग से पश्चिमी जगत को मंत्रमुग्ध कर रहा था। अब उसके संस्कृत मंत्रों का कीर्तन पश्चिम का मन मोह रहा है।
 
आत्मिक सुख की प्यास : पश्चिमी जगत के बहुतेरे लोग किसी धार्मिक भुलावे या बहकावे में आकर भजन-कीर्तन की तरफ़ नहीं झुक रहे हैं और न हिंदू बन रहे हैं। आधुनिक जीवन की ''जल-बिच मीन पियासी'' वाली स्थिति उन्हें अंतर्मन की प्यास बुझाने के लिए गायत्री मंत्र जैसे संस्कृत मंत्रों या हिंदी-अंग्रेज़ी-संस्कृत मिश्रित स्वरचित भजनों का झूम-झूमकर सामूहिक गायन करने के लिए प्रेरित कर रही है। शब्दों के अर्थ और हिदू देवी-देवताओं के नामों और मान-सम्मान से लोग प्रायः अनभिज्ञ होते हैं। पर इससे उनके लिए भजन-कीर्तन संध्याओं के ''अंतरमन को सराबोर कर देने वाले'' रसास्वादन में कोई फ़र्क नहीं पड़ता।
 
फ़िल्म अपनी निर्देशिका जॉर्जिया वीस के निजी अनुभवों की भी देन है। अमेरिका में उसके प्रथम प्रदर्शन के अवसर पर उन्होंने कहा, ''सबसे जुड़े होने का आभास देती हमारी आज की व्यस्त दुनिया में लोग अपने सबसे महत्वपूर्ण जुड़ाव से कटते जा रहे हैं – अपने आप से। मैं स्वयं इस कटजाने को भुगत चुकी हूं। तब मंत्र-गायन ने, जिसे भक्ति-योग या कीर्तन भी कहा जाता है, मुझे अपने आप से और भी गहरे स्तर पर न केवल पुनः जोड़ने का काम किया, अपने बहुत निकट के एक प्रियजन से बिछुड़ जाने की दुखदा घटना से उबरने में भी मेरी सहायता की।
 
जीवन के हर क्षेत्र के अन्य लोगों को भी ऐसा करने से हुए लाभकारी प्रभावों के बारे में जब मैंने जाना, तो यह बताने के लिए कि किसी की पृष्ठभूमि कुछ भी हो, कीर्तन हर-एक के और सबके दिल की वैश्विक भाषा है, मैंने उस पर एक फ़िल्म बनाने का निश्चय किया।''
   
जॉर्जिया वीस
मंत्रों की दुनिया का परिचय : मंत्रों की दुनिया से जॉर्जिया वीस का परिचय 2004 में हुआ था। तभी से वे सोच-विचार करने लगी थीं एक ऐसी फ़िल्म कैसे बनाई जाए, जो लोगों को बोध कराए कि मंत्रों को बार-बार गाते हुए दुहराने का तन-मन दोनों के लिए कितना बड़ा स्वास्थ्यकारी महत्व है। 2012 में बार्सेलोना में एक योग-महोत्सव था। उसमें भक्तियोग की पश्चिमी दुनिया के दो सबसे जानेमाने नाम,  जर्मनी में जन्मी अमेरिकी गायिका देवा प्रीमल और उनके जीवनसाथी मिर्तन भी आए थे। जॉर्जिया वीस उनसे मिलीं और बताया कि वे मंत्रगान के गुणकारी प्रभावों के बारे में फ़िल्म बनाना चाहती हैं। दोनों ने कहा कि वे भी इस फ़िल्म को बनाने में पूरा सहयोग देना चाहते हैं। 
 
