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Sanatan Dharma : ये 20 मंत्र जो हर हिंदू को सीखना और बच्चों को सिखाना चाहिए

WD Feature Desk
प्रत्येक माता पिता को अपने बच्चों को हिंदू धर्म के 20 मंत्रों को जरूर सिखाना चाहिए, क्योंकि हर जगह यह मंत्र काम में आते हैं। ऐसा कहा जाता है कि इससे बच्चों का मन भटकता नहीं है और उनमें अच्छा करने की प्रेरणा मिलती है। वे बुरे मार्ग पर जाने से खुद को रोक लेते हैं।  
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1. रामाय रामभद्राय  रामचंद्राय वेधसे !
रघुनाथाय नाथाय सीताया: पतये नम:!!
अर्थात राम, रामभद्र, रामचंद्र, विधात स्वरूप, श्री रघुनाथ जी एवं माता श्री सीता जी के स्वामी की मैं वंदना करता हूं।
 
2. राम राम रामेति रमे रामे मनोरमे ।
सहस्रनाम तत्तुल्यं रामनाम वरानने ॥
अर्थ : शिवजी माता पार्वतीजी से कतहे हैं कि श्रीराम नाम के मुख में विराजमान होने से राम राम राम इसी द्वादश अक्षर नाम का जप करो। हे पार्वति! मैं भी इन्हीं मनोरम राम में रमता हूं। यह राम नाम विष्णु जी के सहस्रनाम के तुल्य है। भगवान राम के 'राम' नाम को विष्णु सहस्रनाम के तुल्य कहा गया है। इस मंत्र को श्री राम तारक मंत्र भी कहा जाता है। और इसका जाप, सम्पूर्ण विष्णु सहस्त्रनाम या विष्णु के 1000 नामों के जाप के समतुल्य है। यह मंत्र श्री राम रक्षा स्तोत्रम् के नाम से भी जाना जाता है।
 
3. ।।ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।।- यह मंत्र ईश्‍वर और सूर्य को समर्पित है।
अर्थ : सृष्टिकर्ता प्रकाशमान परामात्मा के तेज का हम ध्यान करते हैं, परमात्मा का वह तेज हमारी बुद्धि को सद्मार्ग की ओर चलने के लिए प्रेरित करें।
 
4. ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् |
उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात् ||
मंत्र का अर्थ : हम त्रिनेत्र को पूजते हैं, जो सुगंधित हैं, हमारा पोषण करते हैं, जिस तरह फल, शाखा के बंधन से मुक्त हो जाता है, वैसे ही हम भी मृत्यु और नश्वरता से मुक्त हो जाएं।
 
5. वक्रतुण्ड महाकाय सूर्यकोटि समप्रभ: ।
निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा ॥
 
अर्थ : जिनका मुख घुमावदार है। जिनका शरीर विशाल है, जो करोड़ों सूर्य के समान तेजस्वी हैं, जो ज्ञान का प्रकाश चारों ओर फैला सकते हैं, जो सभी कार्यों में होने वाले बाधाओं को दूर कर सकते है, वैसे प्रभु आप मेरे सभी कार्यों की बाधाओं को शीघ्र दूर करें। आप मुझ पर अपनी कृपा दृष्टि सदैव बनाए रखें।
 
6. हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे। 
हरे राम, हरे राम, राम राम हरे हरे।।
अर्थ : इस राम और कृष्ण मंत्र में हरे शब्द श्री विष्णु और भगवान शिव का संबोधन माना जाता है। विष्णु जी को हरि और शिवजी को हर कहते हैं, दोनों को मिलाकर हरे हुआ। इस प्रकार से यह विष्णु, शिव, राम और कृष्ण चारों का मिलाजुला मंत्र है।
 
7. मनोजवं मारुततुल्यवेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम्।
वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीरामदूतम् शरणं प्रपद्ये।।- रामरक्षास्तोत्रम् 23
 
अर्थात : जिनकी मन के समान गति और वायु के समान वेग है, जो परम जितेन्दिय और बुद्धिमानों में श्रेष्ठ हैं, उन पवनपुत्र वानरों में प्रमुख श्रीरामदूत की मैं शरण लेता हूं। कलियुग में हनुमानजी की भक्ति से बढ़कर किसी अन्य की भक्ति में शक्ति नहीं है।
 
8. मङ्गलम् भगवान विष्णुः मङ्गलम् गरुणध्वजः। 
मङ्गलम् पुण्डरी काक्षः मङ्गलाय तनो हरिः॥
 
अर्थ : भगवान विष्णु का मंगल हो, जिसके ध्वज में गरुड़ हैं उसका मंगलमय हो, जिसके कमल जैसे नेत्र हैं उसका मंगलमय हो, उस प्रभु हरि का मंगलमय हो।
 
9. वसुदेवसुतं देवं कंसचाणूरमर्दनम्। 
देवकीपरमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्। 
अर्थ : वसुदेव के पुत्र; कंस, चाणूर आदि का मर्दन करनेवाले, (माता) देवकी को परमानंद देनेवाले और संपूर्ण जगत के गुरु भगवान श्रीकृष्‍ण को मैं वंदन करता हूं।
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10. ॐ जयन्ती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी। 
दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तुते।। 
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।। 
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।
 
अर्थ : जयंती, मंगला, काली, भद्रकाली, कपालिनी, दुर्गा, क्षमा, शिवा धात्री और स्वधा- इन नामों से प्रसिद्ध जगदंबे। आपको मेरा बारंबार नमस्कार है, नमस्कार है नमस्कार है।
 
