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मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
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21 मार्च ओशो संबोधि दिवस, इस दिन से वे शरीर में नहीं रहे

osho sambodhi divas

अनिरुद्ध जोशी

osho sambodhi divas: हम कब पैदा हुए, कब बड़े हुए और कब मर गए, इसका पता ही नहीं चलता। सजग, सतर्क और सचेत नहीं, जाग्रत रहो...सपने तुम्हें सच लगे या नींद तुम्हें सुला दे तो तुम फिर कैसे कायम करोगे स्वयं का अस्तित्व। नशा तुम्हें हिला दे तो फिर तुम्हारी कोई ताकत नहीं। विचार तुम्हें कट्टर बना दे या भावनाएं तुम्हें भावुक कर दे तो तुम फिर तुम नहीं। ऐसे ही जब मृत्यु आएगी तो तुम्हें मार ही देगी। इसीलिए जरूरी है संबोधि पथ पर चलना। क्या है संबोधि?
 
क्या होती है संबोधि : संबोधि निर्विचार दशा है। इसे योग में सम्प्रज्ञात समाधि का प्रथम स्तर कहा गया है। इस दशा में व्यक्ति का चित्त स्थिर रहता है। शरीर से उसका संबंध टूट जाता है। फिर भी वह इच्छानुसार शरीर में ही रहता है। यह कैवल्य, मोक्ष या निर्वाण से पूर्व की अवस्‍था मानी गई है।
 
संबोधि शब्द बौद्ध धर्म का है। इसे बुद्धत्व (Enlightenment) भी कहा जा सकता है। देखा जाए तो यह मोक्ष या मुक्ति की शुरुआत है। फाइनल बाइएटिट्यूड या सेल्वेशन (final beatitude or salvation) तो शरीर छूटने के बाद ही मिलता है। हालाँकि भारत में ऐसे भी कई योगी हुए है जिन्होंने सब कुछ शरीर में रहकर ही पा लिया है। फिर भी होशपूर्ण सिर्फ 'शुद्ध प्रकाश' रह जाना बहुत बड़ी घटना है। होशपूर्वक जीने से ही प्रकाश बढ़ता है और फिर हम प्रकाश रहकर सब कुछ जान और समझ सकते हैं।
 
यांत्रिक जीवन : ओशो कहते हैं हम यांत्रिक ढंग से जीते हैं। सोए-सोए जीते हैं, मूर्छा में जीते हैं। विचार भी हमारी बेहोशी का एक हिस्सा है। आंखें झपकती है, पता ही नहीं चलता। अंगूठा क्यों हिलाते हैं, इसका भी भान नहीं रहना। इसीलिए तो हमारे जीवन में इतना विषाद (Depression) और संताप है। इस संताप और विषाद को मिटाने के हम जो उपाय करते हैं वे हमें अधिक विषाद में ले जाते हैं, क्योंकि वे आत्मविस्मृति (self-abandonment) के उपाय हैं। 
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Acharya Rajneesh osho
यांत्रिक जीवन से निकलें : जहां-जहां हम अपने को मूर्च्छा में पाएं, हम यांत्रिक हो जाएं, वहीं संकल्पपूर्वक हम अपने स्मरण को ले आएं। यह होश में जीना ही संपूर्ण धर्म के ज्ञान का सार है। होशपूर्वक जीते रहने से ही संबोधि का द्वार खुलता। यह क्रिया ही सही मायने में स्वयं को पा लेने का माध्यम है। दूसरा और कोई माध्यम नहीं है। सभी ध्यान विधियां इस जागरण को जगाने के उपाय मात्र हैं।
 
कैसे घटित होती है संबोधि : जब हम सप्रयास लगातार सांसों के आवागमन और अंतराल पर ही ध्यान देते हुए ध्यान करते हैं तब एक दिन ऐसा आता है कि मन और मस्तिष्क में विचारों और भावों की अनवरत चल रही श्रृंखला टूट जाती है। ऐसी अवस्था में व्यक्ति जागते हुए भी सुषुप्ति का आनंद लेता है। इस घटना से सूक्ष्म शरीर पर जबरदस्त प्रभाव पड़ता है। वह ज्यादा सक्रिय होकर स्थूल शरीर से बाहर निकलने की ताकत में होता है। ऐसे व्यक्ति को ही संबुद्ध या सिद्ध पुरुष कहते हैं।
 
संबोधि के खतरे : पहली बात तो यह कि संबोधि के प्रयास में व्यक्ति की मृत्यु के मौके ज्यादा होते हैं। पहला कदम ही झटके देने वाला होता है। यदि सम्भालने वाला गुरु न हो तो मृत्यु संभंव भी है, और नहीं भी। अर्थात, व्यक्ति आनंद में उत्सुक होकर शरीर छोड़कर चला जाता है। इसे ऐसे कहें कि जिसे बंगला मिल गया हो वह क्यों झोपड़ी में रहे। ओशो के साथ 3 साधु थे जो उनकी देखरेख करते हैं- 1. मग्गा बाबा, 2. पागल बाबा और 3. मस्तो।
 
दूसरी बात यह कि यदि ठीक तरह से उस दशा को अवेयरनेस रखते हुए मेंटेन नहीं रखा तो पागलों जैसा व्यवहार होने के खतरे हैं या अचानक बहुत समय के लिए मौन हो जाते हैं।
 
तीसरी बात की छोटी-मोटी ऊंचाई से गिरने पर संभवत: चोट कम लगे, लेकिन बड़ी ऊंचाई से गिरने पर बचने के मौके नहीं होते। या तो गंभीर चोट या फिर मुत्यु होना तय है। इस तरह जब कोई उस मार्ग पर चलता है तो अधिकतर मौकों पर संसार की उलझनें उसे वापस विचारों और भावों के झंझावात में खींच लाती हैं।
 
ओशो का पूर्वजन्म : 700 साल पूर्व ओशो एक विशेष साधना में रत थे उनके मित्र के ही साथ। साधना के मात्र 3 दिन बाकी थे और मित्र ने उनकी हत्या कर दी। यदि वह तीन दिन पूरे हो जाते तो उन्हें दोबारा जन्म लेने की आवश्यकता नहीं होती। बच गए तीन दिन इस जन्म में सात-सात वर्ष करके तीन भागों में विभक्त हुए। ओशो ने जब जन्म लिया था, तब तीन दिन तो कुछ भी खाया और पीया नहीं था।
 
7 वर्ष की आयु में मृत्यु का पहला अनुभव फिर 14 वर्ष की आयु में, बाद इसके 21 वर्ष की उम्र में 21 मार्च 1953 को जबलपुर के भंवरताल बगीचे में मौलश्री वृक्ष के नीचे रात को लगभग 8 बजे उन्हें संबोधि घटित हुई। इसे नि:शब्द समाधि में होना भी कहते है। वे सुबह तक वहीं मौन में बैठे रहे। ओशो का कहना है कि उस दिन के बाद से ही मैं शरीर में नहीं हूं। हूं पर उस तरह नहीं जिस तरह कि कोई होता है। शरीर से अब तादात्म्य नहीं रहा।

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