देवा प्रीमल और मिर्तन के साथ ही 2013 में फ़िल्म का पहला दृश्यांकन हुआ। उसी साल मंत्र-गायन और भजन-कीर्तन की पश्चिमी दुनिया के दो और बड़े अमेरिकी नामों कृष्णा दास और स्नातम कौर से बार्सेलोना में ही इंटरव्यू करने और कुछ दृश्यों को फिल्माने का अवसर मिला। बाद में पेरिस में हुए एक शांति-महोत्सव के समय वहां बौद्ध मंत्रों के गायक लामा ग्युर्मे और उनके नेत्रहीन सहयोगी जौं फ़िलिप रिकिएल से बात करने और उनके कार्यक्रम को फ़िल्माने का अवसर भी मिला। इस प्रकार जॉर्जिया वीस का विचार धीरे-धीरे ठोस आकार ग्रहण करने लगा।
 
'क्राउडफ़ंडिंग' से धन जुटाया : इस आरंभिक सफलता से उत्साहित हो कर जॉर्जिया वीस और उनके सहयोगी व कैमरामैन वारी ओम ने पूर्व तथा पश्चिम के कई देशों में जाकर वहां फ़िल्मांकन का कार्यक्रम बनाया। ''मंत्रा – साउन्ड्स इनटू साइलेंस'' में किसी प्रचलित क़िस्म की फ़ीचर फ़िल्म (कथा फ़िल्म) की तरह मंहगे दृश्य या सेट नहीं हैं। तब भी विभिन्न देशों में जाकर भजन-कीर्तन के उसी समय चल रहे (लाइव) कार्यक्रम का फ़िल्मांकन कोई सस्ता काम भी नहीं था।
 
अतः निजी लोगों, कंपनियों, न्यासों, संस्थाओं इत्यादि से संपर्क कर धन जुटाने की 'क्राउडफ़ंडिंग' के द्वारा धन जुटाया गया। नेपाल, भारत, अमेरिका, जर्मनी, ग्रीस या रूस जैसे स्पेन से दूर के देशों में भी फिल्मांकन किए गए। भारत में कीर्तन और भक्तियोग की जन्मभूमि ऋिषीकेश और वृंदावन को चुना गया, जॉर्जिया वीस का कहना है कि ''ऋिषीकेश, वृंदावन और काठमांडू में हमने कीर्तन के उद्गम का सारतत्व पाया।''
 
अमेरिका में प्रथम प्रदर्शन के समय यह सारी बातें बताते हुए जॉर्जिया वीस ने यह भी कहा कि, फ़िल्म बनाने के दौरान ''हमने आध्यात्मिकता के विभिन्न मार्गों पर चल रहे लोगों की सुंदरता देखी। वे इस धरती पर हर जगह जुटते हैं और संगीत की भिन्न-भिन्न शैलियों में मंत्र-गायन करते हैं। इसी में हमने वह क्षमता भी देखी, जो एक शांतिपूर्ण और सर्वप्रिय दुनिया की रचना कर सकती है।''
    
शांतिप्रिय दुनिया का सपना : हो सकता है कि मंत्र-गायन और भक्तियोग के प्रति जॉर्जिया वीस के ये उद्गार हमें बहुत अतिरंजित लगें। यह भी संभव है कि मंत्रोच्चार और भजन-कीर्तन करने भर से हमारी उथलपुथल-भरी जटिल दुनिया शांतिपूर्ण और सर्वप्रिय नहीं बन सके। पर, फ़िल्म देखने के बाद यह धारण बलवती अवश्य होती है कि धर्म-मुक्त आध्यात्मिक चिंतन-मनन या भजन-कीर्तन दुनिया में हिंसावृत्ति को घटाने में सहायक बन सकता है। मन की असंतुष्टि ही दैनिक जीवन में हिंसा और तनाव की या फिर अवसाद (डिप्रेशन) जैसी मानसिक बीमारियों की जड़ बनती है। अतः ''मन चंगा, तो कठौती में गंगा'' की कामना अस्वाभाविक नहीं कही जा सकती।
 
