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वेदों में वर्णित परम सत्ता का स्वरूप

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- अभिषेक अग्निहोत्री 


 
आध्यात्मिक राष्ट्र के रूप में भारत भूमि सुप्रसिद्ध है। भारतीय संस्कृति धर्माधिष्ठित संस्कृति है। इस भारत भूमि के व्यक्ति एवं समाज का लक्ष्य इहलौकिक अभ्युदय तथा पारलौकिक नि:श्रेयस की प्राप्ति है। 
 
भारतीय संस्कृतिरूपी अनेक शाखाओं-प्रशाखाओं से युक्त इस विशाल प्राचीनतम अक्षय वट के मूल तने की खोज की जाए तो निश्चित रूप से यह खोज वैदिक वाङ्मय तक जाकर पूर्ण होगी, क्योंकि वेद मात्र भारत का ही नहीं अपितु संपूर्ण विश्व का सबसे प्राचीनतम वाङ्मय है। भारतीय धर्म तथा दर्शन के प्राण वेद हैं। 
 
वैदिक ऋषियों ने अपने अंतरमन से जिस सत्य की अनुभूति की तथा जिसके आधार पर उन्होंने जीवन-पद्धति का निर्माण किया, उसका अविरल प्रवाह अविच्छिन्न रूप से भारतीय संस्कृति में प्रवाहित हो रहा है। 
 
वेद अक्षय विचारों का मानसरोवर है, जहां से विचारधारा प्रवाहित होकर भारत भूमि के मस्तिष्क को उर्वर बनाती हुई प्रवाहित होती है। भारतीय संस्कृति में जो जीवन-शक्ति दृष्टिगोचर होती है उसका मूल कारण वेद है।
 
भारत में उत्पन्न किसी भी धर्म, पंथ, मत, दर्शन या संप्रदाय के मूल में जाना है तो वेद में जाना होगा। डॉ. राधाकृष्णन के अनुसार किसी भी भारतीय विचारधारा की सही-सही व्याख्या के लिए ऋग्वेद के सूक्तों का अध्ययन अनिवार्य रूप से आवश्यक है। किसी भी धर्म, पंथ, मत, दर्शन या संप्रदाय के पारलौकिक चिंतन का मूल आधार परम सत्ता विषयक अवधारणा होती है। उस परम सत्ता का स्वरूप क्या? इसी स्वरूप को हमारे वेदों में भिन्न-भिन्न माध्यमों से स्पष्ट किया गया है-
 
'एकं सद विप्रा बहुधा वदन्ति'- (ऋग्वेद-1/ 164/ 46)
 
'सदेव सोम्येदमग्र आसीत् एकमेवाद्वितीयम'- (छान्दोग्योपनिषद्– 6/2/1)
 
सृष्टि के प्रारंभ काल से ही मानव अपने आस-पास घटित होने वाली घटनाओं से अभिभूत होकर किसी एक ऐसी सत्ता की कल्पना के लिए विवश होता रहा है, जो इस लौकिक दृश्यमान जगत से परोक्ष होकर भी उसका अधिष्ठाता है।
 
वेदों में इस अधिष्ठित शक्ति अर्थात परम सत्ता का वर्णन अनेक प्रकार से किया गया है। वेदों में इन्द्र, अग्नि, रुद्र आदि देवताओं की स्तुतियां भिन्न-भिन्न सूक्तों में की गई है, परंतु शीघ्र ही एक ऐसी प्रवृत्ति उत्पन्न हुई जिसने अंत:करण में प्रश्न किया कि हम अपने मानसिक यज्ञ में किस विशिष्ट देव के लिए आहुति दें। 
 
वैदिक ऋषियों ने उद्घोष किया कि यथार्थ सत्ता एक ही है। विद्वान लोग उसे अग्नि, यम और मातरिश्वा आदि नामों से पुकारते हैं जिसके परिणामस्वरूप ऋषियों ने इस बात का निश्चय किया कि ऐसी परम सत्ता अवश्य है जिसकी अग्नि, इन्द्र, वरुण आदि भिन्न-भिन्न संज्ञाएं तथा आकृतियां हैं। पुरोहित और कवि लोग शब्दजाल के द्वारा उस सत्ता को, जो केवल एक ही है, भिन्न-भिन्न रूपों में वर्णन करते हैं। 
 
ऋषियों का चिंतन और भी अग्रसर होता रहा। उन्होंने विचार किया कि उस एकमात्र परम सत्ता का स्वरूप क्या है जिसको भिन्न रूपों में वर्णित किया गया है। 'वस्तुत: कौन जानता है, कौन कह सकता है कि ये कहां से उत्पन्न हुए? कहां से यह विशेष सृष्टि की रचना हुई? इस सृष्टि की तुलना में देव बाद के हैं इसलिए और कौन जान सकता है कि यह संसार कहां से प्रकट हुआ?'
 