11.
सरस्वति नमस्तुभ्यं वरदे कामरूपिणी
विद्यारम्भं करिष्यामि सिद्धिर्भवतु में सदा॥
या देवी सर्वभूतेषु विद्यारूपेण संस्थिता 
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥
अर्थ : हे सबकी कामना पूर्ण करने वाली माता सरस्वती, आपको नमस्कार करता हूँ। मैं अपनी विद्या ग्रहण करना आरम्भ कर रहा हूँ। मुझे इस कार्य में सिद्धि मिले। जो देवी सब प्राणियों में विद्या के रूप में विराजमान हैं, उनको नमस्कार, नमस्कार, बारंबार नमस्कार है।
Om Namah Shivay
12. 
देव सेनापते स्कंद कार्तिकेय भवोद्भव। 
कुमार गुह गांगेय शक्तिहस्त नमोस्तु ते॥'
या..................
ॐ शारवाना-भावाया नम: ज्ञानशक्तिधरा स्कंदा वल्लीईकल्याणा सुंदरा, देवसेना मन: कांता कार्तिकेया नामोस्तुते।
अपने चेतन में शरवान के भाव को प्राप्त करने वाले, ज्ञान और शक्ति के धारण स्कंद वल्ली के सखा, एककल्याणशी, सुंदर, देवसेना के मन का प्रिय, कार्तिकेय तुम्हें मेरा नमन।
 
13. 
ॐ नमस्ते परमं ब्रह्मा, नमस्ते परमात्ने।
निर्गुणाय नमस्तुभ्यं, सदुयाय नमो नम:।।
अर्थ :  पराशक्ति परब्रह्म परमात्मा को नमस्कार है। निर्गुण स्वरूप को नमस्कार।
 
14. 
ॐ नीलांजन समाभासं रविपुत्रं यमाग्रजम। 
छायामार्तण्डसम्भूतं तं नमामि शनैश्चरम्॥ 
मंत्र का अर्थ: जिनका शरीर नीले वर्ण का है, जो छाया और सूर्य के पुत्र हैं एवं जो यम के बड़े भाई हैं। उन शनिवे को में नमस्कार करता हूं।
 
15. 
।।उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।।
क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति।।14।। -कठोपनिषद् (कृष्ण यजुर्वेद)
अर्थ : (हे मनुष्यों) उठो, जागो (सचेत हो जाओ)। श्रेष्ठ (ज्ञानी) पुरुषों को प्राप्त (उनके पास जा) करके ज्ञान प्राप्त करो। त्रिकालदर्शी (ज्ञानी पुरुष) उस पथ (तत्वज्ञान के मार्ग) को छुरे की तीक्ष्ण (लांघने में कठिन) धारा के (के सदृश) दुर्गम (घोर कठिन) कहते हैं।
 
16. 
।।प्रथमेनार्जिता विद्या द्वितीयेनार्जितं धनं।
तृतीयेनार्जितः कीर्तिः चतुर्थे किं करिष्यति।।
अर्थ : जिसने प्रथम अर्थात ब्रह्मचर्य आश्रम में विद्या अर्जित नहीं की, द्वितीय अर्थात गृहस्थ आश्रम में धन अर्जित नहीं किया, तृतीय अर्थात वानप्रस्थ आश्रम में कीर्ति अर्जित नहीं की, वह चतुर्थ अर्थात संन्यास आश्रम में क्या करेगा?
 
17.
श्लोक : ।।विद्या मित्रं प्रवासेषु भार्या मित्रं गृहेषु च।
रुग्णस्य चौषधं मित्रं धर्मो मित्रं मृतस्य च।।
अर्थात : प्रवास की मित्र विद्या, घर की मित्र पत्नी, मरीजों की मित्र औषधि और मृत्योपरांत मित्र धर्म ही होता है।
 
18. श्लोक: ।। ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु। 
सह वीर्यं करवावहै। तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै।।19।। (कठोपनिषद -कृष्ण यजुर्वेद)
 अर्थात : परमेश्वर हम शिष्य और आचार्य दोनों की साथ-साथ रक्षा करें, हम दोनों को साथ-साथ विद्या के फल का भोग कराए, हम दोनों एकसाथ मिलकर विद्या प्राप्ति का सामर्थ्य प्राप्त करें, हम दोनों का पढ़ा हुआ तेजस्वी हो, हम दोनों परस्पर द्वेष न करें। उक्त तरह की भावना रखने वाले का मन निर्मल रहता है। निर्मल मन से निर्मल भविष्य का उदय होता है।
 
19. : 
।।अलसस्य कुतः विद्या अविद्यस्य कुतः धनम्। 
अधनस्य कुतः मित्रम् अमित्रस्य कुतः सुखम्।।
अर्थ : आलसी को विद्या कहां, अनपढ़ या मूर्ख को धन कहां, निर्धन को मित्र कहां और अमित्र को सुख कहां। 
 
20.
श्लोक : ।। येषां न विद्या न तपो न दानं, ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः । ते मृत्युलोके भुवि भारभूता, मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति।।
अर्थ : जिसके पास विद्या, तप, ज्ञान, शील, गुण और धर्म में से कुछ नहीं वह मनुष्य ऐसा जीवन व्यतीत करते हैं जैसे एक मृग।
अर्थात : जिस मनुष्य ने किसी भी प्रकार से विद्या अध्ययन नहीं किया, न ही उसने व्रत और तप किया, थोड़ा बहुत अन्न-वस्त्र-धन या विद्या दान नहीं दिया, न उसमें किसी भी प्राकार का ज्ञान है, न शील है, न गुण है और न धर्म है। ऐसे मनुष्य इस धरती पर भार होते हैं। मनुष्य रूप में होते हुए भी पशु के समान जीवन व्यतीत करते हैं।
संकलन : अनिरुद्ध जोशी

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