जॉर्जिया वीस की डॉक्यूमेंट्री ''मंत्रा – साउन्ड्स इनटू साइलेंस'' में मुख्य रूप से पश्चिमी जगत की आधुनिक जीवनशैली वाले ऐसे लोग दिखाई- सुनाई पड़ते हैं, जो उबाऊ काम या काम के बोझ से होने वाले 'बर्न आउट', दैनिक जीवन के तनाव,  सोशल मीडिया के दबाव, ई-मेल की बाढ़ या मोबाइल फ़ोन की मार जैसी चीज़ों से परेशान हैं। कुछ ऐसे भी हैं, जो अफ़ीम या हेरोइन जैसे मादक द्रव्यों के नशेड़ी रहे हैं, अपराधी रहे हैं और अब जेल में हैं।
 
लगता है, ईश्वर से जुड़ गए : भजन-कीर्तन के गायक – हार्मोनियम और तबला अथवा मृदंग-वादक या गिटार-वादक के साथ – जब ऐसे लोगों के सामने ''ओम भूर्भुव: स्व: ...''  जैसा कोई मंत्र, किसी भजन का कोई पद या फिर केवल ''राम-राम, जै-जै राम'', ''गोपाल कृष्णा, राधेकृष्णा'', '' शिवशंकर, शिवशंभू'', ''हे मां, दुर्गा मां''  जैसा कुछ गाते हैं, और लोग समवेत स्वर में झूम-झूम कर ताली बजाते हुए बार-बार उसे दुहराते और कभी-कभी नाचने भी लगते हैं, तब वे अपने सारे दुख-दर्द ही नहीं भूल जाते, उन्हें लगता है कि वे ''अपने आप से, आस-पास के सभी लोगों से, यहां तक कि ईश्वर से भी जुड़ गए हैं...''  कुछ लोगों की आखों से तो आंसुओं की धार बह चलती है। वे ऐसे क्षणों को ''परमानंद''  की अनुभूति बताते हैं।
 
सन फ़्रांसिस्को की सान क्वान्टीन जेल के एक क़ैदी का कहना है, ''इससे हमें बहुत-सी मुक्तियां मिलती हैं।'' इस जेल में जाकर एक मुफ्त कीर्तन कंसर्ट देने वाले जय उत्तल को उनके कीर्तन-संगीत के सम्मान में तीन बार संगीत के ग्रैमी पुरस्कार के लिए नामांकित किया जा चुका है।
 
उत्तल और कुछ दूसरे अमेरिकी कीर्तन-प्रेमी संगीतकारों ने कीर्तन-संगीत की अपनी अलग विधाएं विकसित की हैं।  पश्चिमी कानों के लिए कीर्तन वास्तव में शाब्दिक से अधिक सांगीतिक महत्व रखता है। कीर्तन का यह सांगीतिक पक्ष भी पश्चिमी जगत में उसकी तेज़ी से बढ़ती लोकप्रियता का एक प्रमुख कारण बताया जा सकता है।
 
सार्थकता की तलाश : फ़िल्म में कई बार दिखाई पड़ने वाली अमेरिका की कैरन फ़ाइन कलाकृतियों की सफल विक्रेता हैं। पर उन्हें अपना जीवन बहुत ख़ाली-ख़ाली-सा लगने लगा था। बड़ी बेचैनी के साथ जीवन के लिए सार्थकता की तलाश में थीं। यह सार्थकता उन्हें अब मंत्र-गायन से ही मिलती है। हिपहॉप संगीत शैली में मंत्र-गायन करने वाले एमसी योगी का कहना है कि वे आजकल के तेज़ गति आधुनिक जीवन के साथ मेल नहीं बैठा पा रहे थे। भारत की प्राचीन कीर्तन परंपरा ने उन्हें आधुनिक जीवन के साथ संगति बैठाने के लिए सक्षम बनाया।
 