ऋषियों ने एक हृदयग्राही सरलता के साथ परम सत्ता के अनिर्वचनीयता का उद्घोष करते हुए कहा कि 'हम उसे देख नहीं सकते, हम उसका ठीक-ठीक वर्णन नहीं कर सकते।' 
 
ऋग्वेद में सृष्टि के पूर्व की अवस्था का वर्णन करते हुए कहा गया है कि 'उस समय न असत था, न सत था और न ही परमाणुओं से भरा आकाश ही था। उस समय वहां क्या आच्छादित था? किसके आश्रय से था और क्या बहुत अधिक गंभीर जल था? अत: यह विदित होता है कि उस अवस्था को जिसमें परमात्म सत्ता के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं था, लौकिक इन्द्रियों के माध्यम से जान पाना या वर्णित कर पाना संभव नहीं है।' वेदों में हमें एक ऐसे आदर्श काल की झलक मिलती है, जहां समस्त विचारधाराएं छायारूप होकर एक पूर्ण सत्य की ओर इंगित करती हैं। 
 
डॉ. राधाकृष्णन के अनुसार 'परब्रह्म एक और अद्वितीय है जिसे भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में और अन्वेषकों की भी अपनी भिन्न रुचियों के कारण भिन्न-भिन्न नामों से पुकारा जाता है। इस विचार को प्रचलित धर्म के साथ समन्वित करने को एक संकीर्ण विचार मात्र न समझना चाहिए। यह गंभीर दार्शनिक सत्य के रूप में दैवीय प्रेरणा का परिणाम है।' 
 

 
ऋषियों की यह अनुभूति उपनिषदों में और अधिक प्रकृष्ट रूप में होती है कि उस यथार्थ परम सत्ता को इन्द्रियों के माध्यम से जान पाना या वर्णित कर पाना कठिन ही नहीं, वरन असाध्य है। 
 
केनोपनिषद के अनुसार- वहां न तो चक्षु-इन्द्रिय पहुंच सकती है, न वाक् इन्द्रिय और न मन ही जिससे उस परम सत्ता को बताया जाए कि वह ऐसा है और न तो हम स्वयं अपनी बुद्धि से जानते हैं, न दूसरों से सुनकर ही जानते हैं, क्योंकि वह जाने हुए पदार्थ समुदाय से भिन्न ही है और न जाने हुए से भी ऊपर है।
 
तैत्तिरीयोपनिषद में कहा गया है कि जहां से मन के सहित वाणी इन्द्रियां उसे न पाकर लौट आती हैं, उस ब्रह्म के आनंद को जानने वाला पुरुष कभी भय नहीं करता। 
 
कठोपनिषद के अनुसार यह परम सत्ता न तो प्रवचन से, न बुद्धि से, न बहुत सुनने से ही प्राप्त हो सकती है जिसको यह स्वीकार कर लेती है कि उसके द्वारा ही प्राप्त किया जाता है। 
 
मुण्डकोपनिषद में कहा गया है कि वह परम सत्ता न तो नेत्रों से, न वाणी से और न दूसरी इन्द्रियों से ही ग्रहण करने में आती है तथा उसे तप अथवा कर्मों से भी ग्रहण नहीं किया जा सकता। उस निष्फल को तो विशुद्ध अंत:करण से ध्यान करता हुआ ही ज्ञान की निर्मलता देख पाता है।
 
ऋषियों का स्पष्ट मंतव्य है कि उस परम सत्ता को यद्यपि किसी इन्द्रिय के द्वारा प्रत्यक्षीकृत नहीं किया जा सकता, परंतु उसके अस्तित्व को लेकर किसी भी प्रकार का संदेह नहीं है। विशुद्ध अंत:करण वाले को ध्यान के द्वारा उसकी अपरोक्षानुभूति अवश्यंभावी है। 
 
वैदिक वाङ्मय में जिस एक शब्द को परम सत्ता के वर्णन के लिए सर्वाधिक महत्व दिया गया वह 'ॐ' हैं। यजुर्वेद के अनुसार आकाशवत व्यापक 'ॐ' ही ब्रह्म हैं। उपनिषदों में 'ॐ' के स्वरूप का अत्यंत यह ओंकार ही पर और अपर ब्रह्मा हैं। 
 