कीर्तन-संगीत के पश्चिमी प्रेमियों के बीच कृष्णा दास का नाम सबसे अधिक सुपरिचित है। वे भी शतप्रतिशत अमेरिकी हैं। अतीत में कोकेन के नशेड़ी रह चुके हैं। फ़िल्म में वे कहते हैं कि मंत्र-गायन के बिना वे आज शायद जीवित ही नहीं होते। ''मैंने जब दूसरों के साथ जब पहली बार गाना शुरू किया'', उनका कहना है, ''तभी मेरे लिए साफ़ हो गया कि यदि मैं लोगों के साथ नहीं गाऊंगा, तो मैं अपने हृदय की कालिमा को कभी नहीं मिटा पाऊंगा।''
 
फ़िल्म में रूस की राजधानी मॉस्को के कम से सम एक हज़ार सीटों वाले एक भव्य विशाल हॉल में, जो खचाखच भरा हुआ था, एक कीर्तन-कंसर्ट का दृश्य है, सारा हॉल संस्कृत और हिंदी के शब्दों को न केवल साथ-साथ दुहरा रहा था, बड़े-बूढ़ों सहित कई नौजवानों की बंद आंखों से आंसू भी छलकते दिख रहे थे... 
 
कोई नई ''हिप्पी संस्कृति'' नहीं : जॉर्जिया वीस की इस फ़िल्म को किसी नई ''हिप्पी संस्कृति'' का विज्ञापन मानना या उसे पश्चिम में प्रचलित रहस्यवादी गूढ़ज्ञान (एसोटेरिक) के फ़ैशन का पोषक बताना न केवल सरासर अन्याय होगा, विज्ञान की खोजों से प्रप्त ज्ञान का अज्ञान भी कहलाएगा। इस फ़िल्म से पहले भी यूरोप-अमेरिका में हुए शोधकार्यों में योग-ध्यान और धीमे संगीत के अनुकूल शारीरिक-मानसिक प्रभावों की कई बार पुष्टि हो चुकी है।
 
इस फ़िल्म में भी अमेरिका के एक तंत्रिका विज्ञानी (न्यूरोसाइंटिस्ट) एन्ड्रयू नेबर्ग कंप्यूटर क्रमवीक्षण (स्कैनिंग) की सहायता से बताते हैं कि मंत्रों के संगीतमय कीर्तन से भी मस्तिष्क की बनावट में वैसे ही अनुकूल परिवर्तन देखने में आते हैं, जो तीन महीनों की ध्यान-साधना (मेडिटेशन) के बाद देखे गए हैं। ये परिवर्तन "तर्कबुद्धि से परे की अनुभूतियों के लिए मस्तिष्क के दरवाज़े खोल देते हैं।'' 
 
शोधकार्यों की भी कमी नहीं : जॉर्जिया वीस की फ़िल्म ''मंत्रा – साउन्ड्स इनटू साइलेंस'' में मंत्र-गायन और भजन-कीर्तन के लाभों की वैज्ञानिक पुष्टि का केवल उपरोक्त उदाहरण ही मिलता है। पर, इस बारे में शोध की कमी नहीं है।   
 
अमेरिकी पत्रिका 'साइकॉलॉजी टुमारो' में मार्च 2013 में एक दिलचस्प लेख देखने में आया। उसके लेखक थे मनोवैज्ञानिक रेवरेंड डॉ. जेम्स रेहो, वे 2006 में, न्यूयॉर्क में राह चलते हुए पहली बार स्वयं एक कीर्तन-संध्या से परिचित हुए। उस पहली बार ही वे कीर्तन पर मुग्ध हो कर एक अपूर्व आनंद के साथ घर लौटे। उस आनंद को वे ''परमानंद'' (ब्लिस) और ''हृदय की अजीब-सी गरमाहट'' की संज्ञा देते हैं।
 
 
परमसुख की अनुभूति का सबसे सरल रास्ता : डॉ. रेहो का कहना है कि तन-मन के साथ ईश्वर से एकात्म होने, अद्वैत (ईश्वर) की दुनिया में पहुंच कर उसके साथ एकाकार होने के कई रास्तों में ''कीर्तन सबसे निजी, सरल... और सुलभ रास्ता है।'' ऐसा इसलिए, क्योंकि ''अद्वैत न तो हमारे जैसा है और न हमसे भिन्न है।''  कीर्तन ''पहली बार में ही'' हमारे हृदय में ईश्वर की अनुभूति दिलाने के सारे दरवाज़े खोल सकता है। इसीलिए ''कीर्तन हमारे तथाकथित 'धर्मनिरपेक्ष' ज़माने के विभिन्न धर्मों और आस्थाओं वाले लोगों को भारी संख्या में आकर्षित कर रहा है।'' 
 
कीर्तन-कार्यक्रम अमेरिका के बड़े-बड़े हॉलों और चर्चों (गिर्जाघरों) को भर रहे हैं। न्यूयॉर्क टाइम्स जैसे अख़बार भी कीर्तन के बारे में लेख लिख रहे हैं। कीर्तन-गायकों को \ग्रैमी\ पुरस्कार तक के लिए नामांकित किया जा रहा है।
 
कीर्तन-गायकों के लिए अमेरिका में एक नया नाम भी चल पड़ा है –  कीर्तन वाला। संक्षेप में उन्हें केवल 'वाला' कहा जाता है। डॉ. रेहो ने लिखा कि कीर्तन के बाद की नीरवता हर दूसरी शांति से अलग होती है। वह एक ऐसी नीरव शांति होती है, जिसमें ईश्वर के साथ मिलन में धर्म या मताग्रह (डॉग्मा) की कोई भूमिका नहीं रह जाती। व्यक्ति अपनी पूरी खुशी के साथ ततक्षण की वास्तविकता के प्रति जागरूक रहता है। उसे लगता है कि वह ईश्वर का प्रेमी और ईश्वर उसका प्रेमी है।
 
कीर्तन-संगीत अतरात्मा को जिस अनुभूति से आप्लावित कर देता है, उसके लिए डॉ. रेहो ने संस्कृत के ''भाव'' शब्द का प्रयोग किया है और लिखा है कि उसे अभिव्यक्त करने के लिए अंग्रेज़ी में कोई सही शब्द है ही नहीं। उनका कहना है कि सस्वर मंत्रोच्चार से मन की चंचलता अपने आप दूर हो जाती है। उसे एकाग्र करने की आवश्यकता नहीं रह जाती। 
 
मस्तिष्क-तरंगों में परिवर्तन : डॉ. रेहो ने लिखा कि मंत्रोच्चार करने वालों के मस्तिष्क की विद्युत चुंबकीय तरंगों पर प्रभावों के अध्ययन से पता चला है कि 10-12 मिनट के भीतर ही उनकी मस्तिष्क-तरंगों के आयाम (एम्प्लीट्यूड) में परिवर्तन होने लगता है। यह परिवर्तन उन लोगों की मस्तिष्क-तरंगों के आयाम-परिवर्तन के समान होता है, जो लंबे समय से ध्यान साधना करते रहे हैं।
 
मंत्रों वाले कीर्तन और भारतीय देवी-देवताओं के नाम अमेरिका और यूरोप में भी अघिकतर संस्कृत में ही या फिर हिंदी में गाए जाते हैं, भले ही लोग संस्कृत या हिंदी शब्दों का सही उच्चारण नहीं कर पाते। इस सहज-स्वाभाविक दिमाग़ी खुलेपन को देखने पर भारत की याद आये बिना नहीं रहती। भारत में तो आजकल देवी-देवताओं के नाम लेना ही ''हिंदुत्व'' थोपना बन जाता है। संस्कृत भाषा की पढ़ाई और हिंदी सहित सभी भारतीय भाषाओं में शुद्ध संस्कृत शब्दों के प्रयोग मात्र से स्वघोषित धर्मनिरपेक्षियों का धर्म भ्रष्ट होने लगता है। 
 