कठोपनिषद के अनुसार संपूर्ण वेद जिस परम पद का बारंबार प्रतिपादन करते हैं और संपूर्ण तप जिसके साधन हैं जिसको चाहने वाले साधकगण ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं, वह पद तुम्हें संक्षेप में बतलाता हूं, 'ॐ' ऐसा यह है। यह अक्षर ही तो ब्रह्म है।
 
तैत्तिरीयोपनिषद के अनुसार 'ॐ' ही ब्रह्म है। 'ॐ' ही यह प्रत्यक्ष दिखाई देने वाला समस्त जगत है। यहीं पर यह भी कहा गया है कि सामवेद गान करने वाले 'ॐ' इस प्रकार ईश्वर का नाम लेकर ही साम गान किया करते हैं। 
 
मांडूक्योपनिषद में ऋषि कहते हैं कि 'ॐ' अक्षर ही सब कुछ है। यह संपूर्ण जगत का उपाख्यान है। भूत, भविष्यत और वर्तमान में ओंकार ही है। 
 
श्वेताश्वतरोपनिषद में कहा गया है कि वे दोनों जीवात्मा और परमात्मा शरीर में ही 'ओंकार' की साधना करने पर प्राप्त हो सकते हैं। इस प्रकार यह विदित होता है कि उपनिषदों में 'ओंकार' ब्रह्म का वाचक होने के साथ-साथ उसे प्राप्त करने का साधन भी है। ओंकार को नाद या ब्रह्म भी कहते हैं। 
 
वैदिक धर्म में किसी मंत्र की पूर्णता तभी होती है, जब उसे 'ॐ' से संयुक्त किया जाता है। वेदों में परम सत्ता के निर्गुण एवं सगुण दोनों रूपों का वर्णन प्राप्त होता है। 
 
केनोपनिषद के अनुसार जिसका यह मानना है कि ब्रह्म जानने में नहीं आता है तो ब्रह्म मेरा जाना हुआ है तो वह ब्रह्म को नहीं जानता। 
 
मांडूक्योपनिषद में कहा गया है कि वह न अंत:प्रज्ञ है, न बहिष्प्रज्ञ है और न उभयात्मक है, न प्रज्ञानघन है, न प्रज्ञ है, न अज्ञ है। वह अदृष्ट, अव्यवहार्य, अलक्षण, अचिंत्य, अव्यपदेश, एकात्मप्रत्ययसार उसमें प्रपंच का सर्वथा अभाव है। वह शांत, शिव तथा अद्वैत रूप है। 
 
श्वेताश्वतरोपनिषद में ब्रह्म को निष्फल, निष्क्रिय, शांत, निर्दोष तथा निरंजन बताया गया है। श्वेताश्वतरोपनिषद में 'साक्षी चेतनस्वरूप तथा सर्वथा गुणातीत रूप में परमात्मा का वर्णन किया गया है। इस प्रकार उपनिषदों में निर्गुण विधायक श्रुतियां प्राप्त होती हैं। सगुण ब्रह्म की अवधारणा भी दूसरी तरफ अभिव्यक्त होती है। यजुर्वेद के अनुसार वह धर्मों को धारण करता है। 
 
तैत्तिरीयोपनिषद में कहा गया है कि जिससे ये सब प्राणी उत्पन्न होते हैं, उत्पन्न होकर जिसके सहारे जीवित रहते हैं तथा प्रयाण करते हुए जिसमें प्रवेश करते हैं, उसको जानने की इच्छा वही ब्रह्म है। यदि प्राणियों की उत्पत्ति को मायाजनित या विवर्त न मानकर वास्तविक माना जाए तो परम तत्व को गुणयुक्त होना अनिवार्य है, क्योंकि गुण के कारण सन्निवेश के अभाव में कार्य में गुण की उपस्थिति स्वीकार नहीं की जा सकती। 
 
तैत्तिरीयोपनिषद में ही ब्रह्म के सत्य, ज्ञान एवं अनंत गुणों का प्रधान रूप से वर्णन किया गया है, वहीं पर परमात्मा को रसस्वरूप भी बताया गया है जिसे प्राप्त कर जीवात्मा आनंदित होता है। 
 
श्वेताश्वतरोपनिषद में कहा गया है कि परमेश्वर संपूर्ण जगत में सदा व्याप्त है, ज्ञानस्वरूप परमेश्वर कालों का भी महाकाल, सर्वगुण संपन्न तथा सबको जानने वाला है। 
 
इसी प्रकार वेदों में परम सत्ता के परिमाण के संबंध में भी अणु, महत तथा अंगुष्ठमात्र इस प्रकार के भिन्न-भिन्न विचार प्राप्त होते हैं अत: स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि वैदिक वाङ्मय में एक ही परम सत्ता का अनेक रूपों में वर्णन किया गया है।
 
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