कीर्तन की भाषा संस्कृत है : दूसरी ओर अंग्रेज़ी भाषी अमेरिका के ईसाई मनोवैज्ञानिक रेवरेंड डॉ. जेम्स रेहो हैं, जो कहते हैं कि अमेरिका में कीर्तन की भाषा संस्कृत ही रखना बिल्कुल सही है। इसके कारण गिनाते हुए वे लिखते हैं कि यदि हम अपनी मातृभाषा में मंत्र बोलने लगे, तो हमारा बौद्धिक ध्यान तुरंत उनके अर्थ की ओर जाने लगेगा। हम मंत्रों की ध्वनि वाले सुखद अनुभव से भटक जाएंगे। अर्थ नहीं जानने पर मंत्र-ध्वनि की अनुभूति कहीं गहरी होती है। ध्वनि से उत्पन स्पंदन को बेहतर महसूस किया जा सकता है।
 
दूसरा कारण वे यह बताते है कि मंत्रों वाले कीर्तन के शब्दों में अक्षरों के स्थान का एक अलग विज्ञान है। ''नाद-योग'' कहलाने वाला यह भारतीय विज्ञान कतिपय ध्वनियों के, विशेषकर 'स्वर' कहलाने वाले (अ,आ, ई इत्यादि) अक्षरों से उत्पन्न ध्वनियों के मनुष्यों पर पड़ने वाले मनोवैज्ञानिक और शरीर क्रियात्मक (फ़िजियोलॉजिकल) प्रभावों के अवलोकन से बना है। इन अक्षरों की ध्वनि से नाड़ी की गति, विभिन्न मांसपेशियों मे तनाव या शैथिल्य की अवस्था और शरीर के हार्मोनों के स्राव में परिवर्तन होता है। संस्कृत के शब्दो में 'आ.. ' जैसी ध्वनियों की अधिकता उसे मंत्र-गायन की सबसे उपयुक्त भाषा बना देती है।
  
कीर्तन की जड़ें : डॉ. जेम्स रेहो तीसरा कारण यह बताते हैं कि भजन-कीर्तन भारत के जनसाधारण का गाना-बजाना है। वह भारत के उन लोकप्रिय धार्मिक सुधारों से जुड़ा हुआ है, जो चैतन्य महाप्रभु जैसे कवि हृदय संतों-महात्माओं ने सदियों पहले किए हैं। मंत्र आदि तो वेदों-पुराणों के समय से ही प्रचलित रहे हैं। वैदिक काल की 'अनुकीर्तन' प्रथा में ही आज के कीर्तन की जड़ें देखी जाती हैं।  इस दृष्टि से कीर्तन भारत की आध्यात्मिक परंपरा का संगीतमय इतिहास भी हैं।
 
चौथा प्रमुख कारण कीर्तनों में इस्तेमाल होने वाले वाद्ययंत्र हैं। वे धुन और ताल के मेल से एक ऐसे संगीतमय ध्वनिमंडल की रचना करते हैं कि हर किसी का सहज ही गुनगुनाने का मन करने लगता है। गुनगुनाने वाला अनुभव ही 'ओम' के उच्चार को एक प्रबल आध्यात्मिक साधना बना देता है, दूसरी ओर तबला एक ऐसा वाद्य है, जो हमारे दिल की धड़कनों की नकल तक कर सकता है, कहना है डॉ. जेम्स रेहो का।  
 
अमेरिका में पहला कीर्तन : जहां तक कीर्तन के पश्चिमी जगत में सबसे पहले पहुंचने के समय का प्रश्न हैं, तो माना जाता है कि परमहंस योगानंद संभवतः ऐसे पहले व्यक्ति थे, जिन्होने 1923 में अमेरिका के कर्नेगी हॉल में तीन हज़ार लोगों के साथ गुरुनानक का प्रिय कीर्तन ''हे हरि सुनन्दा'' गाया था। बाद में भक्ति वेदांत स्वामी प्रभुपाद द्वारा स्थापित 'अंतरराष्ट्रीय कृष्ण चेतना संघ' (इस्कॉन) ने 'संकीर्तन' नाम से अपने प्रचार-प्रसार के लिए भारत की इस परंपरा का उपयोग किया। (मॉस्को में 'हरे कृष्ण, हरे राम' का कीर्तन)  
 
किंतु पश्चिमी जगत में कीर्तन के पैर 1980 वाले दशक में ही जमने शुरू हुए। उस समय और आज भी जनसाधारण को संस्कृत मंत्रों और कीर्तन से परिचित कराने में सबसे बड़ी भूमिका योगासान सिखाने वाले उन निजी स्कूलों की है, जो अब यूरोप-अमेरिका के छोटे-बड़े शहरों में ही नहीं, गांवों तक में फैल गए हैं। आज पश्चिमी देशों में योग के जितने शिक्षक-शिक्षिकाएं और योगाभ्यासी मिलेंगे, उतने शायद भारत में भी नहीं होंगे। पश्चिम के देशों में योगाभ्यास स्वास्थ्य के प्रति प्रबुद्ध जीवनशैली का अभिन्न अंग बनता जा रहा है।
 
ईश्वर के सानिध्य की अनुभूति : हठयोग और ध्यान साधना की तुलना में कीर्तन-जैसे भक्तियोग का मुख्य लाभ यह बताया जाता है कि साधक को लगता है कि वह अपनी मंडली के अन्य लोगों से ही नहीं, ईश्वर से भी सरलता से जुड़ जाता है। या कम सा कम उसे एक ऐसे चरम-आनंद की अनुभूति होती है, जो ईश्वर से मिलने-जैसे परम सुख के समान है। कीर्तनकारी कहते हैं कि ब्रह्मांड में हर चीज़ का अपना एक कंपन, एक स्पंदन (वाइब्रेशन) है। उसी तरह कीर्तन में मंत्रोच्चार की ध्वनि का भी अपना एक स्पंदन है, जो हमें दूसरों से जोड़ता है। 
 
प्रयोगों में पाया गया है कि उदाहरण के लिए, 'ओम' शब्द का खुल कर उच्चारण करने से 432 हेर्त्स फ्रीक्वेंसी का ध्वनि- स्पंदन पैदा होता है। इसी फ्रीक्वेंसी को ब्रह्मांड में हर चीज़ के स्पंदन की आधारभूत फ्रीक्वेंसी भी माना जाता है। इसी बात को आधार बना कर कीर्तनकारी मानते हैं कि 'ओम' शब्द का उच्चारण उन्हें समग्र ब्रह्मांड से भी जोड़ता है। कुंडलिनी योग के शिक्षक कहते हैं कि 'ओम' जैसे किसी मंत्र को हर दिन नौ मिनट बोलने से मन-मस्तिष्क को स्पष्ट लाभ पहुंचता है और शारीरिक स्वास्थ्य भी सुधरता है। 
 
पश्चिमी जगत स्वेच्छा से अपना रहा है : जो भी हो, इतना तय है कि मंत्रोच्चार और भजन-कीर्तन तन-मन के लिए हानिकारक नहीं, योगाभ्यास की तरह लाभदायक ही हैं, तभी पश्चिमी जगत उन्हें स्वेच्छा से अपना रहा है। यह भी तय समझना चाहिए कि भारत में योगाभ्यास के प्रति स्वीकृति जिस तरह उसके अमेरिका से लौट कर आने के बाद ही बढ़ी, उसी तरह मंत्रों और भजन-कीर्तन का मान-सम्मान भी उनके अमेरिका से लौट कर आने के बाद ही बढ़ेगा।
 
हमारे धर्मनिरपेक्षतावादी प्रगतिशील एक ऐसी हीनता-ग्रंथि से पीड़ित पिछड़े लोग हैं, जो किसी स्वदेशी व्यंजन को तभी निगल पाते हैं, जब वह इंग्लैंड-आमेरिका की जूठन बन कर वापस आता है।  जॉर्जिया वीस की फ़िल्म भी अंत में यही कटाक्ष करती है।

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